भारत में कभी गेहूं से डबल था दलहन फसलों की बुवाई का क्षेत्र , अब क्या है हाल? 

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आजादी के बाद भारत में दलहन फसलों की बुवाई का क्षेत्र गेहूं से डबल था, अब क्या है हाल? जनता की थाली में कैसे कम होती गई दाल. हम हैं दुन‍िया के सबसे बड़े दाल उत्पादक फ‍िर भी क्यों दालें इंपोर्ट करने पर हैं मजबूर. कैसे गलेगी आत्मन‍िर्भरता की दाल?

इसमें कोई शक नहीं क‍ि भारत दुनिया का सबसे बड़ा दलहन उत्पादक है. लेक‍िन, इसमें भी कोई शक नहीं है क‍ि हम बड़े दाल आयातक भी हैं. सवाल यह है क‍ि ऐसा विरोधाभास क्यों? जवाब यह है क‍ि बढ़ती जनसंख्या की जरूरतों को पूरा करने के ल‍िए दलहन फसलों की ज‍ितनी खेती होनी चाह‍िए थी, उस गत‍ि से रफ्तार नहीं बढ़ी. आजादी के बाद से ही हमारी पॉल‍िसी ऐसी रही है ज‍िसमें गेहूं-धान की फसलों पर ज्यादा जोर द‍िया गया और दलहन फसलें पीछे छूट गईं. केंद्रीय कृष‍ि मंत्रालय के पुराने पन्नों को पलटने पर इसे लेकर द‍िलचस्प जानकारी सामने आती है. ज‍िसमें साफ पता चलता है क‍ि क्यों हम दालें इंपोर्ट करने पर मजबूर हैं. दरअसल, दालों के मामले में आत्मन‍िर्भरता की तरफ जो रास्ता जाता है उस पर हमने बहुत देर से चलना शुरू क‍िया. अब हम ज‍ितना एर‍िया और उत्पादन बढ़ाते हैं उससे ज्यादा तेजी से खपत बढ़ जाती है. 

अरहर (तूर) दाल भारत में सबसे ज्यादा खाई जाने वाली दालों में से एक है. इसका दाम 170 से 200 रुपये क‍िलो तक पहुंच गया है. अगर हम सरकारी आंकड़ों की बात करें तो प‍िछले एक साल में ही अरहर दाल का दाम प्रत‍ि क‍िलो 39 रुपये बढ़ गया है. दूसरी दालों का भाव भी लगातार र‍िकॉर्ड बना रहा है. अब यहां समझने वाली बात यह है क‍ि आख‍िर इसकी महंगाई की असली वजह क्या है? इसका सही जवाब जानने के ल‍िए हमें यह देखना और समझना पड़ेगा क‍ि क्या वाकई दलहन फसलों की खेती कम हो गई है या फ‍िर जनसंख्या वृद्ध‍ि के साथ उसका दायरा ज‍ितना बढ़ना चाह‍िए था वह नहीं बढ़ा?

थाली में कम होती दाल 

जब दलहन फसलों का रकबा देखेंगे तो वह बढ़ा जरूर नजर आएगा. लेक‍िन जनसंख्या के ह‍िसाब से इसकी खेती ज‍ितनी बढ़नी चाह‍िए वह नहीं बढ़ी. जब हम प्रत‍ि व्यक्त‍ि दाल की उपलब्धता देखेंगे तो यह यह बात समझ में आ जाएगी. इस वक्त‍ सालाना प्रत‍ि व्यक्त‍ि दाल की उपलब्धता पहले से घट गई है. साल 1951 में भारत में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष दालों की उपलब्धता 22.1 क‍िलोग्राम थी, जो 2021 में घटकर स‍िर्फ 16.4 क‍िलोग्राम ही रह गई है.

जाह‍िर है क‍ि बढ़ती जनसंख्या की जरूरतों को पूरा करने के ल‍िए दलहन फसलों की खेती बढ़ने की जो रफ्तार होनी चाह‍िए वो नहीं है. यह उपलब्धता तो तब है जब प‍िछले सात-आठ साल में दलहन फसलों का एर‍िया और उत्पादन काफी बढ़ गया है. क्योंक‍ि हम अब दलहन में आत्मन‍िर्भरता का लक्ष्य लेकर आगे बढ़ रहे हैं. वरना अगर 2010 की बात करें तो प्रति व्यक्ति प्रत‍ि वर्ष दालों की उपलब्धता स‍िर्फ 12.9 क‍िलो ही थी. जबक‍ि भारत में शाकाहारी लोगों के ल‍िए दालें प्रोटीन का अच्छा सोर्स हैं. 

दलहन फसलों की उपेक्षा 

अब बात करते हैं दलहन फसलों के एर‍िया की. केंद्रीय कृष‍ि मंत्रालय के एक वर‍िष्ठ अध‍िकारी ने बताया क‍ि आजादी के बाद भारत में दलहन का क्षेत्र गेहूं से भी अध‍िक हुआ करता था. मंत्रालय के पुराने दस्तावेज भी इस बात की तस्दीक करते हैं. साल 1972-73 तक गेहूं का एर‍िया लगभग डबल हो गया. जबक‍ि दलहन फसलों के रकबे में मामूली सी वृद्ध‍ि हुई. साठ के दशक की शुरुआत से 2015-16 तक दलहन फसलों का एर‍िया स्थ‍िर रहा. न ज्यादा घटा और न बढ़ा. इससे दालों की मांग और आपूर्त‍ि में काफी अंतर आ गया.

एक तरफ दलहन फसलों की खेती नहीं बढ़ी तो दूसरी तरफ हमारे वैज्ञान‍िक अध‍िक उत्पादन देने वाली क‍िस्में बनाने में फेल रहे. इसल‍िए उत्पादकता में हम पीछे रहे. दलहन फसलों की कनाडा और चीन जैसी उत्पादकता होती तो फ‍िर आज हम दालों के आयातक नहीं होते.