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किसान के मुद्दों पर फिल्म बनाने के लिए जब महाराष्ट्र के एक किसान ने बेची अपनी ज़मीन!

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90 के दशक के दौरान ही मराठी न्यू वेव सिनेमा की शुरुआत हुई. इस सिनेमा ने महाराष्ट्र के कुछ मूल मुद्दों को फोकस में लाना शुरू किया. ये ऐसे मुद्दे थे जो ना सिर्फ स्थानीय रूप से महत्वपूर्ण थे बल्कि एक यूनिवर्सल अपील भी रखते थे. लेकिन अफसोस, 90 का दशक ही वह समय था जब किसानों के लगातार आत्महत्या करने की खबरों ने लोगों को स्तब्ध कर दिया था.

महाराष्ट्र अपनी विशिष्ट कला, साहित्य और संस्कृति के लिए देश भर में ही नहीं पूरी दुनिया में जाना जाता है. लेकिन बदकिस्मती से महाराष्ट्र को किसानों की आत्महत्या के मामलों के बारे में भी जाना जाता है. ताज़ा आंकड़ों के अनुसार महाराष्ट्र में औसतन 8 किसान रोजाना ख़ुदकुशी करने को मजबूर हैं. लेकिन मुश्किल हालात में ही इंसानी जीवटता की मिसाल भी देखने को मिलती है. महाराष्ट्र के अहमदनगर ज़िले के एक छोटे से गांव गवाड़ेवाड़ी के किसान भाऊराव करहाड़े ने ये साबित किया कि किसान का सब्र, दृढ़ निश्चय और निरंतर प्रयास एक सपने को हकीकत में बदल सकता है.

दरअसल फिल्मों की दुनिया में मराठी भाषा की फिल्में हिंदी फिल्मों से भी पुरानी हैं. पहली मराठी फिल्म ‘श्री पुंडलीक’ बनी थी 1912 में. हालांकि मराठी फिल्म इंडस्ट्री हिंदी के बनिस्पत बहुत छोटी है, लेकिन यह दो शहरों मुंबई और पुणे से संचालित होती है और मराठी फिल्म निर्माता-निर्देशकों का हिंदी सिनेमा पर बहुत प्रभाव रहा है. दादा साहेब फाल्के, महादेव गोपाल पटवर्धन और दादा साहब तोरने तीन ऐसे दिग्गज थे जिन्होंने हिंदी और मराठी सिनेमा में अपनी अमिट छाप छोड़ी. वी शांताराम, मास्टर विनायक, आचार्य अत्रे और राजा परांजपे कुछ ऐसे निर्माता निर्देशकों के नाम हैं जिनका योगदान हिंदी और मराठी फिल्मों में भुलाया नहीं जा सकता.

मराठी सिनेमा का जन-जन से नाता

धीरे-धीरे हिंदी फिल्में सामाजिक ग्रामीण और ज़मीनी मुद्दों से परे एक बड़े, लाउड कैनवस पर चली गईं जहां फंतासी, एक आकर्षक पैकेज में शहरी मुद्दों और काल्पनिक कहानियों ने कमर्शियल सिनेमा को अपने वश में कर लिया. गंभीर और हकीकत से जुड़े मुद्दे सिनेमा में थे तो लेकिन बॉक्स ऑफिस पर कहीं नहीं थे.

वहीं मराठी सिनेमा पर हमेशा हावी रहा वहां का लोकप्रिय थिएटर और लोक नाटक. 90 के दशक के दौरान ही मराठी न्यू वेव सिनेमा की शुरुआत हुई. इस सिनेमा ने महाराष्ट्र के कुछ मूल मुद्दों को फोकस में लाना शुरू किया. ये ऐसे मुद्दे थे जो ना सिर्फ स्थानीय रूप से महत्वपूर्ण थे बल्कि एक यूनिवर्सल अपील भी रखते थे. लेकिन अफसोस, 90 का दशक ही वह समय था जब किसानों के लगातार आत्महत्या करने की खबरों ने लोगों को स्तब्ध कर दिया था.

सिनेमा में कर्ज से दबे किसान

सरकार, संस्थाएं और किसान भी जुट गए कर्जे के बोझ तले दबे किसानों और उनके परिवारों की मदद करने में. फिल्म, साहित्य और थिएटर भी इससे अछूता ना रहा. ‘पांढर’, ‘गभ्रिच्या पाऊस’, ‘तिंग्या’, ‘कापूस कोंडयाची गोष्टा’, ‘फास’, ‘रिंगम’, ‘मुलशी पेटर्न’ – 2004 से 2018 तक बनी कुछ ऐसी फिल्में हैं जो किसानों के मुद्दों को गंभीरता से पेश करती हैं. नागनाथ मंजुले की ‘सैराट’ और ‘फैन्ड्री’ ग्रामीण समाज में पैठ बनाए जातिगत भेदभाव को बहुत प्रभावशाली ढंग से पेश करती हैं. ‘सैराट’ तो बॉक्स ऑफिस पर इतनी सफल हुई कि हिंदी में इसे ‘धड़क’ नाम से बनाया गया और हिंदी में भी यह सफल रही.

चरवाहे की दशा बताती एक फिल्म

बहरहाल, 2010 में अहमदनगर के गवाड़ेवाड़ी गांव में गेहूं, प्याज़, बाजरा वगैरह की खेती करने वाले भाऊराव करहाड़े ने निश्चय किया कि वे एक फिल्म बनाएंगे अपने ही गांव के चरवाहा समाज की समस्याओं पर. वे अपनी कहानी लेकर करीब 40 प्रोड्यूसरों के पास गए लेकिन कोई भी इस पर पैसा लगाने को तैयार नहीं हुआ. आखिरकार, भाऊराव ने तय किया कि वे खुद अपने इस सपने को सच में तब्दील करेंगे और इस फिल्म के जरिये अपने गांव के चरवाहा समाज की समस्याओं को सबके सामने लेकर आएंगे.

फिल्म बनाने लायक पैसा तो था नहीं, हां, थोड़ी बहुत ज़मीन ज़रूर थी. लेकिन ज़मीन बेचने के लिए परिवार को मनाना बहुत मुश्किल काम था मगर भाऊराव ने हार नहीं मानी. अपने परिवार को मनाया पांच एकड़ ज़मीन बेच कर पैसे की जुगाड़ करने के लिए. अहमदनगर का ये किसान परिवार, जो पहले से ही सूखे से जूझ रहा था भाऊराव करहाड़े की इस ज़िद्द से आहत भी था और हैरान भी. लेकिन परिवार के किसी एक सदस्य का सपना जब एक धुन में बदल जाए तो परिवार भी जुट ही जाता है उसे साकार करने में.

भूमि अधिग्रहण पर बनी फिल्म

ल्म का नाम रखा गया ‘ख्वाड़ा’ और इसकी कहानी भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर केंद्रित थी और साथ ही किसानों की विवशता और उसका फ़ायदा उठाती व्यवस्था पर भी कमेंट करती थी. चरवाहा समुदाय के घुमंतू जीवन को भाऊराव ने अपने गांव में बहुत करीब से देखा था कि किस तरह उन्हें बार बार जीविका की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह लगातार घूमते रहना पड़ता है.

फिल्म में रघु और उसका परिवार भी इसी तरह एक जगह से दूसरी जगह जाने को मजबूर हैं. रघु फॉरेस्ट विभाग से अपनी ज़मीन वापिस लेने के लिए कानूनी लड़ाई भी लड़ रहा है, इस उम्मीद में कि जब भी उसे अपनी ज़मीन वापिस मिलेगी, वह वहां बस जाएगा और उसके परिवार को जीविका की तलाश में इधर उधर नहीं घूमना पड़ेगा. लेकिन जब रघु का बेटा भ्रष्ट जमींदार के एक गुर्गे को कुश्ती में हरा देता है तो ईर्ष्यालु जमींदार उनका जीवन और भी दूभर कर देता है.

ख्वाड़ा फिल्म के बनने की दास्तां

‘ख्वाड़ा’ का मतलब होता है- रुकावट या बाधा. और इस फिल्म के बनने की कहानी दरअसल दास्तां है उन तमाम बाधाओं की, जिनसे जूझते हुए भाऊराव ने यह फिल्म बनाई. 90 लाख में ज़मीन का एक टुकड़ा बेचा और फिर पैसे कम पड़े तो कुछ और ज़मीन बेचनी पड़ी. फिल्म का कुल बजट रहा 1.20 करोड़. पैसा तो जुटा लिया लेकिन फिल्म का क्या थिएटर तक का भी अनुभव नहीं था भाऊराव को. बस, कहानी सुनने-सुनाने का ज़बरदस्त शौक था. आसपास के लोग कहते थे कि उनका कहानी सुनाने का तरीका बहुत दिलचस्प है.

हां, भाऊराव ने थिएटर और लोक नाटक देखा ज़रूर था. इस दृढ़निश्चयी किसान ने अपनी यह कहानी कुछ थिएटर के कलाकारों को सुनाई. कहानी तो सभी को बहुत अच्छी लगी लेकिन सभी ने अपने अपने तरीके से उन्हें चेता दिया कि फिल्म निर्देशित करना, उसे पर्दे पर उकेरना बहुत अलग और मुश्किल काम है.

लेकिन भाऊराव का निश्चय डिगा नहीं. उनके दृढ़ निश्चय ने मराठी के वरिष्ठ और मशहूर थिएटर कलाकार शशांक शेंदे को बहुत प्रभावित किया. भाऊसाहेब शिंदे को मुख्य किरदार की भूमिका में रखा गया और अनिल नगरकर को स्थानीय गुंडे के रोल में, इनके अलावा योगेश डिंबले, रसिका चव्हाण, वैष्णवी ढोरे, चंद्रकांत धूमल इत्यादि ने मुख्य भूमिकाएं निभाईं. लेकिन मज़े की बात ये कि इनमें से किसी ने कभी अभिनय नहीं किया था. तो कोई बात नहीं. सभी के लिए कहानी, स्क्रीनप्ले पढ़ने और अभिनय की वर्कशॉप्स लगाई गईं. यह सब लगभग ऐसा था मानो एक मकान को उसकी नींव से बनाने की शुरुआत करना.

ऐसे सच हुआ भाऊ राव कराड़े का सपना

आखिरकार उन्होंने फिल्म शूट करना शुरू कर दिया. जैसा कि हर फिल्म शूटिंग के साथ होता है- शेड्यूल टलता जाता है, लागत बढ़ती जाती है. नतीजतन पहले तीन बीघा ज़मीन बेची गई फिर दो बीघा और उसके बाद फिल्म के नायक ने अपना ट्रक बेच कर कुछ और पैसा जुटाया. इस पूरी प्रक्रिया की अद्भुत बात ये थी कि इसमें शामिल हर शख्स ये सोच रहा था कि ये दीवानगी है, लेकिन इसी दीवानगी में वो पूरी शिद्दत से जुटा भी हुआ था. यह अब सिर्फ भाऊ राव करहाड़े का सपना नहीं बल्कि इस टीम में शामिल सभी लोगों का सपना बन चुका था. इस पूरे प्रयास से मुंबई के विख्यात आर्ट डायरेक्टर चंद्रशेखर मोरे बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने फिल्म को प्रेजेंट करने का फैसला किया.

फिल्म की कहानी तो दिलचस्प थी ही, निर्देशक के तौर पर भाऊराव ने कहानी और किरदारों पर ही नहीं बल्कि छोटी-छोटी डिटेल्स जैसे साउंड, गांव का लैंडस्केप और यहां तक कि संवाद की भाषा पर भी उतना ही ध्यान दिया. फिल्म को प्रमोट करने का तरीका भी अनूठा था. ‘ख्वाड़ा’ ने कार्टून्स की मदद से फिल्म को प्रमोट किया. कार्टून्स बनाए प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट उदय मोहिते ने और ये कार्टून्स सोशल मीडिया पर तुरंत वायरल हो गए.

फिल्म प्रमोशन में सोशल मीडिया का रोल

2015 में ‘ख्वाड़ा’ रिलीज़ हुई. इस फिल्म को कमर्शियल सफलता मिली और बहुत से पुरस्कार भी. ख्वाड़ा को 62वें राष्ट्रीय पुरस्कार समारोह के दौरान स्पेशल ज्यूरी मेंशन और सर्वश्रेष्ठ साउंड सिंक के लिए पुरस्कृत किया गया, राज्य स्तर पर इसे सर्वश्रेष्ठ ग्रामीण फिल्म, सर्वश्रेष्ठ ग्रामीण निर्देशक और अन्य अनेक पुरस्कारों से नवाजा गया था. आज भाऊराव एक सफल निर्देशक हैं और किसान भी.

2018 में उनकी फिल्म ‘बबन’ बॉक्स ऑफिस पर ज़बरदस्त हिट हुई. वो जानते हैं कि मराठी फिल्मों में फ़ाइनेंस जुटा पाना आज भी बड़ी समस्या है लेकिन उनका अटूट विश्वास है एक अच्छी कहानी में और वे जानते हैं कि जितना धैर्य, निरंतर प्रयास और कभी ना हार मानने का जज़्बा किसान के लिए जितना ज़रूरी है, उतना ही फिल्म बनाने की प्रक्रिया में भी!

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