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तकनीक और औजारों की तरक्की तथा सहकारी खेती

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हरेंद्र राणा

पूरी दुनिया पूंजी-संचय के असमाधेय संकट में फंसी हुई है। बहुराष्ट्रीय तकनीकी-वित्तीय शार्कों के सामने वित्त और तकनीक निवेश का भयंकर संकट है। फ़ैक्ट्री और सेवा क्षेत्र ठहराव के शिकार हैं। इन परजीवियों की आखिरी शरणस्थली है शेयर बाजार। लेकिन शेयर बाजार में जुआ खेलकर कब तक पैसा कमाएंगे? जब जमीन पर कुछ पैदा ही नहीं होगा, जिसपर जुआ खेला जा सके ?

बहुराष्ट्रीय तकनीकी-वित्तीय शार्कों की पूंजी और तकनीक एक जगह पड़े सड़ते हुए मलबे का ढेर बन चुकी है। अब कोई जगह नहीं बची लूट के लिए। ये उत्तर से लेकर दक्षिण और पूरब से लेकर पश्चिम पूरी दुनिया को अपनी शिकारगाह में तब्दील कर चुके हैं। सारे कारखाने, खदाने और सेवा क्षेत्र को हड़प चुके हैं। अब इन गिद्धों की नजर हमारी खाद्य वस्तुओं पर है।

इसके लिए वे हमारी खेती पर कब्जा चाहते हैं। हमारे पानी पर कब्जा चाहते हैं। हमारे बीज पर कब्जा चाहते है। हमारे पेड़ों पर कब्जा चाहते हैं। हमारे ज्ञान-विज्ञान के केन्द्रों पर कब्जा चाहते हैं। हमारे स्वतंत्र निर्णय पर कब्जा चाहते हैं। हमारे वित्तीय संस्थानों पर कब्जा चाहते हैं। वे चाहते हैं हमे और हमारी आने वाली संतानों को एक आधुनिक रोमन गुलाम में तब्दील कर देना। हम दिन-रात इन बहुराष्ट्रीय तकनीकी-वित्तीय शार्कों तथा इनके कनिष्ठ भारतीय टुकड़खोर पूंजीपतियों के लिए मुनाफा पैदा करने वाले गुलाम बन जाए।

भारतीय सरकार और हमारे कनिष्ठ पूंजीपति, इन बहुराष्ट्रीय तकनीकी-वित्तीय शार्कों के नापाक इरादों को अमलीजामा पहना चुके हैं। ये जयचंद और मीरजाफ़र इन विदेशी शार्कों के साथ दुरभि-संधि में नाभि-नाल बंध चुके हैं। और क्यों ना करे, आखिरकार हमारे साशकों का देश के साथ गद्दारी का शानदार इतिहास रहा हैं।

खेती की समस्या

खेती पर आज भी 60-70 फीसदी लोग निर्भर है। खेती की विकास वृद्धि दर 4.7 फीसदी से घटकर 2023-24 में 1.4 फीसदी पर आ गयी है। लेकिन खेती का सकल घरेलू उत्पाद में बस 17 फीसदी ही योगदान है। ऐसे में खेती की समस्या बहुत विकराल रूप ले लेती है। ये किसी से छिपा नहीं है कि देश की खेती भयंकर ठहराव का शिकार है। देश के 85 फीसदी किसान छोटे और सीमांत किसान हैं। जिनके पास ना यंत्र है और ना ही पूंजी। जिससे ये अपनी खेती को फायदेमंद बना सके। दलित और औरते आज भी खेती के मालिकाने से महरूम हैं। आदिवासियो को जमीनों से बेदखल किया जा रहा है। ये सभी निरंतर खेती से पलायन करते रहते हैं तथा शहरों की झुग्गियों में नरक का जीवन जीने को मोहताज होते हैं। हजारों-लाखो की संख्या में अत्महत्या करते रहते हैं। नशे और चोरी जैसे कुकृत्यों का शिकार होते रहते हैं और अमानवीय जीवन जीने को मजबूर होते हैं।

सरकार द्वारा किया गया हल

लेकिन हमारी धृतराष्ट्र सरकार को बस एक ही हल दिखता है। वह है खेती को देशी-विदेशी पूँजीपतियों के हवाले कर दो। इसलिए खेती को निर्यात आधारित, विदेशी निवेश और तकनीक पर निर्भर, निजी बाजार और विश्व पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से नत्थी कर दिया गया है। जो शेयर बाजार तथा डेरिवेटिव यानि फ्यूचर व्यापार के आधार पर चलेगी। वैंचर कैपिटल, तकनीक आधारित स्टार्ट-अप खेती की कमान संभालेगे। वैंचर कैपिटल, वह पूंजी है जो स्टार्ट-अप को बहुराष्ट्रीय वित्तीय फ़ंड द्वारा मुहैया करायी जाती है। जिसके दम पर स्टार्ट-अप तेजी से अपना कारोबार शुरू कर सकता है। खेती की फसल के दाम शेयर बाजार के उतार-चढ़ाव पर निर्भर करेगे। ऐसा जरूरी नहीं की इन किसान समूहों को फसल के अच्छे दाम मिलने की गारंटी होगी या हमेशा उनकी सारी फसल खरीद ही ली जाएगी। दूसरी तरफ हम अपनी सरकारी मंडी तथा पूरा सरकारी ढांचा खत्म कर चुके होगे। ऐसे में किसान पूरी तरह बेबस और मोहताज होगे इन बहुराष्ट्रीय गिद्धो के। दूसरे रूप में, ये कांट्रैक्ट खेती ही है।

अपनी उपरोक्त योजना को पूरा करने के लिए बहुराष्ट्रीय वित्तीय पूंजीवाद ने सहकारी खेती का रास्ता चुना है। जिसमें यंत्र, तकनीक, पूंजी और किसान शामिल रहेगे। आइये देखते है, इस रास्ते के ऐतिहासिक सबक क्या है? यह रास्ता वर्तमान में किस ओर जाएंगा?

तकनीक और औजारों की तरक्की तथा सहकारी खेती

इन बहुराष्ट्रीय तकनीकी-वित्तीय शार्कों की मजबूरी है सहकारी खेती करना। क्योंकि छोटी और सीमांत खेती में इनकी दैत्याकार मशीने और पूंजी कहाँ खप पाएँगी? ये 5 या 10 बीघा के किसान को अरबों रुपए का लोन नहीं दे सकते और ना ही एआई तथा ड्रोन जैसी तकनीक का उपयोग कोई छोटा तथा सीमांत किसान कर सकता है। यानि तकनीक, औज़ार और पूंजी समूहिक खेती की मांग कर रही है।

जबकि पूंजीवाद का आधार ही निजी मालिकाना है। ये भी पूंजीवाद की एक विडम्बना ही है की वह जिंदा रहने के लिए खुद ही अपना आधार खत्म कर रहा है। ऐसा करके विश्व पूंजीवाद अपनी कब्र खोदने वाले किसान भी खुद ही पैदा कर रहा है। ऐसा करके पूंजीवाद तात्कालिक तौर पर अपना रास्ता निकाल सकता है। लेकिन आखिरकर खुद को बचा नहीं पाएगा।

किसान का दृष्टिकोण और उसकी भूमिका

दूसरी तरफ जो किसान इन सहकारिता में शामिल होगे, उनको भी अपना दृष्टिकोण, अपनी मनोवृत्ति बदलनी पड़ेगी। वे जाति के बँटवारे तथा धार्मिक कट्टरता के दृष्टिकोण के साथ सहकारिता में हिस्सेदारी नहीं कर पाएगे। भाग्य और किस्मत के भरोसे जीने वाले किसान खेती में नए वैज्ञानिक प्रयोग कैसे कर पाएंगे? उनको शेयर बाजार के उतार-चढ़ाव के साथ-साथ रिस्क उठाने वाले बनना पड़ेगा। नए-नए तकनीक का प्रयोग सीखना पड़ेगा। नयी-नयी फसल पैदा करने की विधियाँ जाननी पड़ेगी। अगर किसान ये सब बदलाव नहीं कर पाये तो बहुराष्ट्रीय कंपनियो और भारतीय कनिष्ठ पूंजीपयों तथा उनकी सरकार का सपना मात्र सपना ही रह जाएगा। मुश्किल से आटे में नमक के बराबर हासिल होगा। क्योंकि तकनीक, वित्त, औज़ार सबकुछ के बावजूद निर्णायक भूमिका इंसान की ही होती है। वही इन सब का प्रयोग करता है। तथा वह इन सब का प्रयोग कैसे करेगा? यह उसके दृष्टिकोण, उसकी मानसिकता पर निर्भर करता है। पूंजीवाद किसानों की इस पिछड़ी मानसिकता को मुश्किल से ही बदल पाएगा। क्योकि यह बदली हुई चेतना उसके भी खिलाफ़ जाएंगी। लेकिन फिर भी किसानों में समूहिक मालिकने की चेतना का सूत्रपात जरूर कर देगा। जो आज नहीं तो कल पूंजीवाद के विरुद्ध उठ खड़े होंगे।

तथ्य यह बता रहे है हैं कि जमीन का पूंजीवादी मालिकाना जिसे निजी मालिकाना कहते हैं। यह निजी पूंजीवादी मालिकाना वर्तमान में पूंजीवादी तकनीक, औज़ार और पूंजी से मेल नहीं खा रहा है। पूंजीवादी विशालकाय तकनीक, औज़ार और पूंजी अब खेती में समूहिक मालिकाने की मांग कर रहे हैं। दूसरी तरफ, किसान का वर्तमान पिछड़ा दृष्टिकोण भी इस समूहिक मांग की पूर्ति नहीं कर सकता है। किसान को भी मिलजुलकर, समूहिक रूप से काम करने की आदत डालनी होगी। ये दोनों ही काम करने में पूंजीवाद नाकामयाब है। लेकिन हमारी सरकार पूँजीपतियों के हाथ में जान-बूझकर सौंप रही है।

फार्मर उत्पादक संगठन

अपने विदेशी आकाओ की योजना को मूर्त करने के लिए, हमारी सरकार देश में हरेक ब्लॉक में फार्मर उत्पादक संगठन (farmer producer organization) बना रही है। जिनमे सैकड़ों की संख्या में छोटे और सीमांत किसान इकट्ठे होकर एक सहकारी समूह बनाएगे और सहकारिता में खेती करेगे। जिसमे 125 मिलियन किसानो में से बस 25 मिलियन ही शामिल किए जाएगे।ये 25 मिलियन हरियाली के टापुओ का निर्माण करेंगी। 100 मिलियन किसानों का क्या होगा? क्या ये हरियाली आस-पास कच्छ का रण या थार का मरुस्थल तैयार कर रही है? नहीं इन 100 मिलियन किसानो को बर्बाद करके पूंजीपतियों के लिए भूमि-बैंक बनाए जाएगे। भूमि-बैंक में सरकार किसानो से हजारों बीघा जमीन खरीदकर या कब्जा करके रख लेती है। जब किसी निजी पूंजीपति को कोई कारख़ाना लगाना होगा तब उसे कोडी के दाम दे देती है।

ये फार्मर उत्पादक संगठन अपनी निजी मंडियों के लाइसेन्स जारी करने का अधिकार रखते हैं। जिनको सीधा बहुराष्ट्रीय तकनीकी-वित्तीय शार्कों से जोड़ा जाएगा। ये तकनीकी-वित्तीय शार्क किसानों को पूंजी, तकनीक, यंत्र, बीज तथा कीटनाशक मुहैया कराएंगे। गोदाम, प्रोसेसिंग (जैसे आलू से चिप्स बनाना) तथा व्यापार आदि का काम बहुराष्ट्रीय कंपनीय ही करेगी। खेती से संबन्धित नयी खोज का काम भी ये बहुराष्ट्रीय कंपनीय ही करेगी। किसानो को अपना बीज रखने का भी अधिकार नहीं होगा । ये कंपनीय बीज का पेटेंट करा लेगी। जो बीज किसानो को दिया जाएगा, वह बस एक ही बार उपजेगा उसके बाद बांज हो जाएगा। दूसरा अत्यधिक मुनाफे के लिए बेतहाशा कीटनाशक का प्रयोग किया जाएगा जिससे जमीन बंजर हो जाएगी। उसके बाद ये दैत्याकार कंपनिया अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर दूसरे देश को लूटने निकल जाएगी।

तकनीक और वित्तीय सुधार का ऐतिहासिक सबक

लातिन अमरीका का उदाहरण हमारे सामने है। इन्हीं कुख्यात बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने 20 वीं सदी में एक तरफ से केले की खेती की थी जिसको केले का गणराज्य (banana-republic) कहा जाता था। ज्यादा लाभ कमाने की धुन में इन कंपनियों ने केले की विविध प्रजातियाँ खत्म कर दी। बस एक ही किस्म पर ज्यादा ज़ोर दिया जो सबसे अच्छा उत्पादन देती थी। जब उस किस्म में रोग लगा तो वह पूरी तरह खत्म हो गयी और बाकी प्रजातियाँ पहले ही कंपनियों द्वारा खत्म की जा चुकी थी। ऐसी स्थिति में लातिन अमरीका के कई देश तबाह हो गए थे। बाद में सब उजाड़कर चले गए। पीछे रह गए बंजर जमीन और अभागे देशवासी, भुखमरी और मौत। यही काम अब चावल और अन्य गेहूँ की जींस के साथ किया जा रहा है। उनकी विविध किस्म खत्म की जा रही है। जब एक ही किस्म रहेगी और वह रोग ग्रस्त हो जाएगी,तब क्या होगा? भुखमरी का दानव पूरी दुनिया में तांडव करेगा। गिद्ध, चील और कौवें लाशों पर मंडरा रहे होगे। क्या  हम इससे बच पाएंगे ? 

ऐसा ही हरित-क्रांति में किया गया था जिसमे देश में जगह-जगह कुछ हरियाली के टापू बनाए गए थे तकनीक, कीटनाशक, फर्टिलाइजर और पूंजी के दम पर। जिनकी सच्चाई आज सबके सामने है। उस हरित-क्रांति ने बाकी देश की खेती को पिछड़ेपन में ही पड़े रहने दिया। बल्कि समृद्धि के हरियाली के टापू भी बंजर और पानी की कमी के लिए तरस रहे है। खेत भी कीटनाशक के नशे के शिकार हो गए तथा इंसान भी जहरीले नशों में डूब चुके हैं। क्या हम अब फिर वहीं अतीत को भयंकर तौर पर दोहरने जा रहे हैं ? 

इन्होंने 1960 के दशक की कांग्रेस सरकार के हरित क्रांति के नक्से-कदम पर चलने की ठानी है। बस फर्क इतना ही है कि उस समय देश के पूंजीपतियों के जरूरत और एकाधिकार कायम करना चाहते थे, लेकिन अब अपने विदेशी आकाओ का।

देश-दुनिया के सबक सरकार के सामने है। ये तरीके हमेशा विफलता और महाविनाश लेकर आए हैं। ऐसे में सरकार की मंशा साफ है कि हमे महाविनाश कि कीमत पर भी देशी-विदेशी पूँजीपतियों को मुनाफा पहुंचाना है। किसान और खेत से सरकार का कोई सरोकार नजर नहीं आता ।

 विकल्प

अगर थोड़ा भी सरोकार होता, तो सरकार अपने औज़ार भी बना सकती है, अपनी देशी तकनीक का भी निर्माण कर सकती है और जब अरबों-खरबो की सब्सिडी पूंजीपतियों को दे सकती है, तो किसानो को पूंजी भी मुहैया करवा सकती है। हमारे पास ग्रामीण बैंक है, खरीद करने के लिए मंडियां हैं, और नयी खोली भी जा सकती हैं। जब सरकार पूरे देश में सड़कों तथा हवाई अड्डों का जाल बिछा सकती है, तो खेती के उत्पादों के लिए गोदाम भी खोल सकती है। नयी प्रोसेसिंग कंपनियां (प्रोसेसिंग जैसे आलू से चिप्स बनाना)  भी लगा सकती है। रही बात निर्यात की तो क्या सरकार निर्यात करने में सक्षम नहीं है? बिलकुल है।

एक उन्नत खेती की शुरुआत की जा सकती है। सरकार अपने भूमि बैंकों (जो सरकार किसानो से कब्जा करके किसी प्रोजेक्ट के नाम पर अपने पास रखती है) और दूसरी सरकारी ज़मीनो में दलितों और औरतों को समूहो में मालिकाना देकर खेती का ठहराव भी तोड़ सकती है, रोजगार की समस्या हल कर सकती है और देश में एक बड़े बाजार का निर्माण कर सकती है। आदिवासियों के समूहिक मालिकाने की गारंटी देकर उनके उत्पादों की समूहिक खरीद का प्रबंध हो सकता है।

किसानो के दृष्टिकोण को वैज्ञानिक, तार्किक और मिल-जुलकर करने वाला बनाया जा सकता है। उनके लिए शिक्षा का अच्छा प्रबंध करके। वर्तमान में हमारे पास खेती से संबन्धित खोज केन्द्र और कृषि विश्वविधायलयों का एक अच्छा ढांचा है।

उपरोक्त सरकारी पहलकदमी से खेती कि तरक्की के साथ-साथ रोजगार कि समस्या भी हल हो सकती है। जाति और औरत की समस्या एक हदतक हल हो जाएगी। क्योंकि सभी को मालिकाना हक आत्मनिर्भरता तथा आत्मसम्मान की प्राप्ति हो जाएंगी। छोटे और सीमांत किसानों, दलितों और औरतों, आदिवासी, फैक्ट्री मजदूरों, तरक्की पसंद छात्रों और बुद्धिजीवियों को संगठित होकर लड़ना होगा। जो इन सबके हित की सरकार का निर्माण करेगे। यह उद्देश्य जात-धर्म, क्षेत्र, लिंग, नकली राष्ट्रवाद से ऊपर उठकर ही हासिल किया जा सकता है। यानि समूहिक खेती और सरकार के बीच में देशी-विदेशी पूँजीपतियों की रत्तीभर भी जरूरत नहीं है। लेकिन वर्तमान सरकार सबकुछ देशी-विदेशी पूंजी को सौंपने पर क्यों तुली हुई है ?  इसकी मुख्य वजह समझने की कोशिश करते हैं:

चौतरफा ढांचागत संकट

देश और दुनिया का इतिहास बताता है कि बहुराष्ट्रीय कंपनिया सिर्फ और सिर्फ अपने मुनाफे के लिए काम करती हैं। इन्होंने कहीं भी तथा कभी समस्या हल नहीं की है। बल्कि समस्या को विकराल ही किया है। खेती का संकट भी पूरी दुनिया और देश के चोतरफा संकट का ही फल है।  फैकट्री, सेवा क्षेत्र (शिक्षा, स्वास्थ्य आदि ) तथा शेयर बाजार में भी नयी तकनीक, जैसे एआई (AI), सेमीकंडक्टर, ग्रीन ऊर्जा, मशीन लर्निंग, साइबर सुरक्षा, आदि के सहारे ही अर्थव्यवस्था को चला रहे है। बाकी पुरानी तकनीक और उससे जुड़े लोगो को हाशिये पर फेंक चुके हैं।

खेती में भी अब तकनीक और वित्त के सहारे कुछ किसानो को लेकर अपनी गाड़ी निकालना चाहते हैं। असल में यही असली पूंजीवाद और उसकी सामान्य विशेषता है। वह कुछ मुट्ठीभर लोगो के साथ नयी-नयी तकनीक और वित्त के वेंटिलेटर पर अपने जीवन की साँसे चलाता रहता है। बाकी एक बड़ी आबादी  को शोषण, उत्पीड़न, लूट, भूख, कंगाली, जिल्लत तथा वंचना के पारवार में धकेल देता है।   

ढांचागत संकट के पीछे की नीतियां

वास्तव में, ये हमारे देश कि आजादी के बाद कि खेती की पूंजीवादी नीतियों तथा 1990 की साम्राज्यवादी नीतियों का फल है। जिनके परिणाम स्वरूप खेती की असली समस्या हल न करके देशी पूँजीपतियों की जरूरतभर बनाने का प्रयास किया गया। जो हरित-क्राति के रूप में सामने आया और कुछ दूर चलकर अपना दम तोड़ दिया।अपने दुष्परिणाम छोड़कर चला गया। फिर 1990 में समस्या ने अपना विकराल रूप दिखाया। यहाँ के पूँजीपतियों और उनकी कांग्रेस सरकार अब यह समस्या बहुराष्ट्रीय कंपनियो के हवाले कर दी। अब वे ही जाने क्या करना हैं? हम तो अपने हाथ खड़े कर चुके हैं।

1990 की साम्राज्यवादी नीतीया थी निजीकरन, वैश्वीकरण और उदारीकरण। जो अमरीका की अगुआई में बनी थी। जी7 उसका निर्माता था। विश्व व्यापार संगठन, विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष उसकी संचालक संस्थान हैं। इनका एक ही फरमान था कि अर्थव्यवस्था में ढांचागत सुधार करो। सबकुछ वित्तीय पूंजी के हवाले करो। सब कुछ निजी करो और हमारी तकनीक को लागू करो। सामाजिक कल्याण पर सारा खर्च बंद करो और इस पैसे से हमारा ऋण चुकता करो। सरकार बस एक मैनेजर की भूमिका निभाएँ। बाकी सब बाजार के हवाले कर दे। जिसके परिणाम स्वरूप आज भारत सहित सभी तीसरी दुनिया के देश जी7 के लिए कच्चा माल तथा सस्ता श्रम उपलब्ध करने वाले बनकर रह गए। सभी नीतियाँ जी7 देश ही तय करते हैं। ये वित्तीय और तकनीकी गुलामी तीसरी दुनिया के सभी देशो के हुकुमरान और पूँजीपतियों ने जनता पर थोप दी। सिर झुकाकर स्वीकार कर ली। हमारे देश ने भी की। आज ये साम्राज्यवादी नीतियाँ निम्न रूप धारण कर चुकी है :

  1. पूरी दुनिया को अपने खेमे में शामिल करने का राजसूय यज्ञ।
  2. संरक्षणवादी और निष्पक्ष व्यापार (करों में छूट और साम्राज्यवादी पूँजीपतियों को हरेक देश में बराबरी का मौका)।
  3. 1990 की नीतियों को पूरी तरह थोपने पर आमादा।
  4. तीसरी दुनिया के देशों को आयातकर, सब्सिडी, श्रम कानून, पर्यावरण सुरक्षा को तिलांजलि देने पर मजबूर करना।
  5. कच्चे माल की कीमतों में कमी करवाना।   

आज हमे खेती में इसी विषैले वृक्ष के जहरीले फल मिल रहे है। जब तक हमारे कंधों पर इन साम्राज्यवादियों, इनके कनिष्ठ टुकडखोर देशी पूंजीपति, धनी किसान तथा बड़े फार्मर और इनकी पिटठू सरकार तथा सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय संसदीय राजनीतिक पार्टियों का जुआ लदा रहेगा, तब तक हमारी खेती और हम आजाद नहीं हो सकते।

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