किसानों के खर्च और कर्ज में कमी बेहद जरूरी

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भारत डोगरा

राष्ट्रीय व स्थानीय स्तर पर कृषि व खाद्य नीति की बहुत चर्चा होती रही है। इसके बावजूद ऐसी समग्र नीति नहीं बन पाई है, जिसमें सभी जरूरतों का संतुलित समावेश हो सके। ऐसी समग्र नीति में आठ उद्देश्यों का संतुलित निर्वाह होना चाहिए, जो परस्पर एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।

पहला उद्देश्य तो यह है कि किसानों को, विशेषकर छोटे व मध्यम किसानों को संतोषजनक, टिकाऊ व रचनात्मक आजीविका उपलब्ध हो। संतोषजनक का मतलब उन्हें उपज की उचित कीमत मिले, जिससे जीवन-निर्वाह के अनुकूल आय प्राप्त हो। टिकाऊ का अर्थ आजीविका व इसका आधार भावी पीढ़ी के लिए भी टिका रहे। पानी-मिट्टी जैसी खेती की बुनियादी जरूरतें अच्छी स्थिति में बनी रहें। रचनात्मक का अर्थ खेती-किसानी के ज्ञान का किसान बेहतर उपयोग कर सकें, जिसमें परंपरागत ज्ञान व महिला किसानों की समझ की बड़ी भूमिका है। खर्च और कर्ज में कमी जरूरी है।

दूसरा उद्देश्य यह है कि उपभोक्ताओं को ऐसे खाद्य पदार्थ उचित कीमत पर मिलें, जो उन्हें स्वस्थ व नीरोग रखें। तीसरा उद्देश्य यह है कि कृषि व गांव का पर्यावरण अच्छा रहे। भू-जल स्तर ठीक बना रहे, मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरा शक्ति बनी रहे, जल-स्रोत उपलब्ध हों, किसान के मित्र, जो कीट-पतंगे, मधुमक्खियां, पक्षी आदि हैं, उनकी भी रक्षा हो तथा परागण की क्रिया ठीक से हो। सभी गांवों में भरपूर स्थानीय प्रजातियों के वृक्ष रहें। परंपरागत बीजों की रक्षा भी बहुत जरूरी है।
चौथा उद्देश्य यह है कि जलवायु बदलाव के मौजूदा दौर में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम रखा जाए और इस कारण उत्पन्न प्रतिकूल मौसमी स्थितियों व आपदाओं का सामना करने की क्षमता विकसित हो। बुरे मौसम व आपदा से किसानों को होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए पहले से बेहतर तैयारी करनी होगी। यदि ग्रीनहाउस गैसों को नियंत्रित करने का कार्य ठीक से हो, तो इसके लिए विश्व स्तर पर स्थापित कोष से धनराशि प्राप्त की जा सकती है और किसानों को दी जा सकती है।

पांचवां उद्देश्य है कि भूमिहीन खेत मजदूरों को बेहतर मजदूरी और जहां संभव हो, कुछ भूमि देकर उनकी सहायता की जाए। इसी तरह प्रवासी मजदूरों की भलाई का भी पूरा ध्यान रखना होगा। विशेषकर डेयरी व पशुपालन, किचन गार्डन आदि के माध्यम से भी इनकी मदद हो सकती है।

छठा उद्देश्य है कि खेती के उत्पादों पर आधारित लघु व कुटीर उद्योगों को बढ़ावा दिया जाए, क्योंकि केवल खेती से गांव व गांव के लोगों की समृद्धि का मजबूत आधार नहीं बनता है। इससे स्थानीय स्तर पर अधिक रोजगार का सृजन भी होगा। इसमें महिलाओं की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है।

सातवां उद्देश्य यह है कि देश के विभिन्न भागों की अलग-अलग स्थितियों के अनुसार कृषि विकास की अलग-अलग जरूरतों के अनुकूल नियोजन होने चाहिए। यानी विकेंद्रित स्थानीय जरूरतों के अनुकूल कृषि नीति पर अधिक जोर देना चाहिए। 
आठवां और अंतिम उद्देश्य यह है कि खेती व ग्रामीण विकास के लिए सरकारों को अपना बजट बढ़ाना चाहिए। एक बार किसानों के कर्ज को माफ कर ऐसी स्थिति उत्पन्न करनी चाहिए कि सस्ती तकनीक अपना कर वे आगे कर्ज से बच सकें।
बेशक इन सब उद्देश्यों का एक साथ एक समग्र संतुलित नीति में समावेश चुनौतीपूर्ण है, लेकिन इस राह पर चलते हुए हम बहुत बड़ी उपलब्धियां हासिल कर सकते हैं। इन सभी उद्देश्यों में कोई आपसी टकराव नहीं है। इन सभी उद्देश्यों को हम एक साथ एक समय में समावेशी नीति से प्राप्त कर सकते हैं। साथ ही हमें यह ध्यान में रखना पड़ेगा कि जब तक इन नीतियों के साथ कुछ समाज-सुधार के कार्य नहीं जुड़ेंगे, तब तक बेहतर से बेहतर आर्थिक नीतियां भी सफल नहीं होंगी। नशे के विरुद्ध, दहेज के विरुद्ध सशक्त आवाज उठानी होगी। तरह-तरह की उपभोक्तावाद आधारित फिजूलखर्ची को भी कम करना ही होगा।

आज की दुनिया में शॉर्ट-कट बहुत पसंद किए जाते हैं। ऐसे में, आश्चर्य नहीं कि इतने महत्वपूर्ण मुद्दों को छोड़कर प्रायः सतही तौर पर एक-दो उद्देश्यों या फार्मूलों पर चर्चा होती रही है। लेकिन सही व टिकाऊ समाधान तभी मिलेंगे, जब इनके लिए समग्र नीतियां बनेंगी, जब अल्पकालीन हितों के साथ दीर्घकालीन हितों पर भी ध्यान दिया जाएगा।