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कृषि उत्पादों के आयात और निर्यात के फैसलों से सरकार ने बिठाया सही संतुलन

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केंद्र सरकार ने गत सप्ताह कृषि उत्पादों के आयात और निर्यात से संबंधित कुछ निर्णय लिए। उसने बासमती चावल पर न्यूनतम निर्यात मूल्य (एमईपी) समाप्त कर दिया। गत वर्ष बासमती चावल पर प्रति टन 1,200 डॉलर का एमईपी लगाया गया था जिसे बाद में कम करके 950 डॉलर प्रति टन कर दिया गया था। सरकार ने प्याज पर न्यूनतम निर्यात शुल्क भी 40 फीसदी से कम करके 20 फीसदी कर दिया।

दूसरी ओर उसने खाद्य तेलों पर आयात शुल्क को शून्य से बढ़ाकर 20 फीसदी कर दिया। अन्य घटकों को शामिल करने के बाद प्रभावी शुल्क दर 27.5 फीसदी होगी। रिफाइंड तेल पर आधारभूत कस्टम शुल्क बढ़ाकर 32.5 फीसदी कर दिया गया। सरकार को उम्मीद है कि यह निर्णय घरेलू सूरजमुखी, मूंगफली और सरसों के रिफाइंड तेल की मांग बढ़ाएगा।

इन निर्णयों से उत्पादकों को लाभ होगा। चावल के मामले में चूंकि अच्छे मॉनसून के कारण अच्छी फसल होने की उम्मीद में कीमतों में गिरावट आने लगी है तो ऐसे में निर्यात प्रतिबंध जारी रखने का कोई फायदा नहीं था। बहरहाल, उम्मीद के मुताबिक ही इस निर्णय को राजनीतिक नजरिये से भी देखा जाना चाहिए। हरियाणा विधान सभा चुनावों का प्रचार पूरे जोरशोर से चल रहा है। हरियाणा बासमती चावल का एक प्रमुख उत्पादक है। वहां एमईपी की शर्त हटाने की मांग उठ रही थी।

प्याज पर निर्यात शुल्क हटाने को महाराष्ट्र के विधान सभा चुनावों से जोड़कर देखा जा रहा है। महाराष्ट्र प्याज का प्रमुख उत्पादक प्रदेश है और हालिया लोक सभा चुनावों में सत्ताधारी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की हार की एक वजह इस प्रतिबंध को भी बताया गया। खबरों के मुताबिक वैश्विक बाजारों में प्याज की कमी है और यह बात भारतीय निर्यातकों को लाभ पहुंचा सकती है।

यह सही है कि ताजा कदम निर्यात अवसरों तथा खाद्य तेल के मामले में आयात प्रतिबंध के रूप में उत्पादकों को लाभ पहुंचाएगा लेकिन देश की कृषि व्यापार नीति के साथ बुनियादी प्रश्न यही है कि इसमें निरंतरता का अभाव है और यह अक्सर विरोधाभासी संकेत देती है। यह बात अच्छी तरह समझी जा चुकी है कि खाद्य कीमतों का मसला संवेदनशील मसला है और खाद्य सुरक्षा का सवाल इससे जुड़ा हुआ है। लेकिन फिर भी हस्तक्षेप सीमित होने चाहिए और पूरे विचार विमर्श के बाद किए जाने चाहिए।

उदाहरण के लिए चावल निर्यात पर प्रतिबंध की बोआई के समय ही समीक्षा होनी चाहिए थी। इससे किसान अधिक बेहतर निर्णय ले पाते। इसके अलावा यह बात अच्छी तरह दस्तावेजी कृत है कि कृषि क्षेत्र में हस्तक्षेप उपभोक्ताओं के हितों को देखते हुए किए जाते हैं। जैसा कि नवीनतम आर्थिक समीक्षा में भी कहा गया, ‘मूल्यों को स्थिर करने के उपाय उपभोक्ताओं से जुड़े होते हैं और वे किसानों की आय समर्थन नीतियों के साथ टकराते हैं।’ अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी और अन्य ने भी दिखाया है कि भारत के किसानों पर प्रतिबंधात्मक व्यापार और विपणन नीतियों के माध्यम से परोक्ष कर लगाया जाता है।

यह बात गत सप्ताह भी सरकार के निर्णय में नजर आई। सरकार ने कारोबारियों द्वारा भंडारित किए जाने वाले गेहूं की सीमा को 3,000 टन से कम करके 2,000 टन कर दिया। यह कदम बाजार में उपलब्धता बढ़ाने से संबंधित है ताकि कीमतें कम हो सकें। बहरहाल ऐसे कदम या भंडार सीमा का विचार आदि व्यापारियों को क्षमता निर्माण में निवेश करने से रोकते हैं।

इससे बाजार का विकास प्रभावित होता है। इससे फसल के समय कीमतें कम रहेंगी और उत्पादन बढ़ाने को प्रोत्साहन नहीं मिलेगा। ऐसे में यह अहम है कि सरकार हस्तक्षेप कम करे और बाजार ताकतों को विकास का अवसर दे। इससे उत्पादन बढ़ाने में मदद मिलेगी, उपलब्धता में सुधार होगा और समय के साथ कीमतों में उतार-चढ़ाव कम होगा।

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