ये बीज मिट्टी में 30 से 45 दिनों तक पड़े रह सकते हैं और अंकुरित होने के लिए उनको 5 से 10 मिलीमीटर बारिश की प्रतीक्षा रहती है।
सुनीता नारायण
मैं अत्यधिक धूप और गर्मी वाले इलाके में खड़ी हूं और जहां तक मेरी नजर जा रही है, बंजर और उजाड़ इलाका नजर आ रहा है। यह आंध्रप्रदेश का अनंतपुरमु जिला है जहां इस वर्ष सामान्य से कम बारिश हुई और किसान बोवाई नहीं कर सके। परंतु जब मैं देखती हूं तो मुझे फसल उगती नजर आती है।
राज्य सरकार के समुदाय प्रबंधित प्राकृतिक कृषि कार्यक्रम रैयत साधिकार संस्था के प्रमुख टी विजय कुमार समझाते हैं कि फसलों को उत्पादन गोलीनुमा बीजों से किया जा रहा है। इस विधि में किसान बीजों को गाय के गोबर और राख जैसी चीजों में लपेट देते हैं और फिर मिट्टी को न्यूनतम क्षति पहुंचाते हुए गोलाई में उनकी बोवाई करते हैं। ये बीज मिट्टी में 30 से 45 दिनों तक पड़े रह सकते हैं और अंकुरित होने के लिए उनको 5 से 10 मिलीमीटर बारिश की प्रतीक्षा रहती है।
जोखिम कम करने का एक और तरीका है विविध फसलों की बोवाई। इसमें लाल चने से लेकर अरंडी के पौधे और बींस तक शामिल हैं। महिला किसानों ने हमें बताया कि इस तकनीक की मदद से उन्हें ऐसे मौसम में फसल उगाने का मौका मिला जो बेकार चला जाता था। जलवायु जोखिम वाले समय में जब बारिश में असानता बढ़ेगी तो ऐसे कृषि व्यवहारों की बहुत जरूरत है।
उसके बाद हम कुछ और किसानों से मिलने गए जो प्राकृतिक खेती कर रहे हैं। मैं यह समझना चाहती थी कि हम जिसे रसायन रहित खेती या जैविक खेती कहते हैं उससे यह किस प्रकार अलग है। एक के बाद एक कई खेतों में हमने देखा कि वृक्षों और फसलों के मिश्रण का इस्तेमाल किया गया है। मुझे खेतों की मेढ़ों पर सुपारी, सहजन या मुनगा और पपीते के पौधे देखने को मिले।
इसके अलावा खेतों में मोटे अनाज, मक्के और दालों आदि के साथ चुकंदर, पालक तथा बींस की खेती देखने को मिली। इन सभी की मिश्रित खेती हो रही है जिसमें किसी व्यवस्था का पालन नहीं किया जा रहा है या कम से कम मुझे तो यही लगा।
उसके बाद रैयत साधिकार संस्था की मुख्य प्रौद्योगिकी एवं नवाचार अधिकारी लक्ष्मा नाइक ने मुझे बताया कि इस खेती की भी एक व्यवस्था है। इसका लक्ष्य है पौधों का एक संजाल तैयार करना ताकि जैवविविधता तैयार हो सके और इसकी बदौलत जमीन में विविध प्रकार की फंफूद और जीवाणु उत्पन्न हो सके।
इसका लक्ष्य है किसानों को अलग-अलग समय पर अलग-अलग फसलों से आय सुनिश्चित करवाना। नाइक इस मॉडल को एटीएम कहती हैं यानी एनी टाइम मनी (किसी भी समय)। ये सभी फसलें पूरी तरह प्राकृतिक उर्वरकों का इस्तेमाल करके उगाई जाती हैं। मुझे जिस बात ने उत्साहित किया वह है इस कार्यक्रम का इतने बड़े पैमाने पर अपनाया जाना।
यह आंध्र प्रदेश के लगभग हर जिले में लागू है। शुरुआत में इसे जीरो बजट खेती कहा जाता था और इसकी शुरुआत 2015 में हुई थी। आज करीब आठ लाख किसान यानी राज्य के किसानों में से 14 फीसदी किसी न किसी तरह प्राकृतिक खेती कर रहे हैं।
यह वह जैविक खेती नहीं है जिसके बारे में हम जानते हैं। इस खेती में पारंपरिक विज्ञान को पूरी तरह उलट दिया गया है। इस तरीके का पहला सिद्धांत यह है कि जैव विविधता मिट्टी को मजबूत बनाने के लिए अहम है। इसका अर्थ यह हुआ कि बहु फसल खेती केवल जोखिम कम करने का तरीका नहीं है बल्कि मिट्टी का सूक्ष्मजीवी जीवन सुधारने के लिए भी यह आवश्यक है।
दूसरा सिद्धांत भी कृषि वैज्ञानिकों की राय के खिलाफ है। वह यह है कि मिट्टी को धूप न लगने दी जाए। दूसरे शब्दों में जमीन को हर वक्त ढका रहने दिया जाए। इसके बाद वह तरीका मिलाया जाता है जिसमें मिट्टी के साथ न्यूनतम छेड़छाड़ की जाती है यानी हल नहीं चलाया जाता है। यह सब इसलिए किया जाता है ताकि जमीन उपजाऊ बने और मिट्टी की जैवविविधता में सुधार हो।
ऐसा होने पर पानी की खपत में कमी आती है और प्रकाश संश्लेषण में सुधार होता है। इसके बाद जैव उत्प्रेरकों यानी गाय के गोबर, गोमूत्र, गुड़ और दालों के आटे की बारी आती है। इससे मिट्टी की उत्पादकता बढ़ती है। जहां तक मुझे समझ में आया, यहां बात पौधों से जुड़े विज्ञान की नहीं बल्कि मिट्टी के विज्ञान की है।
परंतु यही वजह है कि इस तरह की खेती का काफी प्रतिरोध हो रहा है। यह अलग है- जैविक खेती अभी भी काफी हद तक पारंपरिक तौर तरीकों पर आधारित है, बस उसमें रसायनों का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। इस मामले में विज्ञान पौधों में प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देता है ताकि वे मिट्टी में अलग-अलग तरह की फंफूद और जीवाणु पैदा कर सकें।
सवाल यह है कि आखिर क्यों किसान प्राकृतिक खेती को अपना रहे हैं और इसे लोकप्रिय बनाने के लिए और क्या किया जाना चाहिए। पहले प्रश्न का जवाब एकदम साधारण है: अर्थव्यवस्था ही वह कारक है जो इस बदलाव को गति दे रही है। प्राकृतिक खेती करने वाले किसानों ने मुझे बताया कि उनकी उत्पादकता अपने उन पड़ोसियों के समान ही है जो पारंपरिक खेती करते हैं।
परंतु वे उनकी तुलना में बीजों, कीटनाशकों और उर्वरकों पर न के बराबर खर्च करते हैं। इस खेती में पानी की खपत भी कम होती है। वे पारिवारिक श्रम का इस्तेमाल करते हैं और इस प्रकार वे दूसरों की तुलना में दोगुनी आय हासिल करते हैं। वे एक साथ विविध फसलें उगाकर जोखिम भी कम करते हैं।
दूसरे प्रश्न का उत्तर देना कठिन है। सच तो यह है कि वैज्ञानिक अभी भी इस तरह की खेती को अनुत्पादक मानते हैं। इस तरह की खेती से जुड़े ज्ञान को इसे अपनाने के लिए पर्याप्त नहीं माना जाता है। यही वजह है कि आज आंध्र प्रदेश में इस व्यवहार को अपनाने के पीछे असली ताकत पुरुषों की नहीं बल्कि महिलाओं की है। इस प्राकृतिक खेती को गांवों की महिलाओं के स्वयं सहायता समूह अपना रहे हैं ताकि वे सीखते हुए इस विचार का प्रचार-प्रसार कर सकें।
मैं वहां से बहुत प्रेरणा लेकर वापस आई हूं लेकिन मैं यह देखकर दुखी भी हूं कि कैसे विज्ञान के कारोबार ने कल्पना की शक्ति खो दी है। हम यहीं नाकाम हो रहे हैं।