Home कारोबार रिकॉर्ड महंगाई, कमज़ोर रुपया और महंगा गेहूं-चावल… क्यों चुप है सरकार

रिकॉर्ड महंगाई, कमज़ोर रुपया और महंगा गेहूं-चावल… क्यों चुप है सरकार

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सोनिया यादव

रिकॉर्ड महंगाई, कमज़ोर रुपया और महंगा गेहूं-चावल…ये सब अब हमारे देश की अर्थव्यवस्था की कड़वी सच्चाई बन गए हैं। बीते कुछ महीनों से सब्ज़ी, दूध, फल खाने पीने के ज़रूरी सामानों की क़ीमत आसमान छूती जा रही है। रुपया ऐतिहासिक गिरावट के साथ पहली बार डॉलर के मुक़ाबले 82 के नीचे फिसल गया है, तो वहीं केंद्रीय पूल में चावल व गेहूं का स्टॉक लगातार कम हो रहा है। इन सब के बीच सरकार भले ही दावा कर रही हो कि देश में खाद्यान्न भंडार की कमी नहीं है लेकिन रोज़मर्रा की चीज़ों के लिए जेब पर बढ़ते बोझ ने आम आदमी को भी ज़मीनी हक़ीक़त से रूबरू करवा ही दिया है।

बता दें कि केंद्रीय उपभोक्‍ता कार्य, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्रालय के हालिया आंकड़ों के अनुसार देश में गेहूं और चावल का भंडार लगातार कम हो रहा है। 30 सितंबर 2022 को मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़े बताते हैं कि केंद्रीय भंडार में लगभग 232 लाख मीट्रिक टन (एलएमटी) गेहूं और 209 एलएमटी चावल है। जबकि इससे पहले 1 सितंबर 2022 तक चावल 279.52 लाख टन और गेहूं 248.22 लाख टन यानी कुल 492.85 लाख टन खाद्यान्न भंडार में था। जनवरी 2022 में केंद्रीय भंडार में 551.66 लाख टन गेहूं-चावल था। और अगर पिछले साल से तुलना करें तो पिछले 1 सितंबर 2021 को केंद्रीय भंडार में 786.19 लाख टन अन्न था, जिसमें चावल की मात्रा 268.32 लाख टन और गेहूं 517.87 लाख टन शामिल था।

क्या है पूरा मामला?

इस साल देश में गेहूं का संकट पहले देखने को मिला। जहां एक ओर गेहूं का उत्पादन कम हो रहा था, वहीं रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण बने हालातों का फ़ायदा लेने के लिए भारत की ओर से गेहूं का जमकर निर्यात किया जा रहा था। हालांकि बाद में सरकार को गेहूं के निर्यात पर पाबंदी लगानी पड़ी। भारत ने 13 मई को तत्काल प्रभाव से सभी प्रकार के गेहूं के निर्यात को ‘फ्री’ से ‘प्रोहेबिटेडट’ श्रेणी में डाल दिया। लेकिन तब तक मामला हाथ से काफ़ी निकल चुका था। इस साल सरकार की गेहूं की ख़रीद 15 साल के सबसे निचले स्तर पर रही।

आधिकारिक डेटा के मुताबिक़, 8 मई तक एक किलो आटे की क़ीमत 33 रुपये थी, जो बीते साल से तुलना करें तो यह क़ीमत 13% ज़्यादा है। इस मामले में खाद्य सचिव सुधांशु पांडे ने कहा था कि कृषि मंत्रालय ने साल 2021-22 में गेहूं की पैदावार का अनुमान 11.1 करोड़ टन से घटा कर 10.5 करोड़ टन कर दिया है। सुधांशु पांडे के मुताबिक़ कम पैदावार और निजी एक्सपोर्टर्स की बेहतर क़ीमत पर ख़रीद के कारण साल 2022-23 व्यावसायिक साल में गेहूं की ख़रीद सरकार की ओर से 55% कम की गई है।

सरकार की ओर से तर्क दिया जा रहा है कि निर्यात पर रोक इसलिए लगाई गई है ताकि देश में गेहूं की कमी ना होने पाए। सरकार का कहना है कि गेहूं की पैदावार में कमी का बहुत असर नहीं होगा क्योंकि गेहूं का भंडारण सरकार का पास है।

गेहूं की ख़रीद में कमी और आटे की बढ़ती क़ीमत

गेहूं की ख़रीद में जो कमी आई है उसका असर आटे की बढ़ती क़ीमत के ज़रिए तो नज़र आ ही रहा है इसके साथ ही सरकार की पीएम ग़रीब कल्याण योजना पर भी दिखाई दे रहा है। इस योजना के तहत सरकार पांच किलो मुफ़्त अनाज ग़रीबों को दे रही है। अब ये योजना दिसंबर 2022 तक बढ़ा दी गई है। हाल ही में सरकार ने इस योजना में गेहूं की जगह चावल जोड़ दिया गया है यानी गेहूं की जगह चावल को रख दिया गया है, हालांकि सरकार ने इस क़दम के पीछे तर्क दिया कि वह ग़रीबों में पोषणयुक्त चावल (फोर्टिफ़ाइड राइस) के इस्तेमाल पर ज़ोर देना चाहती है। लेकिन बाज़ार में लगातार गेहूं और आटा का दाम बढ़ रहा है, जो इस पूरे मामले की सच्चाई बताने के लिए काफ़ी है।

अब अगर चावल की बात करें तो, अमेरिकी एजेंसी यूएसडीए ने जून 2022 में जारी अपनी रिपोर्ट में भारत में 2021-22 में 1,095 लाख टन चावल की खपत का अनुमान लगाया था। अगर इसी आंकड़े के आधार पर चालू वित्त वर्ष में चावल की खपत और उत्पादन (1049.9 लाख टन) से तुलना की जाए तो इस साल भारत में लगभग 45 लाख टन चावल की कमी पड़ सकती है। शायद यही वजह है कि सरकार ने सबसे पहले चावल के निर्यात पर पाबंदी लगाने का निर्णय लिया है। चावल निर्यात के मामले में भारत पूरी दुनिया में अव्वल है और 2021-22 में भारत ने 212.3 लाख टन चावल का निर्यात किया था।

गेहूं के बाद चावल का संकट

गेहूं संकट जैसे हालात अब चावल के साथ भी हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध जारी है, वैश्विक खाद्य संकट बना हुआ है, वहीं बेमौसम बरसात ने धान के फसल की बर्बादी में कोई कसर नहीं छोड़ी, जिसके चलते चावल की क़ीमतें बढ़ती जा रही हैं। केंद्रीय उपभोक्ता, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि पिछले साल के मुक़ाबले चावलों के रिटेल के दामों में 8.39 प्रतिशत की वृद्धि हो चुकी है। जबकि होलसेल के दामों में यह वृद्धि 8.85 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है। अभी सरकार के लिए चुनौती त्यौहारी सीजन में चावल के दामों में कमी लाना है।

उधर कई मीडिया रिपोर्ट्स में दावा किया जा रहा है कि चावल की बढ़ती मांग को देखते हुए निजी व्यापारियों ने किसानों से संपर्क करना शुरू कर दिया है। व्यापारी किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से अधिक क़ीमत पर धान की ख़रीद का ऑफर दे रहे हैं। जिसके चलते धान का उत्पादन कम होने से सरकारी ख़रीद और कम रहने की आशंकाएं बढ़ती जा रही हैं। इस साल सामान्य धान की एमएसपी 2040 रुपए प्रति क्विंटल है और ग्रेड ए धान की एमएसपी 2060 रुपए प्रति क्विंटल है।

ग़ौरतलब है कि निजी व्यापारियों के हाथ खाद्यान्न की ख़रीद लगना ठीक वैसा ही है जैसा सरकार एक तरह से कृषि क़ानून लाकर एक वेलफेयर स्टेट में नीजीकरण को बढ़ावा दे रही थी। विडंबना यह है कि ख़रीद का निजीकरण ठीक उसी वक़्त किया जा रहा है जब इस साल गेहूं की ख़रीद 56 फ़ीसदी तक गिर गई है और खाद्य भंडार रिकॉर्ड निचले स्तर पर चल रहा है। ऐसे में आने वाले समय में इस बात की बड़ी संभावना है कि पीडीएस यानी सार्वजनिक वितरण प्रणाली और खाद्य सुरक्षा को बड़ नुकसान हो सकता है, जिसका सीधा असर समाज में हाशिए पर खड़े लोगों की जेब पर देखने को मिलेगा जो चुनाव के समय पार्टियों के लिए महज़़ वोट से बढ़कर कुछ नहीं होते।

माना जा रहा है कि मंहगाई के पीछे बड़ा कारण रूस और यूक्रेन के बीच चल रहा युद्ध है। लेकिन इसके अलावा वक़्त से पहले पड़ने वाली भीषण गर्मी, बेमौसम बरसात, सरकार का कुप्रबंधन और सरकार की ‘आपदा में अवसर’ खोजने वाली अजीबो-ग़रीब नीतियां भी ज़िम्मेदार हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे देश में अभी भी ऐसे लाखों लोग हैं जो ज़िंदा रहने के लिए सरकारी सब्सिडी वाले खाद्यान्न पर निर्भर हैं और इस व्यवस्था के साथ कोई भी छेड़छाड़ बड़े पैमाने पर भूखमरी का कारण बन सकती है। फिलहाल सरकार भले ही इस मामले पर चुप्पी साध कर बैठी हो, लेकिन जानकारों का मानना है कि वो आने वाले समय में निजीकरण के लिए ज़मीन तैयार कर रही है, जो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से ग़रीब लोगों के साथ ही किसानों के लिए विनाशकारी साबित हो सकता है।

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