चुनावी मौसम है। मौसम है, तो रंग बदलेगा ही। बदल भी रहा है। कभी ये रंग, कभी वो रंग। पल में तोला, पल में माशा। इस मौसम की खुमारी में जनता भी सियासी हो चली है। कहीं पर निगाहें, तो कहीं पर निशाना…। उनके बड़े-बड़े सवाल हैं। सवालों पर भी सवाल हैं। बड़ी-बड़ी उम्मीदें हैं। ये चाहिए, वो चाहिए। बड़ी-बड़ी तकरीरें हैं। दलीलें हैं। पर, कुरेदते ही रंग बदल जाता है। जाति-मजहब की रेखाएं साफ-साफ उभर आती हैं। फुफकारने लगती हैं। नए समीकरण बनाने लगती हैं। मुजफ्फरनगर में मतदाताओं का कुछ ऐसा ही अंदाज है। पेश है रिपोर्ट…
गन्ना बेल्ट में शामिल मुजफ्फरनगर के सियासी कड़ाह में उबाल आने लगा है। चुनावी चाशनी पकने लगी है। इसकी मिठास अपने हिस्से में समेटने के लिए उम्मीदवारों में रस्साकशी चल रही है। चुनाव की बात करें तो इस बार यहां मुकाबला कड़ा है। चुनावी दंगल में नए राजनीतिक समीकरणों के पेच भी हैं। पुराने दिग्गजों का कड़ा इम्तिहान है, पर उनके चक्रव्यूह को तोड़ना नए सूरमाओं के लिए भी उतना ही चुनौतीपूर्ण है।
बुढ़ाना कस्बा हमेशा ही गुलजार रहता है। इसलिए हमने सबसे पहले इस कस्बे का ही रुख किया। हमारी उम्मीद के मुताबिक दोपहर के 12 बजे भी यहां चौपाल सजी मिली। हमने चर्चा छेड़ी तो मांगेराम बोले, इस बार चुनाव आसान नहीं है। बसपा ने यहां से दारा सिंह प्रजापति को मैदान में उतारा है। यदि बसपा काडर के अलावा उन्हें अपने लोगों का वोट मिल गया तो वे सबपर इक्कीस साबित होंगे। अभी वह बात पूरी करते उससे पहले ही भौंह सिकोड़ते हुए ब्रह्म सिंह बोल पड़े, राह इतनी भी आसान नहीं है। देवीदास और पालेराम भी ब्रह्म सिंह की बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, मुकाबला तो भाई सभी के बीच है। हां, बसपा का उम्मीदवार इस बार जरा मजबूत लग रहा है।
मुस्लिम बहुल बुढ़ाना कस्बे के मुख्य बाजार में पहुंचे तो वहां नजारा अलग मिला। यहां मिले महबूब अली अलग समीकरण पेश करते हैं। वह कहते हैं, मुकाबला तो सीधा भाजपा के डाॅ. संजीव बालियान और सपा के हरेंद्र मलिक के बीच ही है। बाकी तो सब पीछे हैं। कौन फायदे में दिख रहा, इस सवाल पर इरशाद कहते हैं, बसपा उम्मीदवार दारा सिंह प्रजापति भाजपा का वोट काट रहे हैं। इससे साफ है कि सपा को लाभ मिल रहा है।
बुढ़ाना से निकल हम शाहपुर कस्बे की ओर रवाना हुए। करीब 10 किमी के सफर में हमें चुनाव के कई रंग देखने को मिले। उसका विश्लेषण करें तो साफ हो जाता है कि यहां मुकाबला रोचक है। शाहपुर कस्बा पहुंचे तो बस अड्डे पर ही हमें नवाब अली मिले। उनका अनुमान है कि इस बार भाजपा और सपा में सीधा मुकाबला है। हालांकि, वहीं मिले लेखराज नवाब अली की बातों से इत्तफाक नहीं रखते। वह कहते हैं, बसपा को हल्के में लेकर बाकी दल भूल कर रहे हैं। दारा सिंह प्रजापति भारी पड़ सकते हैं।
शाहपुर कस्बे से रुखसत होकर हम आगे बढ़े। करीब पांच किमी का सफर तय कर हम बसी कलां गांव पहुंचे। यहां ग्रामीणों से चर्चा छिड़ी तो ज्यादातर ने कहा कि यहां तो मुकाबला त्रिकोणीय है। पर, गांव के रोहताश ऐसा नहीं मानते। वह कहते हैं, कुछ भी हो इस बार भी यहां भाजपा ही जीतेगी। पर, मनोज उनकी बात काटते हुए कहते हैं, इतना आसान भी नहीं समझो। मुकाबला कड़ा है।
सबसे बड़ा मुद्दा कानून-व्यवस्था
मुजफ्फरनगर हमेशा से ही संवेदनशील रहा है। जरा-जरा सी बात पर यहां का मिजाज गर्म होता रहा है। अब यहां सबसे बड़ा मुद्दा कानून-व्यवस्था है। मुजफ्फरनगर शहर में चाय की दुकान पर बड़ी गंभीर चुनावी चर्चा चलती मिली। मांगेराम कहते हैं, कोई किसी को खाने को नहीं देता है। सबसे अहम है कानून-व्यवस्था। इस समय कानून-व्यवस्था चाक-चौबंद है। पूरा सीन ही बदला हुआ है। इसका लाभ भाजपा को जाता दिख रहा है। सुलेमान अपना ही समीकरण बताते हैं। कहते हैं कि मुजफ्फरनगर में भाजपा से ठाकुर बिरादरी नाराज चल रही है। उन्हें मनाया जा रहा है। गुर्जर भी कुछ खफा हैं। दोनों ही मान गए, तो भाजपा की जीत को रोकने वाला कोई नहीं है।
मुद्दे तो बहुत हैं, पर बदल गए समीकरण
मुद्दे तो यहां तमाम हैं, पर भाजपा और रालोद के समीकरण का खासा असर इस सीट पर दिख रहा है। गन्ना मूल्य और छुट्टा पशुओं से लोग परेशान हैं, लेकिन जातीय समीकरण हावी है। शिशुपाल कहते हैं, यह गठबंधन दोनों के लिए बड़ा लाभकारी है। विजय बहादुर यादव कहते हैं, बिगड़ रही हवा का रुख अब ठीक होता दिख रहा है।
मान-मनौवल का दौर जारी
- चर्चा में सामने आया कि डॉ. संजीव बालियान के लिए इस चुनाव में थोड़ी चुनौती बढ़ी है। लोगों में चर्चा रही कि ठाकुर और गुर्जर उनसे कुछ मसलों पर नाराज हैं। ऐसे में मान-मनौवल का दौर चल रहा है। गिले-शिकवे दूर करने के लिए पूरी ताकत लगाई जा रही है। सपा और बसपा इस पर नजर गड़ाए हुए है। गुर्जर, जाट, ठाकुर आदि धड़ों को साधने के लिए सभी ने अपनी पूरी ताकत झोंकी है। बहरहाल, श्रीपाल कहते हैं कि यह हर चुनाव में ऐसा होता है। उनका मानना है कि सबको मना लिया जाएगा।
बदली रणनीति, एक भी मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में नहीं
- सियासी दलों ने भी मुजफ्फरनगर के हिसाब से ही अपनी रणनीति तैयार की है। यहां करीब छह लाख मुस्लिम हैं फिर भी किसी मुख्य दल ने मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में नहीं उतारा है। निर्दलीय भी कोई मुस्लिम चुनाव नहीं लड़ रहा है। पिछले चुनाव में भी ऐसा हुआ था। यहां के मिजाज की बात करें तो वर्ष 1967 में सीपीआई के टिकट पर लताफत अली खां जीते थे। उन्होंने कांग्रेस के ब्रह्म स्वरूप को हराया था। 1977 में लोकदल के सईद मुर्तजा जीते, 1980 में जनता दल (एस) के गय्यूर अली खां, 1989 में कश्मीर से आए मुफ्ती मोहम्मद सईद जीते। मुनव्वर राना और कादिर राना भी यहां से चुनाव जीत चुके हैं। (इनपुट मदन बालियान)
चुनावी समर के योद्धा
- डॉ. संजीव बालियान, भाजपा : दो बार यहां से चुनाव जीत चुके हैं। पिछली बार रालोद प्रमुख चौधरी अजित सिंह को चुनाव हराया था और इस बार हैट्रिक मारने के इरादे से मैदान में हैं।
- हरेंद्र मलिक, सपा : मुजफ्फरनगर के मैदान में तीसरी बार उतरे हैं और हार बार निराशा ही हाथ लगी। मुस्लिम वोटों पर पैनी नजर है। जाट व अन्य वर्गों में भी सेंध लगाने में जुटे हैं।
- दारा सिंह प्रजापति, बसपा : पहली बार मुजफ्फरनगर से चुनाव लड़ रहे हैं। भाजपा व सपा के उम्मीदवारों के सामने खुद को स्थानीय साबित करने की चुनौती है। छिटके हुए बसपा के काडर वोटर को समेटने की क्षमता रखते हैं।
ऊंट किसी भी करवट बैठ सकता है…
यहां मुद्दे तो तमाम हैं, पर अब मुद्दों पर चुनाव होते कहां हैं। बहरहाल लोग तो आकर यही बता रहे हैं कि फिर से भाजपा की सरकार बन रही है। पर, मेरा अनुमान है कि राह इतनी आसान नहीं है। सरकारों को अपने एजेंडे में किसानों को प्रमुखता से शामिल करना चाहिए। चुनावी समीकरण तो बनते बिगड़ते रहे हैं, लेकिन जनता के बारे में सोचना सबका कर्तव्य है। मुजफ्फरनगर की बात करूं तो यहां तीनों उम्मीदवारों के बीच कड़ी टक्कर है। ऊंट किसी भी करवट बैठ सकता है।
-चौधरी नरेश टिकैत, अध्यक्ष भारतीय किसान यूनियन