दलहन फसलों में अहम स्थान रखने वाले चने की बुवाई का अब सही वक्त आ गया है. किसान साथी अगर 30 अक्टूबर तक चने की बुवाई कर देते हैं तो बंपर पैदावार के लिहाज से अच्छा रहेगा. इसकी खेती किसानों के लिए अच्छे मुनाफे का सौदा हो सकती है, क्योंकि दालों के मामले में अभी भी भारत आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है. ऐसे में इसके दाम में तेजी के आसार बने रहेंगे. यही नहीं चने की फसल खेत के लिए खाद की ‘फैक्ट्री’ के तौर पर भी काम करती है, क्योंकि इसके पौधों की जड़ें वातावरण में मौजूद नाइट्रोजन को जमीन में फिक्स करती हैं. फिर भी किसानों को अच्छी पैदावार के लिए उर्वरकों का इस्तेमाल करना पड़ेगा.
बहरहाल, सरकार चने का उत्पादन बढ़ाना चाहती है ताकि दालों पर विदेशी निर्भरता कम हो. इसीलिए हाल ही में सरकार ने 210 रुपये प्रति क्विंटल का इजाफा करते हुए 2025-26 के लिए चने की एमएसपी 5650 रुपये कर दी है. ऐसे में किसान इसकी खेती बढ़ाकर अच्छी कमाई कर सकते हैं. दलहन फसलों में चने की हैसियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कुल उत्पादन में इसकी हिस्सेदारी करीब 45 फीसदी है.
उर्वरक की कितनी जरूरत
कृषि वैज्ञानिक सुनील कुमार, गजानंद, देवेंद्र सिंह, अब्बास अहमद और संगीता साहनी ने चने की खेती के बारे में विस्तार से जानकारी साझा की है. सबसे पहले हम यह जानते हैं कि इसकी खेती में प्रति हेक्टेयर कितने उर्वरक की जरूरत होगी.
- सामान्य परिस्थितियों में चने की अधिक उपज लेने के लिए 20 किलोग्राम नाइट्रोजन और 45 किलोग्राम फॉस्फोरस प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है.
- चने की फसल में उर्वरकों की मात्रा मिट्टी के परीक्षण के आधार पर ही प्रयोग करनी चाहिए. फिर भी अच्छी उपज लेनी है तो प्रति हेक्टेयर 20 किलोग्राम पोटाश और 20 किलोग्राम गंधक का प्रयोग कर सकते हैं.
- जिन क्षेत्रों में जस्ते और बोरॉन की कमी हो, वहां 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट एवं 10 किलोग्राम बोरेक्स पाउडर (सुहागा) प्रति हेक्टेयर बुवाई के समय अंतिम जुताई में प्रयोग करें.
- देर से बोई जाने वाली चने की फसल में 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से नाइट्रोजन का प्रयोग करना लाभकारी होता है. असिंचित अवस्था में फली बनते समय पत्तियों पर 2 प्रतिशत यूरिया के घोल का छिड़काव करके उपज में वृद्धि की जा सकती है.
- चने की फसल वायुमंडल में मौजूद नाइट्रोजन को जमीन में फिक्स करने का काम करता है. इसलिए चने की फसल के बाद लगाई जाने वाली अन्य खाद्यान्न फसल में 30-40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन उर्वरक का भी लाभ मिलता है.
- क्रॉप डायवर्सिफिकेशन में चने का अहम योगदान है. इसकी खेती से न सिर्फ जमीन की उर्वरा शक्ति बनी रहती है बल्कि उसकी जैविक गुणवत्ता में सुधार भी होता है.
- बीज उपचार जरूर करें
चने की बुवाई से पहले मिट्टी जनित रोगों से बचाव के लिए बीजों को कवकनाशी दवा जैसे-बीटावैक्स 2.0 ग्राम प्रति किलोग्राम या थीरम या कैप्टॉन 2-5 ग्राम/किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए. इसके 24 घंटे बाद कटुआ यानी कजरा पिल्लू कीट से बचाव के लिए क्लोरपाइरीफॉस 20 ईसी से (8 मिली/किग्रा बीज) बीजोपचार करना चाहिए.
कवक एवं कीटनाशी रसायन से उपचारित बीजों को 2 घंटे छाया में सुखाने के बाद, राइजोबियम कल्चर से उपचारित करना चाहिए. बीज उपचार करने के लिए राइजेबियम कल्चर का उपयोग 5 पैकेट प्रति हेक्टेयर की दर से करना चाहिए. राइजोबियम कल्चर की भांति ही फॉस्फेट घुलनशील बैक्टीरिया (पीएसबी) कल्चर से बीजोपचार करना अधिक लाभदायक रहता है. विभिन्न परिस्थितियों के अनुकूल उपयुक्त प्रजातियों का चयन कर बुवाई की जा सकती है.
चने की बुवाई का समय क्या है
असिंचित क्षेत्रों में चने की बुवाई का उचित समय अक्टूबर के दूसरे या तीसरे सप्ताह तक होता है. अंतिम सप्ताह तक भी बुवाई कर सकते हैं. सिंचित अवस्था में चने की बुवाई नवंबर के दूसरे सप्ताह तक कर देनी चाहिए, जबकि धान कटने के बाद बुवाई दिसंबर के पहले सप्ताह तक हर हाल में कर लेनी चाहिए. बुवाई में अधिक देर करने पर पैदावार कम हो जाती है और फसल में फलीभेदक कीट का प्रकोप भी अधिक होने की आशंका बनी रहती है.
बीज दर और दूरी
छोटे दाने वाली किस्मों की 75 से 80 किलोग्राम/हेक्टेयर, मध्यम एवं बड़े दाने के किस्मों की 90 से 100 किलोग्राम/हेक्टेयर बीज दर रखनी चाहिए. बुआई में देरी होने पर 20 प्रतिशत अधिक बीज दर का प्रयोग करना चाहिए. चने में पंक्ति से पंक्ति तथा पौधे से पौधे की दूरी प्रजाति, जलवायु, मिट्टी की किस्म, उर्वरा शक्ति तथा बुवाई की विधि आदि के अनुसार ही निर्धारित करनी चाहिए. सामान्य तौर पर पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 सेंटीमीटर तथा पौधे से पौधे की दूरी 8-10 सेंटीमीटर रखने से पौधों की बढ़वार अच्छी होती है और अधिक उपज मिलती है. चने की बुवाई 8-10 सेंटीमीटर की गहराई पर करने से उपज में वृद्धि हो जाती है.