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फ्रेट विलेज के नाम पर टूट रहे बेबस किसानों के सपने!

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विजय विनीत 

उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले में गंगा के किनारे बसे ताहिरपुर और मिल्कीपुर के किसानों की आंखों से नींद गायब है। उनकी ज़मीनें, जो उनकी पीढ़ियों से जीवन का सहारा रही हैं, अब सरकार की फ्रेट विलेज योजना की भेंट चढ़ने वाली हैं। यह योजना, जो गंगा में जल परिवहन को बढ़ावा देने के नाम पर लाई गई थी, अब इन गांवों के मछुआरों और किसानों की जड़ें उखाड़ने पर उतारू है। सरकार की बेदर्द चाल से आहत किसानों ने 20 नवंबर 2024 से बेमियादी धरना शुरू कर दिया है।

42 वर्षीय बृजेश साहनी के चेहरे पर गहरी उदासी और थकान के निशान साफ झलकते हैं। वह कहते हैं, “जब बंदरगाह बन रहा था, तो हमें लगा था कि हमारे गांवों में रोजगार आएगा। हमने सोचा था कि जल परिवहन से गंगा का आशीर्वाद हमारी खुशहाल जिंदगी की नींव रखेगा। लेकिन गंगा में जलपोत नहीं चले, और अब सरकारी मशीनरी हमारी जमीनें और मकान छीनने के लिए पीछे पड़ी है। रोज अफसर आते हैं और हमें धमकाकर चले जाते हैं। वे कहते हैं कि या तो खुद जगह खाली करो, या बुलडोजर चलाकर हटा देंगे।”

गांव के मल्लाह समाज के पास लगभग 70 नौकाएं हैं। इन्हीं से उनके परिवार का गुजारा चलता है। बृजेश की बातों में दर्द छलकता है, “हमारी जमीनें हमारी धरोहर हैं। इन्हीं खेतों में उगने वाले धान-गेहूं से हमारे चूल्हे जलते हैं। लेकिन अब सब कुछ छिनने वाला है। हमारी बस्ती उजड़ जाएगी। हमारे पुरखे यहीं दफन हैं। हम कहीं और जाकर कैसे जिएंगे?”

गंगा की लहरों और मछलियों से जीवन चलाने वाले मछुआरे और किसान अब विकास के नाम पर अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहे हैं। ताहिरपुर और मिल्कीपुर की मल्लाह बस्तियों में अब केवल चिंता और आक्रोश है।

48 वर्षीय शीतल प्रसाद साहनी के पास मात्र 15 बिस्वा जमीन है, जिससे वे 12 लोगों के परिवार का पेट पालते हैं। वह कहते हैं, “सरकार जितना मुआवजा दे रही है, उसमें हम नई जमीन तो क्या, एक छोपड़ी भी नहीं बना सकते। हमारी जमीनें छिन जाएंगी, तो हम कहां जाएंगे? यहां रहकर हम मछलियां पकड़ते हैं, खेती करते हैं। लेकिन सरकार हमारी पूरी जिंदगी की बुनियाद छीनकर पूंजीपतियों को देना चाहती है। यह हमारी सामाजिक और आर्थिक विरासत को खत्म करने की साजिश है।”

यह परियोजना ताहिरपुर, मिल्कीपुर और राल्हूपुर तक सीमित नहीं है। किसानों को डर है कि फ्रेट विलेज का दायरा बढ़ाकर छोटा मिर्जापुर, नरायनपुर और चुनार तक किया जाएगा। इसका मतलब है कि सैकड़ों और परिवार बेघर हो जाएंगे। खेती, मत्स्य पालन, पशुपालन और बुनकरी जैसे धंधे भी खत्म हो जाएंगे। किसानों का कहना है कि उनके पास जमीन के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। “हमारे खेत-खलिहान ही हमारी जिंदगी हैं। सरकार की योजना हमें उखाड़कर फेंकने की है। हम इसके खिलाफ आखिरी सांस तक लड़ेंगे।”

सरकार ने इस परियोजना के लिए लाखों करोड़ रुपये का बजट बनाया है। लेकिन यह पैसा किसके लिए है? किसानों का मानना है कि यह योजना कारपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने के लिए बनाई गई है। बृजेश कहते हैं, “यह विकास नहीं, हमारा विनाश है। हमारी जमीनें छीनकर बड़े कॉरपोरेट्स को दी जा रही हैं। यह हमारी मेहनत और जिंदगी की लूट है। लेकिन हम इसे किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं करेंगे।”

बेरंग जिंदगी और उजड़ते सपने

गंगा किनारे बसा ताहिरपुर गांव, जहां हर सुबह गंगा की पवित्र लहरों के साथ उम्मीदों का सूरज उगता था, वहां के लोग आज अपनी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। फ्रेट विलेज योजना के नाम पर इन गांवों के किसानों और मछुआरों की जमीनें और घर छीने जा रहे हैं। लेकिन इसके साथ ही छीनी जा रही है उनकी शांति, उनकी स्मृतियां और उनके सपनों का भविष्य।

ताहिरपुर के बालचरण का चेहरा पीड़ा और हताशा का आईना है। वह दलित बस्ती में रहते हैं और कहते हैं, “हमारी कई पीढ़ियां यहां मर-खप गईं, लेकिन हमारी जिंदगी में कोई रंग नहीं आया। कभी पंजा, कभी कमल, कभी साइकिल, तो कभी हाथी… सत्ता के तमाम रंग बदले, लेकिन हमारे हिस्से हमेशा बेरंग जिंदगी आई। मुश्किल से एक छोटा सा घर बना पाए हैं। अब यह भी छिन गया तो कहां जाएंगे?”

बालचरण की बातों में दर्द और लाचारी है। वह आगे कहते हैं, “सरकार जो मुआवजा दे रही है, उससे हम न तो दूसरी जमीन खरीद सकते हैं, न एक नया घर बना सकते हैं। हमारी जमीनें जबरिया छीनी जा रही हैं, जबकि यहां की जमीनें बाजार में तीस लाख रुपये बिस्वा के दाम बिक रही हैं। सरकार यह अन्याय क्यों कर रही है?”

बालचरण के पास खड़ी अनीता, जिनकी उम्र सिर्फ 30 साल है, रो पड़ती हैं। उनकी आंखों में आंसू और गुस्सा दोनों साफ झलकते हैं। वह कहती हैं, “हमारे चार बच्चे हैं। पति मजदूरी करते हैं। अगर हमारी जमीनें छिन गईं, तो हमारे बच्चे क्या खाएंगे? सरकार ने हमारी मंजूरी के बिना फरमान सुना दिया कि हमें अपनी जमीनें खाली करनी होंगी। हम गंगा से दूर हो गए, तो हमारे बच्चे मछली कैसे पकड़ेंगे? हमारा पेट कैसे भरेगा?”

ताहिरपुर की बेबी, जिनके पति लाल बहादुर ऑटो रिक्शा चलाते हैं, अपने भीतर के आक्रोश को रोक नहीं पातीं। उनकी आवाज कांपती है, लेकिन उनके शब्द किसी हथौड़े की तरह लगते हैं। वह कहती हैं, “सरकार बताए कि हम कहां जाएं? अगर हमारी जमीनें और घर ले रही है, तो हमारी कब्रें खुदवा दे। हम अपनी जान दे देंगे, पर जमीन नहीं देंगे। बुलडोजर लेकर आएंगे, तो हम उसके आगे लेट जाएंगे। हमें मारकर ही हमारी जमीन छीन पाएंगे।”

इस योजना से किसका फायदा?

मिल्कीपुर के पूर्व प्रधान भाईराम साहनी अपनी पीड़ा और गुस्से को खुलकर व्यक्त करते हैं। वह कहते हैं, “जब गंगा में जहाज चलाने के लिए पानी ही नहीं है, तो यह फ्रेट विलेज किसके लिए बनाया जा रहा है? हमारी जमीनें कौड़ियों के दाम पर पूंजीपतियों को क्यों दी जा रही हैं?”

भाईराम की बातों में अनुभव और संघर्ष की झलक है। वह आगे कहते हैं, “हमने कई बार धरना-प्रदर्शन किया, लेकिन अफसरों और नेताओं को कोई फर्क नहीं पड़ा। उनके पास दिल नहीं है। वे हमारी मेहनत, हमारे पेट की नहीं, अपनी नौकरी और पूंजीपतियों के फायदे की परवाह करते हैं। अच्छा होगा कि हमें यहीं गाड़ दें और हमारी जमीनें ले जाएं।”

फ्रेट विलेज योजना सिर्फ एक परियोजना नहीं, बल्कि किसानों और मछुआरों के सपनों की कब्र बनती जा रही है। इन गांवों के लोगों की आवाजें सिर्फ सड़कों और आंदोलनों में ही गूंजती रह जाती हैं। अफसरशाही और पूंजीवाद का गठजोड़ उनके जीवन को बेरंग और बेमायने बना रहा है। गंगा किनारे बसे गांव ताहिरपुर, मिल्कीपुर और रसूलगंज की मिट्टी में बसे इनसान अब अपनी जमीन और अपने अस्तित्व के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं। ये वे लोग हैं, जो मां गंगा को जीवन का आधार मानते हैं। जिन्होंने अपनी पीढ़ियों से गंगा के साथ रिश्ता निभाया है। लेकिन आज वही गंगा पुत्र, जिन्हें मां गंगा की गोद ने पाला-पोसा, अपनी ही जमीन पर अजनबी बनते जा रहे हैं।

“गंगा के पुत्र स्वार्थी नहीं होते”

ताहिरपुर के पूर्व प्रधान भाईराम साहनी अपनी आवाज में दर्द और गुस्सा दोनों लिए हुए कहते हैं, “हमने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गंगा पुत्र समझकर अपना समर्थन दिया था। उन्होंने कहा था कि वे गंगा के बुलावे पर आए हैं। लेकिन अब वही हमारी जमीनें छीनने में जुटे हैं। गंगा के पुत्र मतलबी नहीं होते। हमारी मां गंगा का व्यापार नहीं किया जा सकता। जब हमारी जमीनें फ्रेट विलेज के नाम पर छीन ली जाएंगी, तो हमें क्या मिलेगा?”

भाईराम का सवाल बेबाक है। वह बताते हैं कि राल्हूपुर बंदरगाह की जमीन बंजर थी, फिर भी उसका मुआवजा अधिक दिया गया। वहीं चंदौली में उपजाऊ जमीनें कौड़ियों के भाव ली जा रही हैं। “हमारी जमीनें हमारे जीवन का आधार हैं। इसे छीनकर कारपोरेट घरानों के हवाले क्यों किया जा रहा है?”

भूमि अधिग्रहण के खिलाफ किसानों की आवाज़ बुलंद करने वाले विनय मौर्य और अखिलेश सिंह बताते हैं कि पहले ताहिरपुर और मिल्कीपुर की जमीनें बंजर थीं। यहां केवल कुश, बबूल और जंगली घास उगती थी। ग्रामीणों ने अपनी हड्डियां गला दीं, खून-पसीना बहाकर इन जमीनों को उपजाऊ बनाया। धान, गेहूं, सरसों, टमाटर, मक्का जैसे फसलें उगाने लगे। लेकिन अब, जब जमीनें सोना उगलने लगीं, सरकार ने इसे बंजर घोषित कर दिया।

अखिलेश सिंह का कहना है, “हमारी मेहनत से उपजाऊ हुई जमीनों को कारपोरेट घरानों के लिए लिया जा रहा है। सरकार का मुआवजा इतना कम है कि उससे नई जमीन खरीदना तो दूर, मकान बनाना भी मुश्किल है। आखिर हम कहां जाएंगे?”

“हम लड़ेंगे, अपनी जमीन नहीं देंगे”

किसान, मछुआरे और बुनकर बताते हैं कि जब भी अफसर आते हैं, उनके साथ पुलिस का दल-बल होता है। जितेंद्र कुमार गौतम, वीरेंद्र कुमार और राम निवास कहते हैं, “पिछले साल अफसर हमारे गांव आए और मल्लाहों की जमीन पर जबरन खंभे गाड़ने लगे। जब हमने विरोध किया, तो धमकी दी कि अगली बार बुलडोजर लेकर आएंगे और हमारे घर भी गिरा देंगे। यह अन्याय कब तक सहा जाएगा?”

किसानों का कहना है कि जब गंगा में जल परिवहन की योजना विफल हो चुकी है, तो फ्रेट विलेज का औचित्य क्या है? महेंद्र कुमार, इकबाल अहमद और आनंद कुमार कहते हैं, “हमारी जमीनें हमारे लिए सिर्फ मिट्टी का टुकड़ा नहीं हैं। यह हमारी आजीविका, हमारी जड़ें, हमारी आत्मा हैं। इन्हें छीनकर हमें ऐसे उजाड़ा जा रहा है, जैसे हम इस देश का हिस्सा ही न हों।”

मिल्कीपुर और ताहिरपुर के किसान अब लामबंद हो रहे हैं। गांव के प्रधान कन्हैया लाल राव किसानों के साथ खड़े हैं। वह कहते हैं, “हमारी जमीनों पर बार-बार खंभे गाड़कर कब्जा करने की कोशिश की जा रही है। विरोध करने पर बुलडोजर से घर गिराने की धमकी दी जा रही है। लेकिन किसान अब पीछे नहीं हटेंगे। अपनी जमीन और अपनी जिंदगी के लिए हम अंतिम सांस तक लड़ेंगे।”

सीमा देवी, जो दलित बस्ती में रहती हैं, कहती हैं, “हमारे पास कुछ भी नहीं बचा। अगर हमारी जमीनें छीन ली गईं, तो हम कहां जाएंगे? मछुआरों और किसानों के पास जमीन के सिवा कुछ नहीं होता। हमारी जमीनें और घर सब ले लेंगे, तो हम क्या खाएंगे, कहां रहेंगे?”

बौद्ध विहार पर संकट के बादल

फ्रेट विलेज का तूफान विकास के नाम पर खींची गई उन लकीरों के खिलाफ है, जो इन गांवों के मछुआरों, किसानों और बौद्ध अनुयायियों की जड़ों को काटने पर आमादा हैं। फ्रेट विलेज योजना के तहत जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया ने यहां रहने वाले लोगों के जीवन में अस्थिरता और गुस्सा भर दिया है। गंगा तट पर स्थापित तथागत विहार बुद्ध मंदिर, जो शांति और धर्म का प्रतीक है, आज विनाश के कगार पर खड़ा है। इस विहार का अस्तित्व खतरे में है क्योंकि फ्रेट विलेज परियोजना के लिए इसे हटाने का अल्टीमेटम दे दिया गया है।

तथागत विहार परिसर में 42 फीट ऊंचा अशोक स्तंभ, बोधिवृक्ष, ध्यान केंद्र और हरे-भरे पेड़ों से घिरा एक सुंदर वातावरण है। यह केवल एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि पूर्वांचल भर के बौद्ध अनुयायियों की श्रद्धा और शांति का केंद्र है। विद्याधर, जो इस बौद्ध विहार से गहराई से जुड़े हुए हैं, कहते हैं, “यह विहार ग्रीन बेल्ट में आता है। कानूनी तौर पर इसे हटाना संभव नहीं है। लेकिन सरकार विकास के नाम पर इतिहास को मिटाने पर तुली हुई है।” उनका चेहरा चिंता और बेबसी का आईना है।

“हमारी जमीनें, हमारा इतिहास”

यह बौद्ध विहार 2004 में पूर्वांचल के सैकड़ों किसानों और बौद्ध अनुयायियों के चंदे से बनाया गया था। बोधिवृक्ष, जो सारनाथ के मूलगंध कुटी विहार से लाकर यहां लगाया गया था, अब एक विशाल वृक्ष बन चुका है। अशोक स्तंभ और अन्य निर्माण कार्यों पर लाखों रुपये खर्च किए गए।

विद्याधर कहते हैं, “यदि इस विहार को मिटा दिया गया, तो यह केवल एक धार्मिक स्थल की नहीं, बल्कि एक पूरे इतिहास की मौत होगी।” फ्रेट विलेज परियोजना केवल बौद्ध विहार तक सीमित नहीं है। यह ताहिरपुर, मिल्कीपुर और रसूलगंज के 415 परिवारों की खेती की जमीनें भी छीनने जा रही है। इन गांवों में मछुआरों और किसानों की बड़ी आबादी रहती है, जिनका जीवन गंगा और जमीन पर टिका हुआ है।

तथागत विहार चैरिटेबल ट्रस्ट के सदस्य और स्थानीय लोग फ्रेट विलेज परियोजना को फर्जी और जनविरोधी बता रहे हैं। विनय मौर्य और अखिलेश सिंह का कहना है, “गंगा में जल परिवहन योजना पहले ही विफल हो चुकी है। अब फ्रेट विलेज के नाम पर गरीबों को उनकी जड़ों से उखाड़ा जा रहा है।” वे बताते हैं कि किसानों की जमीनों को बंजर घोषित कर, उन्हें गैर-उपयोगी दिखाया जा रहा है, जबकि इन जमीनों को उपजाऊ बनाने के लिए किसानों ने दशकों तक कड़ी मेहनत की है।

बुद्ध विहार और गांवों के खेत-खलिहानों पर मंडराता यह संकट केवल भूमि अधिग्रहण का मामला नहीं है। यह इस क्षेत्र की प्राकृतिक और सांस्कृतिक विरासत पर एक हमला है। “बौद्ध विहार केवल ईंट-पत्थर का ढांचा नहीं, यह हमारी धरोहर है,” विद्याधर कहते हैं।

फ्रेट विलेज परियोजना के खिलाफ गांवों में जबरदस्त विरोध देखा जा रहा है। 13 दिसंबर 2022 को तथागत विहार चैरिटेबल ट्रस्ट के नेतृत्व में सैकड़ों किसानों और बौद्ध अनुयायियों ने मार्च निकाला और चंदौली की तत्कालीन कलेक्टर ईशा दुहन को मांग-पत्र सौंपा। इस मांग-पत्र में स्पष्ट किया गया कि गंगा किनारे बौद्ध विहार के धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व को नष्ट नहीं किया जा सकता। “डबल इंजन की सरकार विकास के नाम पर गरीबों का अस्तित्व मिटा रही है,” किसानों का कहना है।

ना-मुमकिन घोषित की जा रहीं ज़मीनें

तथागत चैरिटेबल ट्रस्ट परिसर में रहने वाले भिक्षुक बुद्ध ज्योति, धम्म ज्योति और दीप ज्योति ने कहा, “जिस ज़मीन पर बौद्ध विहार स्थापित किया गया है, वह ज़मीन बैनामा के जरिए खरीदी गई थी। लेकिन जिला प्रशासन ने हमारी पांच बीघा ज़मीन को गैर-नामुमकिन घोषित कर दिया है, ताकि मुआवजा न देना पड़े। सत्ता में बैठे कुछ लोग अपने पूंजीपति दोस्तों को खुश करने के लिए बौद्ध विहार को उजाड़ने पर आमादा हैं।”

उन्होंने आरोप लगाया कि सरकार भूमि अधिग्रहण कानून का उल्लंघन कर रही है। उचित प्रतिकार एवं पारदर्शिता अधिकार अधिनियम, 2013 के तहत भूमि अधिग्रहण के लिए 70-80% प्रभावित लोगों की सहमति जरूरी है। तीनों गांवों के किसानों ने अपनी ज़मीन देने से इनकार कर दिया है। बुद्ध ज्योति ने कहा, “फ्रेट विलेज के लिए बौद्ध विहार की ज़मीन कौड़ियों के भाव देने का सवाल ही नहीं उठता। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर इस मुद्दे को उठाया जाएगा।”

बौद्ध विहार से जुड़े साहित्यकार विद्याधर विद्याधर ने कहा, “यह मुद्दा सिर्फ आस्था का नहीं, देशभक्ति का भी है। बौद्ध विहार में रोज़ योग साधना की जाती है और राष्ट्रीय एकता के नारे लगाए जाते हैं। फ्रेट विलेज के नाम पर इस केंद्र को नेस्तनाबूत करना एक महान परंपरा को तोड़ना होगा।”

उन्होंने आगे सवाल उठाए, “क्या गंगा में नियमित जलपोत चलाने के लिए पर्याप्त पानी है? करोड़ों रुपये खर्च कर बनाए गए बंदरगाह की ज़मीनें खाली क्यों पड़ी हैं? और गंगा के किनारे 200 मीटर के भीतर निर्माण पर हाईकोर्ट की रोक के बावजूद फ्रेट विलेज का प्रस्ताव कैसे रखा गया?”

बौद्ध विहार के समर्थक वीरेंद्र मौर्य ने कहा, “गंगा प्रदूषण के मामले में 2011 में हाईकोर्ट ने गंगा से 500 मीटर के दायरे में स्थायी निर्माण पर रोक लगाई थी। ऐसे में सरकार किस कानून के तहत गंगा तट पर फ्रेट विलेज की योजना बना रही है?” उन्होंने कहा कि यह योजना किसानों, मछुआरों और बुनकरों के हितों के खिलाफ है। बौद्ध विहार की स्थापना के लिए मौर्य, कुशवाहा, कोइरी, पटेल और दलित समुदाय ने आर्थिक योगदान दिया था। प्रशासन को दुर्गा मंदिर की तरह बौद्ध विहार को भी छोड़ देना चाहिए।

फ्रेट विलेज के खिलाफ बौद्ध विहार से जुड़े लोगों ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की है। कई किसानों ने भी अदालत में याचिकाएं दाखिल की हैं। अगर सरकार ने इस मुद्दे को हल करने के लिए कदम नहीं उठाए, तो यह आंदोलन और तेज़ होगा। सरकार को जवाब देना होगा कि गंगा किनारे पर्यावरण और कानून की अनदेखी क्यों की जा रही है। यदि यह योजना कारपोरेट घरानों को मुनाफा दिलाने के लिए है, तो इसका विरोध हर स्तर पर होगा। लाखों लोग अपनी आस्था और अधिकारों के लिए संघर्ष करने को तैयार हैं।

किसानों के सपनों पर हथौड़ा

गंगा नदी पर जल परिवहन का सपना अब किसानों के लिए दु:स्वप्न बन चुका है। गंगा के किनारे राल्हूपुर में करोड़ों रुपये खर्च कर बनाए गए बंदरगाह का हश्र किसी टूटे हुए खिलौने जैसा है। कभी इसे जल परिवहन की धड़कन कहा गया था, पर अब यह सिर्फ जंग खा रही मशीनों और वीरान इमारतों का ढेर बनकर रह गया है। इसी असफल परियोजना के नाम पर चंदौली और मिर्जापुर के करीब ढाई हजार किसानों की जमीनें छीनने की तैयारी हो रही है। इन किसानों का दर्द और आक्रोश अब उनकी ज़ुबान से सड़कों पर गूंजने लगा है।

राल्हूपुर में बने इस बंदरगाह के आसपास के ताहिरपुर, मिल्कीपुर और रसूलगंज जैसे गांवों के किसानों के लिए यह परियोजना अब विनाश का दूसरा नाम बन चुकी है। गंगा में जल परिवहन की योजना फिसड्डी साबित हो चुकी है, लेकिन ‘फ्रेट विलेज’ के नाम पर किसानों की जमीनों पर कब्जा जारी है।

किसानों का आरोप है कि उनकी जमीनें बड़े कॉरपोरेट्स के हवाले करने के लिए सरकार दबाव बना रही है। इन गांवों के किसानों की पीढ़ियां यहीं खेती-किसानी और मछली पकड़ने के काम में लगी थीं। मल्लाह, पटेल, हरिजन, डोम और कोइरी जैसी जातियों की आबादी वाले इन गांवों के लोगों के लिए यह जमीन केवल ज़मीन नहीं, बल्कि उनकी जड़ों का हिस्सा है।

सरकार द्वारा जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू होते ही गांवों के किसान विरोध में लामबंद हो गए हैं। ताहिरपुर और मिल्कीपुर के किसानों ने ऐलान किया है कि अगर उनकी जमीनों को जबरन छीनने की कोशिश हुई तो वे आर-पार की लड़ाई लड़ेंगे। “हम अपनी जमीन किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ेंगे,” यह बात इन किसानों की आंखों में साफ दिखाई देती है।

ताहिरपुर, मिल्कीपुर और रसूलगंज के किसान और बौद्ध अनुयायी अपनी जमीनों और अपनी धरोहर को बचाने के लिए संघर्ष का बिगुल फूंक चुके हैं। विरोध के स्वर तेज हो रहे हैं, और लोग इस अन्याय के खिलाफ खड़े हो रहे हैं। 20 नवंबर 2024 से बंदरगाह की ओर जाने वाले रास्ते के पास धरना और आंदोलन शुरू किया गया है। ताहिरपुर और मिल्कीपुर के किसान रोजाना धरने पर बैठ रहे हैं। किसानों और माझी समुदाय के लोगों ने ऐलान किया है कि जब तक इस परियोजना को रद्द नहीं किया जाएगा, उनका आंदोलन जारी रहेगा।

फ्रेट विलेज की यह योजना किसानों के घरों पर हथौड़े की तरह गिर रही है। जिन हाथों से कभी हल चला करते थे, वे अब अपनी जमीन बचाने के लिए उठ खड़े हुए हैं। यह संघर्ष केवल जमीन का नहीं, बल्कि उनकी अस्मिता और जीवन की बुनियाद का है। इन गांवों के किसानों की कहानी विकास की उस कीमत को बयां करती है, जिसे गरीब हमेशा चुकाते आए हैं।

फ्रेट विलेज का मामला केवल जमीन का नहीं, बल्कि किसानों और मछुआरों से अस्तित्व, इतिहास और जीवन की जड़ों का है। इनका कहना है कि सरकार को यह समझना होगा कि विकास के नाम पर विनाश नहीं किया जा सकता। यह लड़ाई केवल ताहिरपुर और मिल्कीपुर की नहीं, बल्कि उन सभी लोगों की है, जो अपने अधिकारों और विरासत के लिए खड़े होना जानते हैं।

पानी नहीं, फिर भी परियोजना का पाखंड

भारतीय अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण (IWAI) ने हल्दिया से वाराणसी तक गंगा में जलपोत चलाने की परियोजना बनाई थी। इसी के तहत राल्हूपुर में बंदरगाह और अब फ्रेट विलेज बनाने की योजना बनाई गई। लेकिन गंगा में पर्याप्त पानी न होने के कारण यह परियोजना पूरी तरह विफल रही। बंदरगाह पर खड़ी मशीनरी अब जंग खा रही है। बावजूद इसके, किसानों की 70 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया जा चुका है।

ताहिरपुर और मिल्कीपुर के किसानों की 121 बीघा जमीन का अधिग्रहण किया जाना है। किसानों के घर और खेत-खलिहान छीनने की यह प्रक्रिया उनके जीवन की खुशियां निगल रही है। उनकी दुनिया बिखरने की कगार पर है, और यह सब विकास के नाम पर हो रहा है।

IWAI का दावा है कि उसने मिल्कीपुर में लगभग 6.79 एकड़ जमीन खरीद ली है, लेकिन किसानों का कहना है कि उन्हें जबरन बेदखल करने की कोशिश की जा रही है। सिंचाई विभाग की बंजर दर्ज जमीन को भी इस परियोजना में शामिल किया गया है। राल्हूपुर बंदरगाह और फ्रेट विलेज परियोजना की अनुमानित लागत ₹5,369.18 करोड़ बताई जा रही है, लेकिन यह पैसा किसके भले के लिए है, यह सवाल सबके जेहन में गूंज रहा है।

सरकार और प्रशासन को चाहिए कि किसानों की इस पुकार को सुने और उनकी जमीनों पर कब्जा करने के बजाय उनके भविष्य को संवारने के लिए काम करे। अन्यथा, यह आक्रोश एक बड़े आंदोलन का रूप ले सकता है, जो विकास की इस फिसड्डी तस्वीर को हमेशा के लिए बदलकर रख देगा।

क्या है फ्रेट विलेज योजना?

भारतीय अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण (आईडब्ल्यूएआई) गंगा नदी के माध्यम से हल्दिया से वाराणसी तक माल ढुलाई की योजना दशकों से बना रहा है। हालांकि, यह योजना अब तक सफल नहीं हो पाई है, लेकिन इस पर भारी-भरकम खर्च लगातार किया जा रहा है। शुरुआत में इस परियोजना के लिए 70 एकड़ भूमि की आवश्यकता बताई गई थी, लेकिन अब इसका विस्तार लगातार बढ़ाया जा रहा है।

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, रामनगर के राल्हूपुर में बंदरगाह के विस्तारीकरण के तहत सौ एकड़ क्षेत्रफल में एशिया का पहला फ्रेट विलेज बनाने की योजना है। इस परियोजना पर करीब 3,055 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। इस परियोजना में लॉजिस्टिक पार्क, वेयरहाउस, कार्गो हैंडलिंग सुविधाएं, रेलवे ट्रैक, इलेक्ट्रिक स्टेशन, पावर हाउस और टर्मिनल जैसी आधुनिक सुविधाएं प्रस्तावित हैं। भारतीय अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण के प्रवीण कुमार पांडेय का दावा है कि यह परियोजना यूरोपीय फ्रेट विलेज मॉडल की तर्ज पर बनाई जा रही है।

फ्रेट विलेज के नक्शे में भेदभाव के आरोप लग रहे हैं। जहां मुस्लिम आबादी वाले बाहरी क्षेत्रों को भूमि अधिग्रहण के दायरे में रखा गया है, वहीं ताहिरपुर और वाजिदपुर गांवों के दुर्गा मंदिर को अधिग्रहण से मुक्त कर दिया गया है। इससे सरकार पर धार्मिक भेदभाव के आरोप लग रहे हैं।

कबाड़ में बिकेंगी मशीनें?

बंदरगाह की उपयोगिता और समीक्षा किए बिना भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू की गई है। परियोजना के तहत प्रभावित किसानों की सामाजिक, आर्थिक और भौगोलिक स्थितियों का कोई अध्ययन नहीं किया गया। किसान और स्थानीय लोग आरोप लगा रहे हैं कि भूमि अधिग्रहण के लिए जानबूझकर उन क्षेत्रों को चुना गया है जहां दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदाय के लोग रहते हैं।

इस परियोजना के भविष्य पर भी सवाल उठ रहे हैं। रामनगर बंदरगाह पर जलपोत कब आएंगे और इसका व्यावसायिक उपयोग कब शुरू होगा, इसका कोई ठोस जवाब नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय भी स्पष्ट कर चुका है कि बिना उचित न्यायिक प्रक्रिया के नागरिकों को उनकी संपत्ति से वंचित करना संविधान के अनुच्छेद 300-ए के तहत अवैध है।

सुप्रीम कोर्ट ने हिमाचल प्रदेश के विद्या देवी मामले में स्पष्ट किया था कि सरकार संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन कर नागरिकों की भूमि अधिग्रहित नहीं कर सकती। इस मामले में कोर्ट ने सरकार के ‘एडवर्स पजेशन’ के तर्क को भी खारिज कर दिया था। यह फैसला भूमि अधिग्रहण के मामलों में कानूनी प्रक्रिया की अनिवार्यता को रेखांकित करता है।

राल्हूपुर बंदरगाह की ज़मीन के लिए किसानों को जो मुआवजा दिया गया था, वैसा ही मुआवजा मिल्कीपुर और ताहिरपुर के किसानों को नहीं दिया गया। किसानों का आरोप है कि आईडब्ल्यूएआई दलित किसानों की ज़मीन पर नजरें गड़ाए हुए है और पुनर्वास की प्रक्रिया को नजरअंदाज कर रही है।

किसानों को बरगला रहे अफसर

भारतीय अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण (आईडब्ल्यूएआई) के अधिकारी यह बताने के लिए तैयार नहीं हैं कि जिस बंदरगाह और फ्रेट विलेज के लिए गरीब किसानों की जमीनें हथियाई जा रही हैं, उससे क्षेत्र के विकास को कैसे रफ्तार मिलेगी। बीते चार वर्षों में इस परियोजना पर भारी धनराशि खर्च की गई, लेकिन इसके बावजूद माल की ढुलाई से सरकार को एक पैसा भी मुनाफे के रूप में नहीं मिला।

रामनगर के समीप राल्हूपुर में स्थित बंदरगाह का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 12 नवंबर 2018 को किया था। इसे जल परिवहन क्षेत्र में मील का पत्थर बताया गया था। 5.586 हेक्टेयर क्षेत्र में मल्टी मॉडल टर्मिनल और 200 मीटर लंबा जेट्टी बनाया गया। लोडिंग-अनलोडिंग के लिए 50 टन क्षमता की दो मोबाइल हार्बर क्रेन भी खड़ी हैं, जो अब जंग खा रही हैं।

प्रोजेक्ट को दिल्ली-हावड़ा रेल मार्ग से जोड़ने के लिए 5.6 किलोमीटर लंबी सिंगल रेलवे लाइन का निर्माण जारी है। लेकिन वास्तविकता यह है कि राल्हूपुर बंदरगाह सुनसान पड़ा है, और उसके आसपास गाय-भैंस और गधे जुगाली करते नजर आते हैं। बीते चार वर्षों में बनारस-कोलकाता जलमार्ग पर न तो कोई जलपोत चला और न ही माल ढुलाई हो सकी।

गंगा में पानी नहीं, योजना बेमानी

गंगा में जलपोत चलाने में सबसे बड़ी बाधा उसकी गहराई की कमी है। नदी विशेषज्ञों के अनुसार, जलयान चलाने के लिए गंगा में पर्याप्त चौड़ाई और गहराई नहीं है। हर साल नदी में गाद भर जाती है, जिससे जलयान चलाना असंभव हो जाता है। साथ ही, उच्च क्षमता वाले जलयानों और आवश्यक टर्मिनल की अनुपलब्धता भी इस योजना के सामने बड़ी चुनौती है।

वरिष्ठ पत्रकार राजीव मौर्य कहते हैं, “अरबों रुपये खर्च करने के बावजूद इस योजना ने दम तोड़ दिया है। न तो जलयानों की कमी पूरी की गई और न ही उचित टर्मिनल और मैकेनिकल सुविधाएं विकसित हुईं।”

फ्रेट विलेज का मामला तब गरमाया, जब चंदौली के सांसद वीरेंद्र सिंह ने संसद में इस मुद्दे को जोरदार ढंग से उठाया। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जलमार्ग मंत्री सर्बानंद सोनोवाल को पत्र लिखकर किसानों की समस्याओं का समाधान करने की मांग की और पूछा कि जब गंगा में जल परिवहन के लिए पानी ही नहीं है, तो किसानों की जमीनें क्यों छीनी जा रही हैं?

सांसद वीरेंद्र सिंह का कहना है, “बनारस जल परिवहन परियोजना की सफलता मात्र 0.01% है। किसानों की जमीनें छीनने और उन्हें पुनर्वास से वंचित करने की कोशिश की जा रही है। यह परियोजना पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने के लिए लाई गई है।”

सांसद वीरेंद्र सिंह कहते हैं, “जब गंगा में पर्याप्त पानी ही नहीं है और जलपोत चलाना संभव नहीं है, तो टैक्सपेयर्स का पैसा बेवजह क्यों खर्च किया जा रहा है? फ्रेट विलेज की योजना किसके लिए लाई गई है और क्यों?” उन्होंने यह भी मांग की कि सरकार यह स्पष्ट करे कि रामनगर बंदरगाह के उद्घाटन के बाद कितने जलपोत चले, कितना माल ढोया गया और सरकार को कितना मुनाफा हुआ।

फ्रेट विलेज योजना किसानों के लिए परेशानियों का सबब बनती जा रही है। चंदौली के सांसद वीरेंद्र सिंह का कहना है कि, “बिना उचित योजना और तैयारी के, इस परियोजना का लाभ केवल चुनिंदा पूंजीपतियों तक सीमित रहेगा। यदि सरकार ने समय रहते इसे पारदर्शी और प्रभावी नहीं बनाया, तो यह परियोजना न केवल असफल होगी, बल्कि सामाजिक और आर्थिक नुकसान का कारण भी बनेगी। बंदरगाह पर खड़ी मशीनों का कबाड़ में बिकने का दिन दूर नहीं है।”

फ्रेट विलेज योजना को सरकार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ड्रीम प्रोजेक्ट बताया है। लेकिन ज़मीनी हकीकत और किसानों के विरोध ने इस योजना को विवादों में घेर दिया है। भूमि अधिग्रहण में पारदर्शिता की कमी, प्रभावित समुदायों की अनदेखी और भेदभाव के आरोप सरकार की मंशा पर सवाल खड़े कर रहे हैं। अगर समय रहते इन मुद्दों का समाधान नहीं किया गया, तो यह योजना न केवल पर्यावरण और सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचाएगी, बल्कि सरकार की विश्वसनीयता को भी चुनौती देगी।

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