राज कुमार सिन्हा
कृषि अर्थव्यवस्था के जानकार मानते हैं कि खेती को बरकरार रखने, विकसित करने और सबका पेट भरने की अधिकांश जिम्मेदारी छोटे और सीमांत किसान ही निभाते हैं। जहां 70% ग्रामीण परिवार अभी भी अपनी आय के प्राथमिक स्रोत के रूप में कृषि पर निर्भर हों तथा 82 % किसान छोटे एवं सीमांत हों, वहां यह बात वाजिब भी है, लेकिन हमारी सरकारें उनके प्रति कैसा व्यवहार कर रही हैं?
हाल में हुए कृषि अर्थशास्त्रियों के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि भारत के छोटे किसान देश की खाद्य सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने कहा कि कृषि क्षेत्र भारत की आर्थिक नीति में केन्द्रीय महत्व रखता है, हमारे यहां 90 प्रतिशत कृषक परिवार ऐसे हैं जिनके पास बहुत कम जमीन है जिसके कारण इनकी उपज की मात्रा कम रहती है और ये न तो खेती का खर्च कम करने और न ही अपनी उपज के लिए बेहतर भाव हासिल कर पाने में बाजार से मोलभाव करने की स्थिति में रहते हैं। ऐसे में ‘किसान उत्पादक संगठन’ (एफपीओ) एक ऐसा प्लेटफार्म है, जो इन किसानों को संगठन और मात्रा के लिहाज से एक ताकत बना देता है।
देश के अलग- अलग हिस्सों में कई ‘एफपीओ’ हैं, जो किसानों के लिए कई तरह से आमदनी बढ़ाने का माध्यम बन रहे हैं। ‘कंपनी एक्ट’ के तहत पंजीकृत ‘एफपीओ’ में किसान शेयर धारक होते हैं और कंपनी को होने वाला मुनाफा किसानों को लाभांश के तौर पर वितरित कर दिया जाता है। हालांकि कई ‘एफपीओ’ किसानों को सार्थक रूप से शामिल करने में विफल रहते हैं, जिसके परिणामस्वरूप भागीदारी का स्तर कम होता है। दूसरे, ‘एफपीओ’ की स्थापना अक्सर इस बात की स्पष्ट जानकारी के बिना की जाती है कि वे क्या हासिल करना चाहते हैं, जिससे सदस्यों के बीच भ्रम और असहमति पैदा होती है।
देश के 90 प्रतिशत किसानों के पास एक या दो हेक्टेयर जमीन है जो करीब 50 प्रतिशत लोगों को रोजगार देती है, फिर भी ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) में इनका योगदान मात्र 15 फीसदी है। राष्ट्र के ‘जीडीपी’ में कृषि का योगदान बढ़ाने का लक्ष्य है, अर्थात छोटे और सीमांत किसानों को खेती से हटाकर खाद्यान्न उत्पादन का काम बङी कम्पनियों को दिया जाना है, जबकि कोरोना बीमारी के समय में कृषि क्षेत्र ही भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूती से संभाले हुए था।
छोटे किसान स्थानीय समुदायों को पौष्टिक भोजन प्रदान करने, पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने और टिकाऊ कृषि को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। छोटे किसानों की खेती का अधिकांश काम महिलाएं करती हैं, जहां कृषि श्रम शक्ति का 40 फीसदी महिलाएं हैं। ‘ब्रेड फॉर द वर्ल्ड’ संस्था के अनुसार वैश्विक कुपोषण से निपटने के लिए सबसे अधिक निवेश महिला किसानों के जीवन को बेहतर बनाने में करना चाहिए। पुरूषों को उपलब्ध संसाधनों के साथ, वे अपनी फसलों की पैदावार 20 से 30 प्रतिशत तक बढा सकती हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष औसतन 15,168 किसान आत्महत्या को मजबूर हो रहे हैं। इनमें से लगभग 72 प्रतिशत ऐसे छोटे किसान हैं जिनके पास 2 हेक्टेयर से भी कम जमीन है।
संसद की कृषि सम्बंधी ‘स्टैंडिंग कमिटी’ (2024) के अनुसार भारत का 51 प्रतिशत खेती योग्य क्षेत्र वर्षा पर निर्भर है, जो जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील है। देश के विभिन्न हिस्सों में बार-बार ‘चरम मौसम’ की घटनाओं के कारण फसल उत्पादन और आमदनी में गिरावट आई है। कृषि मंत्रालय द्वारा कराए गए अध्ययनों के अनुसार मार्च 2022 में ‘ग्रीष्म लहर’ (हीटवेव) के कारण लगभग 35 लाख टन गेहूं उत्पादन प्रभावित हुआ था। इसी प्रकार 2014-15 में बेमौसम बारिश के कारण सोयाबीन फसल प्रभावित हुई थी।
इस जोखिम के लिए केन्द्र सरकार द्वारा ‘फसल बीमा योजना’ और ‘मौसम आधारित पुनर्गठन फसल बीमा योजना’ (रिस्ट्रक्चर्ड वेदर बेस्ड क्रॉप इंश्योरेंस स्कीम) लागू की गई है जिसमें केन्द्र सरकार राज्य सरकार के बराबर हिस्सा देती है। पिछले चार सालों में किसानों की फसलों का बीमा 1.8 लाख से 2.8 लाख करोड़ रुपये हो गया है, परन्तु किसानों के कुल बीमा में से 8-10 प्रतिशत राशि का ही भुगतान किया गया है। सन् 2020 में फसलों के कुल बीमा 1,94,689 करोड़ रुपयों के विरुद्ध 19,385 करोड़ रुपयों का भुगतान हुआ, जबकि 2023 में 2,78,420 करोड़ रुपयों के विरुद्ध 7,128 करोड़ रुपये का भुगतान हुआ जो मात्र 3 प्रतिशत है।
यहां किसानों के साथ ऐतिहासिक अन्याय का उल्लेख करना भी आवश्यक है। ‘जो जोते उसकी जमीन’ के नारे तो लगते रहे, परन्तु भूमि-सुधार की बात आधी – अधूरी छूट गई। खेती-किसानी के काम की हकदारी तय करने में बेईमानी की गई। पहला यह कि दुनिया में खेती- किसानी का काम सबसे हुनरवाला है, परन्तु देश में खेती-किसानी के काम को ‘अकुशल श्रम’ का दर्जा दिया गया। दूसरा, संगठित और असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों का पारिश्रमिक तय करने में भेदभाव किया गया। संगठित क्षेत्र में माना जाता है कि कामगार को इतनी मजदूरी मिले जिससे वह अपने पूरे परिवार का भरण-पोषण कर सके, परन्तु असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों के लिए यह मापदंड नहीं माना जाता। उसमें आमतौर पर धारणा है कि दो काम करने वाले मिलकर परिवार का भरण – पोषण कर सकें।
खेत-मजदूरी (छोटे किसान स्वयं खेत काम करता है) का मूल्य ही कम करके आंका गया हो तो उसके आधार पर तय किये गए उत्पादों का भाव भी कम होना स्वाभाविक है। इसी कारण ‘कृषि लागत और मूल्य आयोग’ द्वारा खेती की फसलों की जो दर तय की जाती है, उनका कम होना स्वाभाविक है। ‘मानवाधिकारों की राष्ट्रव्यापी घोषणा’ के अनुछेद-23(3) में हकदारी का सिद्धांत दर्ज है जिसके अनुसार काम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को ऐसे न्यायोचित और अनुकूल पारिश्रमिक का अधिकार प्राप्त है, जो उसके तथा उसके परिवार के लिए मानवीय प्रतिष्ठा से जीवन सुनिश्चित कर सके।
किसानों की आय बढाने के प्रयासों पर कृषि-विशेषज्ञ देवेन्दर शर्मा का कहना है कि ‘सरकार को 2047 तक भारत को विकसित बनाने के लिए ग्रोथ इंजन बनाना होगा। देश की 45- 50 फीसदी आबादी खेती से जुङी है, इसलिए केन्द्र को बजट का 50 फीसदी, यानि 24 लाख करोड़ रुपये का आबंटन चरणबद्ध तरीके से बढाना होगा। वर्तमान में बजट का 3 फीसदी कृषि क्षेत्र को दिया जा रहा है। इसे बढाने से देश का आर्थिक पहिया तेजी से घूमेगा। इसके लिए छोटे किसानों को सशक्त करने के ठोस प्रयास करने होंगे जिसमें जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करना, टिकाऊ कृषि पद्धतियों को प्रोत्साहित करना, छोटे किसानों के लिए वित्त-पोषण और संसाधनों तक पहुँच बढाना आदि प्रमुख हैं।’
इसी तरह खाद्य सुरक्षा की सभी योजनाओं, जिसमें ‘सार्वजनिक वितरण प्रणाली’ (पीडीएस) भी शामिल है, को स्थानीय उत्पादन, खरीदी, भंडारण, वितरण की सार्वभौमिक और विकेन्द्रीकृत प्रणालियों में बदला जाए। बीज की विविधता किसानों के हाथ में ही सुरक्षित हो। सभी खेतिहर एवं गैर-खेतिहर परिवारों की न्यूनतम आय सुनिश्चित की जाए, खासकर दलित, आदिवासी, महिला एवं अन्य हाशिये के परिवारों को प्राथमिकता दी जाए। ग्रामीण किसानों के नेतृत्व वाले कृषि प्रसंस्करण, भंडारण और विपणन के लिए विस्तृत सुविधाएं विकसित करके ग्रामीण अर्थव्यवस्था को ऐसा बनाया जाये कि ग्रामीण किसानों की आय बढ़े। कृषि अनुसंधान के तौर-तरीकों और उसकी दिशा बदलने की जरूरत है। इसके तहत परम्परागत किसानों को केन्द्र में रखकर, कृषि पारिस्थितिकी वाले तरीकों पर ध्यान दिया जाना होगा जो देश के लिए टिकाऊ खाद्य सुरक्षा और किसानों के लिए आजीविका सुनिश्चित करे। कथाकार मुंशी प्रेमचंद औपनिवेशिक समय में किसान जीवन के जिस भीषण यथार्थ को अपनी चिन्ता का विषय बना रहे थे, वह आज और विकट बनकर किसानों के सामने खड़ा है। आज इसे बदलने की जरूरत है।