लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमजोरी है धर्म-जाति पर सियासत

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ए. डी. लिंडसे ने अपनी मशहूर किताब ‘मॉडर्न डेमोक्रेटिक स्टेट’ में एक घटना का जिक्र किया है। 14वीं सदी में हॉलैंड (नीदरलैंड) में सिटी काउंसिल में निर्णय एकमत से लेने की परंपरा थी। एक सदस्य ऐसा था जो हर प्रस्ताव, हर निर्णय से असहमति जताता था। इस कारण कोई निर्णय हो ही नहीं पाता था। हालत यह थी उस वजह से बजट तय नहीं हो पा रहा था।

बाहर रखने का फैसला : आखिर बाकी सभी सदस्यों ने फैसला किया कि अगली बैठक में उसे बाहर रखा जाएगा। इसके लिए योजना बनाई गई कि उसे सूचना बैठक से कुछ देर पहले दी जाएगी। यह समय इतना कम होगा कि वह वक्त से पहुंच नहीं पाएगा। ऐसा ही हुआ। उसे बैठक शुरू होने के ठीक पहले सूचना दी गई।

दरवाजा नहीं खुला : सूचना पाते ही वह बैठक स्थल की ओर भागा। उसने कपड़े भी नहीं बदले। भागता हुआ वहां पहुंचा। फिर भी थोड़ी देर हो गई। उसने देखा कि दरवाजा बंद है। जोर-जोर से दस्तक दी, लेकिन दरवाजा नहीं खुला। वह इतना बैचैन हो गया कि दीवार पर किसी तरह चढ़कर छत पर चला गया और फायर प्लेस के ऊपर धुआं निकलने के लिए जो एक छोटा छेद होता है, उससे घुसकर नीचे कूद गया।

दर्ज कर दी असहमति : जैसे ही वह कूदा, उसे सुनाई पड़ा, ‘यह प्रस्ताव निर्विरोध पारित किया जाता है।’ वह चिल्लाया, ‘नहीं, नहीं, मैं सहमत नहीं हूं। मैं इसका विरोध करता हूं।’ उसे कुछ भी पता नहीं था कि वह प्रस्ताव किस बारे में है, लेकिन उसने असहमति दर्ज कर दी। इस पर एक अन्य सदस्य को इतना गुस्सा आया कि उसने तलवार निकाली और उसकी गर्दन पर ऐसा प्रहार किया कि उसका सिर धड़ से अलग हो गया।

बहुमत बेहतर : इस घटना से एक सिद्धांत का प्रतिपादन हुआ कि मतैक्य पर जोर देने से रक्तपात होता है। यानी इसकी परिणति समरसता में नहीं बल्कि हिंसा में होती है। तो विकल्प क्या है? दूसरा सर्वोत्तम विकल्प बहुमत है। यानी सर्वसम्मति न बन पाए तो फैसला बहुमत से हो।‌ लोकतंत्र इसी बहुमत के सिद्धांत पर आधारित है।

धर्म और जाति : भारत में दुर्भाग्य से लोकतंत्र का मतलब केवल चुनाव रह गया है। जन-प्रतिनिधित्व कानून और चुनाव आचार संहिता में धर्म, जाति, भाषा आदि के नाम पर वोट मांगना अवैध है और यह प्रमाणित होने पर किसी का भी चुनाव रद्द किया जा सकता है। लेकिन आजकल चुनाव का आधार केवल धर्म और जाति हो गया है। BJP पर विपक्ष का आरोप है कि उसने वोट के लिए हिंदुत्व का सहारा लिया।

संख्या की राजनीति : बहुसंख्यकवाद की राजनीति का विरोध करने वाले खुद संख्या की राजनीति में उलझकर जातिवाद को हवा दे रहे हैं। राहुल गांधी का नारा है – जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी। अधिकतर विपक्षी दलों ने अपने घोषणापत्रों में जाति जनगणना कराने और आरक्षण की सीमा को 50% से ऊपर ले जाने का वादा किया है। यह बहुसंख्यकवाद नहीं तो और क्या है?

तोला नहीं करते : दरअसल, लोकतंत्र का यही संकट है। जब संख्या किसी के पक्ष में होती है तो वह संख्या की बात करता है। लेकिन जब संख्या में कमजोर पड़ने लगता है तो संख्या की राजनीति को नैतिक आधार पर चुनौती देता है। मोहम्मद इकबाल ने इसी आधार पर जम्हूरियत को चुनौती दी, ‘इस राज का इक मर्द-ए- फिरंगी ने किया फाश, हरचंद कि दाना इसे खोला नहीं करते/जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है जिसमें बंदों को गिना करते हैं, तोला नहीं करते।‌’

आबादी का अक्स : संविधान के अनुच्छेद 81 के अनुसार लोकसभा में बढ़ती हुई आबादी का अक्स दिखना चाहिए। इस कारण, हर बार जनगणना के बाद इसकी सीटें आबादी के हिसाब से बढ़ाई जा रही थीं। 1973 में 31वें संविधान संशोधन के जरिए सीटें 525 से बढ़ाकर 545 की गई। लेकिन उसके बाद मुरासोली मारन ने एक प्राइवेट मेंबर्स बिल पेश किया कि लोकसभा में सीटों की संख्या बढ़ाने पर रोक लगाई जाए।

दक्षिण का नुकसान : उनका तर्क था कि दक्षिण के राज्यों ने परिवार नियोजन को प्रभावी ढंग से लागू किया जबकि उत्तर के राज्य इसमें नाकाम रहे। इस कारण, उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों की सीटें काफी बढ़ गईं और राष्ट्रीय राजनीति में उनका दबदबा बढ़ गया। आंध्र प्रदेश की सीट 43 से घटकर 42 हो गई। उनकी मांग मानकर 2001 तक परिसीमन पर रोक लगा दी गई जो आगे और 25 सालों के लिए बढ़ा दी गई। यानी 2026 तक इस पर रोक है।

अन्नादुरै की दलील : हिंदी को राजभाषा बनाने का तमिलनाडु में सबसे ज्यादा विरोध हुआ। अन्नादुरै खुलकर इसके खिलाफ खड़े हो गए। जब उनसे कहा गया कि हिंदी बोलने वाले देश में सर्वाधिक हैं, तो उनका जवाब था कि इस तर्क से तो कौवे को राष्ट्रीय पक्षी होना चाहिए, मोर को नहीं। हालांकि तमिलनाडु में 69% आरक्षण है जो लंबे समय से सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष विचाराधीन है।

सुविधा का तर्क : मामला दरअसल सुविधा के तर्क का है। जहां संख्या बल हो, वहां संख्या की बात और जहां संख्या न हो वहां नैतिकता और योग्यता की बात। बिहार में 1990 से लगातार सामाजिक न्याय की बात करने वालों की सरकार है। देश की 70% आबादी 35 साल से कम उम्र की है। यानी बिहार में लगभग 70% वे लोग हैं, जो 1990 के बाद पैदा हुए। अगर उन सबको शिक्षा भी दे दी जाती तो बिहार का स्वरूप आज कुछ और होता।

नाकामियों पर पर्दा : आज चुनाव जीतने के लिए जहर फैलाया जाता है। देश में अवसर की समानता न होने के कई कारण हैं जिनमें जाति भी एक है। परंतु जाति को एकमात्र कारक बताना अपनी असफलताओं पर पर्दा डालना है। चुनाव जीतना भी जरूरी है लेकिन केवल चुनाव जीतना ही लोकतंत्र नहीं है। आज नहीं तो कल सोचना होगा कि समाज में समता और समरसता लाने के बेहतर तरीके क्या हैं।