- कई बार मौसम में बदलाव का दंश झेल चुके वायनाड के किसानों ने खेती के लिए नया कैंलेडर बनाया है। इसे बनाने के लिए खेती-बाड़ी के पारंपरिक ज्ञान का सहारा लिया गया है, ताकि मौसम में बदलाव से पार पाया जा सके।यह सातवां साल है जब कैलेंडर को अपडेट किया गया है। इसके लिए किसानों से फीडबैक लेने का तंत्र बनाया गया है जिसके जरिए किसान जो देखते हैं उसके बारे में बता देते हैं। साथ ही, बारिश में होने वाले बदलाव और मौसम से जुड़े पूर्वानुमान का भी ध्यान रखा जाता है।किसानों को उम्मीद है कि यह कैलेंडर जल्द ही नए कीटों के हमलों जैसी सभी चुनौतियों का व्यापक रूप से समाधान कर पाएगा और क्षेत्र के लिए खेती-बाड़ी के पारंपरिक ज्ञान के दस्तावेज के रूप में काम करेगा।
- वायनाड के किसान राजेश कृष्णन कहते हैं, “ शायद हम जिंदगी में बहुत सारी चीजें अपनी चिंता की वजह से करते हैं।” वह खेती के उन “मुश्किल सालों” को याद करते हैं जब वह अक्सर सोचते थे, “अब आगे क्या होगा?”
यह साल 2017 था। बारिश 37 प्रतिशत कम हुई थी। इस वजह से केरल सरकार को वायनाड जिले को सूखाग्रस्त घोषित करना पड़ा। कृष्णन कहते हैं, “हमारे पास डेटा नहीं है, लेकिन मुझे यकीन है कि उस साल हमारी 70 प्रतिशत फसलें बर्बाद हो गईं।” हालांकि, सभी किसानों के लिए नुकसान बहुत ज़्यादा था, लेकिन कृष्णन याद करते हैं कि खेती में नए उनके जैसे युवा किसानों के लिए यह भावनात्मक रूप से तोड़ देने वाला साल था। ग्रीनपीस के पूर्व प्रचारक से किसान बने कृष्णन कुछ साल पहले ही बेंगलुरु से वायनाड आए थे। वे कहते हैं, “सूखा बहुत गंभीर था, लेकिन वायनाड के पारंपरिक किसान बेहतर तरीके से इसका सामना कर पाए थे।”
कृष्णन को अदिया आदिवासी किसान बोलन से मिली बेशकीमती सलाह उन भीषण सूखे वाले सालों में बहुत काम आई। जब कृष्णन अपने धान के हर खेत की सिंचाई के लिए पानी की तलाश में थे, तब बोलन ने उन्हें एक ही खेत की सिंचाई पर ध्यान केंद्रित करने की सलाह दी। “उन्हें पता था कि खेत आपस में जुड़े हुए हैं और एक खेत की सिंचाई करने का मतलब है कि दूसरे खेत में भी पानी मिलेगा। पारंपरिक किसानों के बीच लैंडस्केप की गहरी समझ होती है।” कृष्णन का मानना है कि जमीन के बारे में देसी ज्ञान का दस्तावेजीकरण इसे दूसरों के साथ बांटा जाना चाहिए।
उस साल सूखे से जुड़ी मुश्किलों ने उन्हें और कुछ अन्य किसानों को TAPCo (थिरुनेली एग्री प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड) नाम का किसान उत्पादक संगठन (FPO) बनाने के लिए प्रेरित किया। इसका मकसद जलवायु और बाजार में उतार-चढ़ाव सहित कई अनिश्चितताओं का सामूहिक रूप से हल खोजना था। वे कहते हैं, “एक तो मानक बाजार मूल्य और आसानी से खरीद ऐसी दो चीजें थीं जिन्हें हमने सबस पहले लागू किया।”
TAPCo ने ऐसी व्यवस्था बनाई है, जिसके तहत संगठन के साथ पंजीकृत किसानों की पूरी उपज सामूहिक रूप से बुवाई से पहले तय की गई कीमत पर खरीदी जाएगी। सामूहिक रूप से किसानों को यह तय करने का अधिकार वापस दिया जाना चाहिए कि उन्हें क्या बोना है, जो सरकार की एकल-मूल्य खरीद प्रणाली द्वारा उनसे छीन लिया गया था।
कृषि कैलेंडर का बनना
मौसम में बदलाव से पैदा हुई नई चुनौतियों से निपटने के लिए पारंपरिक ज्ञान का इस्तेमाल करने की जरूरत को समझते हुए, किसानों ने विचार-विमर्श किया और उन्हें आगे का रास्ता दिखाने के लिए कृषि कैलेंडर बनाया गया। वायनाड में मोटे तौर पर पांच कृषक समुदाय हैं – मुल्लुकुरुम्बा और कुरिच्या के दो आदिवासी समुदाय और वायनाडन चेट्टी, नायर और जैन। खेतिहर मज़दूरी में शामिल दो आदिवासी समुदाय – अदिया और पनिया भी पारंपरिक ज्ञान के रखवाले हैं।
वायनाड स्थित शोध संस्थान ह्यूम सेंटर फॉर इकोलॉजी एंड वाइल्डलाइफ बायोलॉजी के संस्थापक सीके विष्णुदास के अनुसार, जिले में धान की खेती दो बार होती है – दक्षिण-पश्चिम मानसून के दौरान नांजा और उसके बाद पुंजा। वायनाड के ज्यादातर किसान पारंपरिक रूप से सिर्फ नांजा की खेती करते हैं। विष्णुदास ने कैलेंडर बनाने में भी मदद की थी। इसलिए, TAPCo ने जून से दिसंबर तक छह महीने का शुरुआती कैलेंडर बनाया जो नांजा धान की खेती पर केंद्रित था।
फिर, साल 2018 के अगस्त महीने में केरल में विनाशकारी बाढ़ आई। दक्षिण के इस राज्य में जून और अगस्त के महीनों में मानसून के दौरान 42% ज्यादा बारिश हुई, जिससे भयंकर बाढ़ आई और भूस्खलन हुआ। करीब पांच सौ लोगों की मौत हुई और 11 लाख से ज्यादा लोग विस्थापित हुए। विश्व बैंक के अनुमान के अनुसार, राज्य को 340 करोड़ डॉलर का आर्थिक नुकसान हुआ। वायनाड जिले में दो महीने की अवधि में 26% ज्यादा बारिश हुई। इसके कारण जमीन धंस गई और भूस्खलन हुआ। इसमें छह लोगों की जान चली गई। फसल का भी काफी नुकसान हुआ। जिले में 1876.80 हेक्टेयर क्षेत्र में 33% से ज्यादा फसल का नुकसान हुआ।
मनंतावडी गांव की किसान प्रवीणा ज्योतिप्रकाश की उस साल बारिश में तीन एकड़ की केले की फसल बर्बाद हो गई। प्रवीणा याद करती हैं, “मैं केले का एक भी गुच्छा नहीं काट पाई।” “धान के खेत भी डूब गए थे और आगे की खेती के लिए कमजोर हो गए थे। यह ऐसा समय था जिसे मैं दोबारा नहीं देखना चाहती।”
इसके बाद 2019 में भी बहुत ज्यादा बारिश हुई। बार-बार होने वाली मौसम की चरम घटनाओं ने किसानों को इनके दुष्प्रभाव को दूर करने वाले समाधानों पर काम करने के लिए मजबूर किया, जिसमें जलवायु अनुकूल पर पर्याप्त ध्यान देने के साथ खेती की योजना के लिए बेहतर कैलेंडर बनाना भी शामिल था।
मौसम में हो रहे बदलाव को समझना
बाढ़ के बाद विष्णुदास और उनकी टीम ने नए लैंडस्केप की संवेदनशीलता से जुड़े मानचित्र पर काम किया। बारिश से प्रभावित क्षेत्रों के विश्लेषण से उन्हें अहसास हुआ कि वायनाड का लैंडस्केप एक जैसा नहीं था और सभी के लिए एक ही समाधान से काम नहीं चलेगा। बारिश में बहुत ज्यादा भिन्नता है, कुछ क्षेत्रों में लगभग 6000 मिमी बारिश होती है, जबकि कुछ अन्य क्षेत्रों में 3500 मिमी। वहीं निचले क्षेत्रों में लगभग 2500 मिमी बारिश होती है।
कृष्णन बताते हैं, “पश्चिमी घाट के हिस्से के रूप में वायनाड की सामान्य समझ आंशिक रूप से ही सच है।” कुछ क्षेत्र मैसूर पठार का विस्तार हैं जो शुष्क मौसम पैटर्न को दिखाते हैं और ऐसे क्षेत्र भी हैं जहां मध्यम बारिश होती है। उनके अनुसार, दुर्भाग्य से यह असलियत किसी भी नीति या सरकारी फैसलों में दिखाई नहीं देती है। सरकार द्वारा प्रचारित अथिरा, उमा आदि जैसी लोकप्रिय कम अवधि की धान की किस्में अलप्पुझा और त्रिशूर जैसे निचले मैदानों के लिए सबसे सही हैं जहां बारिश कम अवधि के लिए होती है। कृष्णन बताते हैं कि वायनाड के किसानों ने समय के साथ धान की मध्यम और लंबी अवधि वाली किस्मों को विकसित किया है। ऐसा धान को उगने में लगने वाले समय के आधार पर किया गया है जो इस क्षेत्र में होने वाली छह महीने की बारिश के अनुकूल है। कृष्णन कहते हैं, “पारंपरिक रूप से, वायनाड में 150 दिनों से ज्यादा अवधि वाली लगभग 30 अलग-अलग किस्मों की खेती की जाती है, जिनमें से 10-12 किस्मों की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है। सबसे लोकप्रिय वायनाडन थुंडी 165 दिनों की किस्म है। वायनाड में पहले 180 दिनों की किस्में भी थीं। वे मई से शुरू होकर दिसंबर तक होने वाली लंबी अवधि की बारिश के लिए सबसे सही हैं, बीच-बीच में थोड़े समय के लिए बारिश कम हो जाती है।”
विष्णुदास ने साल 2012 से जिले के मौसम के पैटर्न में उल्लेखनीय बदलाव देखा है, जो मानसून की शुरुआत की अवधि में बदलाव और बहुत ज्यादा बारिश वाले दिनों की आवृत्ति में बढ़ोतरी के बारे में बताता है। वे कहते हैं, “कई किसान इन बदलावों से अनजान हैं।” “पारंपरिक मौसम पैटर्न बदल गए हैं। अब, हम कुछ दिनों में लगभग 500 मिमी की बहुत ज्यादा बारिश का अनुभव करते हैं, जिससे भूस्खलन होता है।” इस चिंता के कारण ह्यूम ने जिले भर में बारिश को मापने वाले 180 यंत्र लगाए और व्हाट्सएप समूहों और एसएमएस जैसे अलग-अलग चैनलों के जरिए दस हजार से ज्यादा सब्सक्राइब किए गए किसानों को उनकी रीडिंग के बारे मे बताया। यह शुरुआती चेतावनी प्रणाली किसानों के लिए प्रकृति की बदलती लय के अनुसार अपनी कृषि गतिविधियों में बदलाव करने के लिए उपयोगी है।
छह दशकों के कृषि अनुभव वाले किसान पीजे. मैनुअल ने मौसम के पैटर्न में होने वाले बदलावों को बारीकी से देखा है। वे कहते हैं, “पहले बारिश तिरछी दिशा में होती थी, लेकिन अब यह बहुत ज़्यादा तीव्रता के साथ सीधी गिरती है, जिससे मिट्टी का कटाव होता है।” इसके अलावा, मैनुअल हवा के पैटर्न में होने वाले बदलावों पर टिप्पणी करते हैं, जिसमें बारिश के साथ तेज हवाएं चलने का हवाला दिया गया है, जो पिछले मानदंडों से अलग है, जहां बारिश हवा के साथ होती थी।
मैनुअल कहते हैं, “बारिश की तीव्रता बढ़ गई है। जो बारिश पहले 15-16 दिनों में होती थी, अब एक ही दिन में हो जाती है।” वे पारंपरिक तरीकों पर भी विचार करते हैं, जिसमें बताया गया है कि किस तरह वायनाड में धान के किसान सात दिन और रात के लिए कटी हुई फसल को खेत में छोड़ देते थे। यह तरीका इस भरोसे पर आधारित है कि ताजा कटे हुए धान को उचित थ्रेसिंग और भंडारण के लिए सात सूर्य (गर्मी) और सात चंद्रमा (ठंड) के संपर्क में आने की जरूरत होती है, लेकिन अब यह चुनौती का सामना कर रही है। वे कहते हैं, “अगर हम धान को आज के सात दिन तक सूरज की तेज खूप में रखें, तो बीज बेकार हो जाएंगे।”
विष्णुदास बताते हैं कि इसके अलावा, वायनाड जिस जगह पर है, वह इसे बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में होने वाली गर्मी और हलचल के असर को लेकर संवेदनशील बनाता है। 700 मीटर से लेकर 2000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित, वायनाड में दिन में तापमान में काफी उतार-चढ़ाव होता है। वे कहते हैं, “पहले, सुबह के समय तापमान 15˚ सेल्सियस से बढ़कर दोपहर तक लगभग 25˚सेल्सियस हो जाता था। आजकल, गर्मी के कारण हम दोपहर में 35˚ सेल्सियस तक की छलांग देख रहे हैं। तापमान में यह भारी उतार-चढ़ाव एक और चुनौती पेश करता है।”
नई जानकारी के साथ बेहतर होता कैलेंडर
जिले के बदलते मौसम पैटर्न की नई समझ को कृषि कैलेंडर में शामिल किया जा रहा है, जिसमें फीडबैक लेने का तंत्र भी शामिल है। किसानों को कैलेंडर में दिए गए फीडबैक कॉलम में मौसम की स्थिति और फसल की स्थिति दोनों के बारे में अपनी रोज की जानकारी देने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इन जानकारियों का इस्तेमाल अगले साल के कैलेंडर को अपडेट करने के लिए किया जाता है, ताकि यह पक्का किया जा सके कि यह असरदार कृषि नियोजन के लिए सबसे मौजूदा और प्रासंगिक जानकारी को दिखाए। ह्यूम और TAPCo के अलावा, थानल, कीस्टोन फाउंडेशन, आशा, सेव अवर राइस और इकोफ्रेंड्स जैसे स्थानीय गैर-लाभकारी संगठन भी कैलेंडर बनाने और प्रचार में सक्रिय रूप से शामिल हैं।
इसके सकारात्मक नतीजे भी दिख रहे हैं। अप्रैल 2024 में जारी 2024-2025 के कैलेंडर से परामर्श करने वाले किसान हिंद महासागर के गर्म होने के कारण अप्रैल में होने वाली अप्रत्याशित गर्मी और बंगाल की खाड़ी में दबाव के कारण मई में होने वाली असामान्य रूप से गर्मी में ज्यादा बारिश के लिए तैयार थे। कैलेंडर अप्रैल की लू के दौरान मिट्टी की उत्पादकता बनाए रखने के लिए जरूरी सावधानियों की व्यापक सूची भी उपलब्ध कराता है। इसके अलावा, यह मई में बारिश के तेज होने के संकेत मिलने पर किसी भी तरह की जुताई नहीं करने की चेतावनी देता है। पहले से ही तैयारी वाले इस नजरिए ने किसानों को अपने तरीकों को इस हिसाब से बेहतर करने, संभावित जोखिमों को कम करने और फसल की पैदावार को बढ़ाने में मदद की है।
पिछले कैलेंडर से एक और बड़ा बदलाव यह है कि अब चांद वाले फेज को अपनाया गया है जिसका आमतौर पर वायनाड के किसान समुदाय पालन करते हैं। विष्णुदास बताते हैं कि ग्रेगोरियन सौर कैलेंडर स्थानीय किसानों के लिए बहुत कम प्रासंगिक है, क्योंकि राज्य में खेती मलयालम चंद्र कैलेंडर पर गहराई से आधारित है। जैसे, केरल का कृषि कैलेंडर 14 अप्रैल से शुरू होता है, जिसे राज्य में विशु या नए साल के रूप में मनाया जाता है।
ह्यूम में मानवविज्ञानी और खाद्य प्रणाली अनुसंधान की प्रमुख सुमा टीआर. राज्य में कृषि पद्धतियों के मार्गदर्शन में चांद वाले फेज की ऐतिहासिक अहमियत पर जोर देती हैं। अतीत में बिजली नहीं होने पर सूर्य और चंद्रमा जैसे प्राकृतिक प्रकाश स्रोतों पर निर्भर रहना व्यावहारिक था। दिन की गर्मी से बचने के लिए थ्रेसिंग जैसी ज्यादातर गतिविधियां रात के लिए रखी जाती थीं। वह कहती हैं, ”अमावस्या और पूर्णिमा के पांच दिन पहले और बाद में कृषि गतिविधियों के लिए सही समय माना जाता था। अमावस्या के दौरान कोई काम नहीं किया जाता था।” किसानों का यह भी मानना है कि अगर अमावस्या पर खेती से जुड़ी कोई भी गतिविधि की जाती है, तो कीटों का हमला ज्यादा होगा। कृष्णन कहते हैं, ”कर्किदकम (जुलाई-अगस्त) महीने की अमावस्या को अक्सर भारी बारिश होती है, जिससे उस दिन बुवाई अव्यावहारिक हो जाती है। यह एक और कारण है।”
इसका मतलब यह नहीं है कि केरल के किसानों के लिए सूरज का महत्व कम है। जून के महीने में पड़ने वाला 12 दिवसीय “तिरुवथिरा नजट्टुवेला” राज्य की सभी फसलों, खास तौर पर मिर्च के लिए अहम है। चमकते सूरज और रुक-रुक कर होने वाली बारिश की वजह से किसानों को इस सालाना आयोजन के अच्छे फसल पर पड़ने वाले प्रभावों पर बहुत उम्मीद और भरोसा है। हालांकि, यह भी बदल रहा है।
कृष्णन इसे विस्तार से बताते हैं, “राज्य में धान की खेती की ज़्यादातर गतिविधियां पुष्पन के समय पर आधारित होती हैं, जो आम तौर पर मलयालम महीने थुलम में होता है। यह लोकप्रिय ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार अक्टूबर के मध्य में पड़ता है। अगर पुष्पन तब होता है, तो धान दिसंबर या मलयालम महीने वृश्चिकम में कटाई के लिए तैयार हो जाता है। इस समझ के साथ, किसान अन्य गतिविधियों जैसे कि पोखर बनाना, बुवाई, फिर से रोपना वगैरह के बारे में फैसले लेने के लिए पीछे की ओर काम करते हैं।”
पारंपरिक प्रणाली के अनुसार, बुवाई ज़्यादातर जुलाई के महीने में की जाती है जो उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में सबसे गर्म महीना होता है। लेकिन, केरल में इस दौरान भारी बारिश होती है। कृष्णन कहते हैं, “जून में बारिश शुरू होनी चाहिए और जुलाई में तेज होनी चाहिए। उस समय आप जमीन को समतल करके बुवाई के लिए तैयार करते हैं।” लेकिन बारिश के समय पर नहीं होने या धीरे-धीरे तेज होने के कारण यह बदल गया है।
जहां पहला कैलेंडर धान की खेती पर था, वहीं बाद के कैलेंडरों में कॉफी, काली मिर्च जैसी दूसरी लोकप्रिय फसलों को भी शामिल करने की कोशिश की गई। नए कैलेंडर में कंद-मूल, भिंडी और चौलाई जैसी कई बागवानी फसलों के बारे में निर्देश दिए गए हैं, जो आमतौर पर वायनाड में उगाई जाती हैं।
ऐतिहासिक रूप से, वायनाड के किसान चंद्र कैलेंडर के अलावा कई तरह के कैलेंडर पर निर्भर थे। इनमें कृषि पंचांगम, ज्योतिष-कृषि पंचांग, साथ ही जानवरों के व्यवहार के खास चरणों पर आधारित एक और कैलेंडर शामिल है, जिसे आना (हाथी) करणम, करदी (भालू) करणम, पक्षी (पक्षी) करणम और इसी तरह के अन्य नामों से जाना जाता है। कृष्णन बताते हैं कि ऐसी मान्यता है कि किसी खास करणम या चरण के दौरान कोई खास फसल लगाने से संबंधित जानवर से होने वाले किसी भी संभावित विनाश से बचा जा सकता है। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि यह कैलेंडर वायनाड के जंगलों से नजदीक होने से प्रचलन में आया, जहां वन्यजीवों से सामना होना आम बात है।
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मैनुअल कहते हैं कि अपने सातवें साल में कैलेंडर ने किसानों के सामने आने वाली कई चुनौतियों का सफलतापूर्वक हल खोज लिया है। हालांकि, उन्हें इस बात पर पूरा भरोसा नहीं है कि पर्याप्त संख्या में किसान इसका पूरा लाभ उठा रहे हैं।
विष्णुदास कहते हैं, “हमने कैलेंडर के इस्तेमाल से होने वाले लाभ या पूर्व चेतावनी प्रणाली के असर पर डेटा एकत्र नहीं किया है, लेकिन हम भरोसे के साथ कह सकते हैं कि हम नुकसान को कम करने में कामयाब रहे हैं।” वह पिछले साल के आखिर का एक उदाहरण देते हैं, जब बंगाल की खाड़ी में दबाव की भविष्यवाणी की गई थी। वे बताते हैं, “हम फसल की तैयारी कर रहे किसानों को 10 दिन पहले चेतावनी दे पाए। उन्हें चक्रवात के दिन ही फसल काटनी थी।” इस समय पर चेतावनी के बिना या अगर किसानों ने इसे अनदेखा किया होता, तो उन्हें कुछ दिनों के लिए फसल को खेत में ही छोड़ देने की परिपाटी के कारण काफी नुकसान उठाना पड़ता। वे बताते हैं, “उन्होंने फसल काटना टाल दिया, जिसका उस मौसम में उनकी आय पर सीधा और सकारात्मक असर पड़ा।”
विष्णुदास स्वीकार करते हैं कि उनका काम अभी भी जारी है। वे बताते हैं, “हमारा विचार जिले के अलग-अलग वर्षा क्षेत्रों के लिए अलग-अलग कैलेंडर बनाना है।” पिछले साल एक अप्रत्याशित गॉल मिज कीट के हमले ने किसानों की फसलों पर जलवायु परिवर्तन के असर के बारे में सीमित समझ को उजागर किया। कृष्णन कहते हैं, “गॉल मिज आम तौर पर मैदानी इलाकों में पाया जाता है और वायनाड में पहले कभी नहीं देखा गया था। जब तक हमने इसकी पहचान की, तब तक हम अपनी लगभग 70% फसलें खो चुके थे।”
वायनाड में क्षेत्रीय कृषि अनुसंधान केंद्र के कीट विज्ञानी राजन वीपी. ने पाया कि मुख्य शिकारी ड्रैगनफ्लाई की गैर-मौजूदगी के कारण यह कीट इतना फैल गया कि इसे नियंत्रित करना मुश्किल था। राजन बताते हैं, “पिछले साल धान की बुआई देरी से हुई थी, क्योंकि जुलाई में होने वाली बारिश देर से हुई थी।” उन्होंने कहा कि जलवायु परिवर्तन के कारण वायनाड में अलग-अलग कीटों का खतरा बढ़ गया है। ऐसा ही धान में लगने वाला एक कीड़ा ब्राउन प्लांट हॉपर है जो मैदानी इलाकों में पाया जाता है। इसे स्थानीय रूप से मुन्हा कहा जाता है। इसने भी पहाड़ी जिले में अपना रास्ता बना लिया है। किसानों को उम्मीद है कि कैलेंडर जल्द ही इन नई और उभरती चुनौतियों का समाधान करेगा।
कुछ किसानों ने कैलेंडर के साथ अटूट रिश्ता बना लिया है। अपने पिता से 10 एकड़ जमीन और हरियाली का शौक विरासत में पाने वाली प्रवीणा कहती हैं कि वह हर दिन कैलेंडर को देखती हैं। वे बताती हैं, “दो साल पहले मेरे पिता के निधन के बाद से, कैलेंडर ने उनकी छोड़ी हुई जगह को भर दिया है और मुझे हमारी जमीन की देखभाल करने के तरीके के बारे में मार्गदर्शन दिया है।” वे इस बात की पुष्टि करती हैं कि कृषि कैलेंडर वायनाड के किसानों के लिए बेशकीमती संपत्ति है।