औद्योगिक क्रांति के बाद से पूरे विश्व भर में ग्लोबलवार्मिंग और जलवायु परिवर्तन केवल मानव जाति के लिए ही नहीं बल्कि संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र के लिए एक समस्या बनकर उभरा है। एक समय जिस स्थान पर अच्छी बारिश होती थी आज वहां हर वर्ष सूखा पड़ रहा है, इसका मुख्य कारण जलवायु में परिवर्तन ही है। जलवायु परिवर्तन से पृथ्वी पर रहने वाले हर प्रजाति को कई प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष नुकसान उठाना पड़ता है, इसी नुकसान की वजह से पिछले कुछ वर्षों से फलों के लिए बागवानी खेती करने वाले किसान भाइयों को उपज में काफी कमी देखने को मिली है। उत्तरी भारत के राज्यों में फल उगाने वाले किसान अब नई वैज्ञानिक तकनीकों की मदद से कुछ उपाय खोजने की कोशिश कर रहे हैं। कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार साल 2021-22 में भारत में लगभग 7 मिलियनहेक्टरक्षेत्र में फल उगाए जाते हैं और प्रतिवर्ष लगभग 93 मिलियनटन फल प्राप्त होते हैं।भारतीय बागवानी कृषि विश्व भर के उत्पाद में लगभग 10% हिस्सेदारी निभाती है। आम, केला और अमरूद तथा अनार, अंगूर और पपीता जैसे प्रमुख फसलों के उत्पादन में भारत विश्व के शीर्ष देशों में शामिल है।
वैश्विक तापमान में परिवर्तन और बारिश के पैटर्न में हुए बदलाव की वजह से फलदार पौधों में निम्न नुकसानदायक प्रभाव देखने को मिले हैं :तापमान में वृद्धि होने के कारण किसी भी पौधे पर लगने वाले फलों की परिपक्वता का समय कम हो जाता है। इसकी वजह से वह जल्दी तैयार हो जाते हैं और इन्हें बाजार में जल्दी बेचना पड़ता है, इससे फलों के भंडारण की संभावना कम हो जाती है और उन्हें तुरंत भेजना पड़ता है। इस वजह से किसानों को सही दाम नहीं मिल पाते और उनका मुनाफा कम हो जाता है।
- इसके अलावा किसी स्थान पर अधिक वर्षा या सूखा पड़ने पर फसल की उत्पादकता पूरी तरीके से कम होने के साथ ही वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड में वृद्धि होने से ग्लोबल वार्मिंग का खतरा बढ़ा है, जिस कारण फसल की गुणवत्ता पर काफी बुरा प्रभाव देखने को मिला है।
- अधिक कार्बन-डाइऑक्साइड की वजह से फलों में स्टार्च और ग्लूकोज की मात्रा ज्यादा देखने को मिल रही है, जिससे इन फलों के सेवन से रक्तचाप और शुगर जैसी बीमारियां होने का खतरा बढ़ रहा है।अधिक ग्लूकोज संचित करने वजह से इन फलों को पानी की अधिक आवश्यकता होती है।
- इसके अलावा विश्वत रेखा के आसपास वाले क्षेत्रों में आसमान में अधिक समय तक बादल छाए रहने की वजह से वहां पर उगाए जाने वाले आम और अमरूद के फलों में एस्कोरबिक अम्ल की मात्रा घट जाती है, जिस वजह से फल में पाई जाने वाली मिठास कम हो जाती है और फुल पूरी तरह से फीका लगता है। इस कारण उसकी बाजारू मांग में भी कमी देखने को मिलती है।
- बदली हुई जलवायु परिस्थितियां नए प्रकार के रोगों को जन्म दे रही है, तापमान में बढ़ोतरी होने से कई सूक्ष्म जीव और बैक्टीरिया पौधों की जड़ों और तने को नुकसान पहुंचाते हैं, इसके अलावा इन बैक्टीरिया की वर्द्धि दर भी तेज हो जाती है, जो बाद में सीधे फलों को ही खाने लगते हैं। इन रोगों की रोकथाम के लिए किसानों को रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल करना पड़ता है, जो लागत को बढ़ाकर आर्थिक दबाव पैदा करते हैं।
- ऊपर बताए गए नुकसान को ध्यान में रखते हुए अब कृषि वैज्ञानिक इनके निदान के लिए प्रयास कर रहे हैं।
हालांकि किसी भी पारिस्थितिकी तंत्र पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को पूरी तरीके से खत्म तो नहीं किया जा सकता, लेकिन वैज्ञानिक विधियों की मदद से इसे कम भले ही किया जा सकता है।गर्मी के मौसम में पेड़ों की कटाई-छंटाई कम करनी चाहिए और पेड़ के तने और उसकी मोटी शाखाओं को सफेद रंग से पुताई कर देने पर सूरज से आने वाली किरण का प्रभाव कम पड़ता है, जिससे फल के पकने में लगने वाला समय अधिक हो जाता है और किसान को अच्छी उपज के साथ ही अच्छा मुनाफा हो पाता है।
- अधिक गर्मी पड़ने से बाग के क्षेत्र में नमी की मात्रा कम हो जाती है। नमी को बरकरार बनाए रखने के लिए समय-समय पर क्षेत्र की नमी की जांच करनी चाहिए और बाग की नियमित और उचित सीमित मात्रा में सिंचाई करनी चाहिए।यदि आप के बाग में पिछले सीजन के कुछ पौधे बचे हुए हैं और उनसे फल प्राप्त नहीं हो रहे हैं, तो उन्हें काटकर उनकी पलवार बना देनी चाहिए, जिससे बाग के क्षेत्र के तापमान को आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है।
- रासायनिक उर्वरकों की तुलना में जैविक खाद का इस्तेमाल करने से पौधों में नमी बनी रहती है और उन्हें पानी की कम आवश्यकता होती है। इससे रासायनिक उर्वरक खरीदने का खर्चा भी बच जाता है।अधिक ठंड पड़ने वाले क्षेत्रों में तापमान को नियंत्रित करने के लिए पतझड़ के समय पौधों के नीचे गिरी हुई सूखी टहनियों और पत्तियों को इकट्ठा कर जलाने से भी फायदा हो सकता है।इसके अलावा पत्तियों को जलाने से होने वाले धुआं की वजह से कई प्रकार के छोटे कीट और फल मक्खी पौधों से दूर भाग जाते हैं, इससे आपकी फलों की निरन्तर सुरक्षा भी हो पाती है।फलों की छोटी पौध को हमेशा पश्चिम और उत्तर दिशा की तरफ मुंह करते हुए लगाना चाहिए, इससे सूरज की किरणों का कम प्रभाव पड़ता है।
पिछले 3 वर्षों से उत्तरप्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र के क्षेत्रों में उगने वाले ‘अल्फांसोआम‘ की उपज में काफी गिरावट देखने को मिली है। इसके अलावा आंध्र प्रदेश में उगने वाले ‘अवधपुरीकेला‘ तथा उत्तर प्रदेश में उगने वाले ‘इलाहाबादसफेदाअमरूद‘ और जम्मू एवं कश्मीर तथा हिमाचल प्रदेश के क्षेत्र में लगने वाले ‘लाला अम्बरी सेब’ की गुणवत्ता में कमी आने के साथ ही इनके स्वाद में पायी जाने वाली मिठास भी कम होती जा रही है।