मजबूरी से जरूरत बनता ‘वर्क फ्रॉम होम’सेहत पर भारी

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मजबूरी से जरूरत बनता ‘वर्क फ्रॉम होम’ अब सिरदर्द बनता जा रहा है। हालांकि स्वास्थ्य जगत से जुड़े लोग इसे लेकर पहले से ही काफी आशंकित थे कि अपनी मनमर्जी से काम करने की आदत सेहत पर भारी पड़ेगी। वही अब हकीकत में दिखने लगी है। लोगों को अब इसका नुकसान समझ में आने लगा है। कोरोना के चलते पूरी तरह बदली हुई जिंदगी में कभी असंभव सा लगने वाला ‘वर्क फ्रॉम होम’ इस कदर हावी हुआ कि दुनिया भर में लोग घर से ही काम करने लगे।

जर्नल ऑफ एप्लाइड साइकोलॉजी में प्रकाशित उस अध्ययन ने तो दो बरस पहले ही इसको लेकर आगाह कर दिया था। तभी ऐसे शारीरिक और मानसिक दुष्परिणामों की दस्तक सामने आने लगी, जो वीडियो कॉन्फ्रेंस या ज्यादा वक्त ऑनलाइन रहने के चलते सेहत के लिए नुकसानदेह साबित हो रही थी। लेकिन जानते, समझते हुए भी बहुतेरे लोगों ने ‘वर्क फ्रॉम होम’ की आड़ में घर में रहने और अपनी मनमर्जी के मुताबिक आरामदेह परिस्थितियों में काम करना जारी रखा। आराम के साथ काम करने की शैली ने शारीरिक दक्षता और फिटनेस को बुरी तरह प्रभावित किया।

बिस्तर पर लेटे-लेटे, लैपटॉप पर काम निपटाना या घरेलू पोशाक में यहां-वहां बैठकर काम करने की आदत ने जहां दफ्तरों के अनुशासन को खत्म किया, वहीं रोज-रोज संगी-साथियों के साथ मुलाकात का अवसर भी छीन लिया। एक तरह से दफ्तर का रोजाना का गेट-टूगेदर भी खत्म हो गया। इस तरह ‘वर्क फ्रॉम होम’ के जरिये काम करने वाला वर्ग नितांत अकेला हो गया।

माना कि कोरोना काल में यह मजबूरी थी, लेकिन प्रतिबंधों के हटने के बाद यह जरूरी क्यों बनी हुई है? डाटा जर्नलिज्म वेबसाइट ‘स्टैटिस्टा’ के हालिया सर्वे ने और चिंताएं बढ़ा दी हैं। अमेरिका में लगभग छह हजार लोगों के बीच कराए गए सर्वे में पाया गया कि वर्क फ्रॉम होम यानी घर से काम करने वाले लोग ज्यादा संख्या में बीमार हुए। इसमें बताया गया है कि 59 प्रतिशत लोगों को कमर दर्द, सिरदर्द ने परेशान किया, तो 54 प्रतिशत लोग ऐसे मिले, जिन्हें किसी न किसी प्रकार के दर्द ने जकड़ लिया। वर्क फ्रॉम होम करने वालों का पाचन तंत्र भी बुरी तरह प्रभावित हुआ। जिन्हें पेट की कभी कोई गंभीर शिकायत नहीं थी, उन्हें पाचन की समस्याएं होने लगीं। ऐसे लोगों का आंकड़ा 40 प्रतिशत तक पहुंच गया।

दूसरी ओर, कार्यस्थल पर जाकर काम करने वालों में ये समस्याएं केवल 34 प्रतिशत निकलीं। हैरानी की बात यह रही कि घर के बंद कमरे में काम करने वाले 40 प्रतिशत लोग सर्दी-खांसी का शिकार हुए, वहीं दफ्तर के खुले माहौल में काम करने वालों का आंकड़ा केवल 34 प्रतिशत निकला। यह काफी चिंताजनक था कि घर बैठे लोग सर्दी-खांसी का ज्यादा शिकार हुए, जबकि ऑफिस वाले कम। मानसिक रूप से परेशान रहने वालों की संख्या भी चौंकाने वाली रही। घर से काम करने वाले 46 प्रतिशत लोगों को शिकायत थी कि घर से काम के दौरान उन्हें मानसिक समस्या से जूझना पड़ा, जबकि जो लोग अपने कार्य स्थल से काम करते थे, उनमें यह प्रतिशत केवल 36 रहा।

निश्चित रूप से कोरोना ने लोगों को बुरी तरह प्रभावित किया। लेकिन कोरोना के बाद जिनको ‘वर्क फ्रॉम होम’ से सहूलियत महसूस हो रही थी, उनका शरीर तरह-तरह की बीमारियों का घर बन गया। एक ही जगह बैठे-बैठे या लेटे-लेटे काम करने या सुबह उठते ही या फिर रात में देर तक काम करते रहने जैसी आदतों ने दफ्तर के अनुशासन को खत्म किया। कई बार लोग हफ्ते-दस दिन घरेलू काम में मशगूल रहते या खाली समय बिस्तर पर खर्राटे भरते। न कोई शारीरिक कसरत और न ही सूरज की किरणों से सामना। स्वाभाविक है बीमारियां तो घेरेंगी ही।

यकीनन, बेहद कम समय में वरदान से लगते ‘वर्क फ्रॉम होम’ को अभिशाप में बदलते देर नहीं लगी। अब भी कुछ ज्यादा बिगड़ा नहीं है। हमें शरीर के लिए जितने आराम की जरूरत है, उतना ही कसरत और पसीना बहाने की भी। बेहतर स्वास्थ्य के लिए दफ्तर और कमरे के बाहर की दुनिया की गतिविधियां, मेल, मुलाकात, घूमना, फिरना, टहलना और कार्य स्थल पर संगी-साथियों से वार्तालाप मानसिक और शारीरिक जरूरतों के लिए क्यों आवश्यक है, शायद यह अब सबको समझना जरूरी है।