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बंजर ज़मीन में हल्दी और मशरूम की खेती से रची आत्मनिर्भरता की नई कहानी

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खेती-किसानी को आज भी कई लोग पुराना और नुक़सानदेह पेशा मानते हैं। लेकिन अगर किसी से पूछा जाए कि खेती में तकनीक, प्रशिक्षण और मेहनत का सही मेल हो, तो क्या ये भी एक सफल व्यवसाय नहीं बन सकता? इसका जवाब है – हरीश सजवान की प्रेरणादायक कहानी, जिन्होंने हल्दी की खेती और मशरूम की खेती को अपना कर न केवल खुद को आत्मनिर्भर बनाया, बल्कि दूसरों के लिए भी एक मिसाल बने।

दिल्ली से गांव की ओर वापसी

हरीश सजवान मूलतः उत्तराखंड के नैनीताल जिले के डोलमार गांव के निवासी हैं। वे पेशे से ऑटो इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियर हैं और कई वर्षों तक दिल्ली में नौकरी और व्यवसाय किया। लेकिन साल 2016 में जब देश में नोटबंदी हुई, तो उनके कारोबार को भारी नुक़सान झेलना पड़ा। ऐसे समय में उन्होंने एक साहसी निर्णय लिया – वे अपने पुश्तैनी गांव लौट आए और खेती को अपना करियर बनाने की ठानी।

बंजर ज़मीन को बनाया उपजाऊ

डोलमार गांव में उनका खेत पूरी तरह बंजर पड़ा था, और वहां कोई खेती नहीं करता था। जंगली जानवरों से फ़सलें नष्ट हो जाती थीं, इसलिए ज़मीन बेकार पड़ी थी। लेकिन हरीश जी ने हार नहीं मानी। उन्होंने अपने बचपन की यादों और दादी की मेहनत को याद करते हुए खेतों की साफ-सफाई की। सबसे पहले उन्होंने थोड़ा-थोड़ा हल्दी की खेती, अदरक और स्टॉबेरी लगाकर शुरुआत की।

लोगों ने उनका मज़ाक उड़ाया, कहा – “तुमने कभी खेती की नहीं, क्या करोगे?” लेकिन हरीश जी ने ठान लिया था कि जैसे उनकी दादी खेती कर सकती थीं, वैसे ही वे भी कर सकते हैं। उन्होंने इंटरनेट और वीडियो देखकर आधुनिक तकनीकों को अपनाया और धीरे-धीरे हल्दी की खेती को एक सफल व्यवसाय में बदल दिया।

पंतनगर विश्वविद्यालय से लिया प्रशिक्षण

खेती को आगे बढ़ाने के लिए हरीश सजवान ने पंतनगर विश्वविद्यालय से मछली पालन, मशरूम की खेती, जैविक खेती, खाद निर्माण, पशुपालन आदि विषयों पर प्रशिक्षण प्राप्त किया। ट्रेनिंग के दौरान उन्हें वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों से मार्गदर्शन मिला, जिससे उन्होंने समझा कि कम लागत में कैसे अधिक उत्पादन किया जा सकता है।

यहीं से उन्होंने मशरूम उत्पादन की विधियों को सीखा और अपने खेत में एक यूनिट की शुरुआत की। आज वे सफलतापूर्वक मशरूम की खेती कर रहे हैं और कई प्रकार के मशरूम का उत्पादन करते हैं।

नई दिशाओं में बदलाव की ओर हरीश सजवान का प्रयास

हरीश सजवान केवल खेती के मौन पालन और मशरूम उत्पादन तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि वह कृषि के क्षेत्र में नये आयामों को जोड़ने में भी अग्रसर हैं। हल्दी, काला आलू, काला गेहूँ, काला टमाटर, काला मक्का जैसी विशिष्ट और नई किस्मों पर शोध कर रहे हैं। इन नयी खेती विधियों के माध्यम से वह न केवल कृषि की विविधता बढ़ा रहे हैं, बल्कि किसानों को नए अवसरों की दिशा भी दिखा रहे हैं।

मशरूम की खेती कम जगह में अधिक लाभ

मशरूम की खेती को उन्होंने छोटे स्तर से शुरू किया, लेकिन आज यह उनके प्रमुख व्यवसायों में से एक बन चुका है। वे मशरूम के लिए लिक्विड कल्चर तकनीक का उपयोग करते हैं, जो गाजियाबाद से लाए गए विशेष डिकंपोज़र और स्पॉन से तैयार की जाती है। इस तकनीक से उत्पादन भी अधिक होता है और मशरूम की गुणवत्ता भी बेहतर रहती है।

हरीश जी कहते हैं – “मशरूम की खेती कम समय और सीमित स्थान में अधिक आय देने वाला व्यवसाय है। अगर इसे वैज्ञानिक तरीके से किया जाए तो यह युवाओं के लिए एक बड़ा स्वरोजगार बन सकता है।”

मार्केटिंग में नई सोच

हरीश जी अपनी उपज की मार्केटिंग पारंपरिक मंडियों के बजाय डिजिटल माध्यम से करते हैं। उन्होंने अपने ग्राहकों के लिए वॉट्सएप ग्रुप बना रखा है, जहां वे अपने उत्पादों की जानकारी और फोटो शेयर करते हैं। इसके अलावा वे क्षेत्रीय मेले, कृषि प्रदर्शनियों और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के माध्यम से भी प्रचार करते हैं। इस कारण उनकी बिक्री सुचारु रूप से होती है और उन्हें अच्छा लाभ भी प्राप्त होता है।

राज्यपाल से मिला सम्मान

हरीश जी की मेहनत और सफलता को देखते हुए उत्तराखंड सरकार ने उन्हें कई बार सम्मानित किया है। 2024 के हनी उत्सव में उन्हें राज्यपाल लेफ्टिनेंट जनरल गुरमीत सिंह (सेनि) द्वारा “कृषक सम्मान” से नवाजा गया। इसके अलावा उत्तराखंड दिवस 2024 और सरस मेला 2025 में उन्हें “किसान सम्मान” के रूप में मंच से सम्मानित किया गया।

प्रेरणा बनी डिजिटल मीडिया से

हरीश सजवान ‘किसान ऑफ इंडिया’ जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म से जुड़कर नई जानकारी प्राप्त करते रहते हैं। उन्होंने काले आलू, काले गेहूं जैसी फ़सलों के बारे में भी इन्हीं माध्यमों से जाना और अब वे इन पर भी प्रयोग कर रहे हैं। वे मानते हैं कि अगर युवा डिजिटल खेती और प्रशिक्षण से जुड़ें, तो वे आत्मनिर्भर बन सकते हैं।

सालाना 2.5 लाख रुपये से अधिक की आय

आज हरीश जी की सालाना आय लगभग 2.5 लाख रुपये तक पहुंच चुकी है। उन्होंने यह सब बिना किसी बड़ी ज़मीन, भारी मशीनरी या सरकारी अनुदान के किया है। सिर्फ़ अपने आत्मविश्वास, मेहनत और वैज्ञानिक खेती की बदौलत उन्होंने यह मुकाम हासिल किया है।

निष्कर्ष

हरीश सजवान की कहानी हमें बताती है कि हल्दी की खेती और मशरूम की खेती जैसी वैकल्पिक कृषि विधियां गांव के युवाओं को आत्मनिर्भर बना सकती हैं। अगर प्रशिक्षण और तकनीक को अपनाया जाए, तो बंजर ज़मीन भी सोना उगल सकती है। ऐसे प्रेरणादायक किसानों से देश को एक नई दिशा और ऊर्जा मिलती है।

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