खुद की जुबानी, प्याज की लंबी कहानी

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एक बार फिर प्याज चर्चा में है। इस बार महंगा होने की वजह से प्याज की चर्चा की जा रही है। कहा जाता है कि भारत में प्याज की कीमतें सरकारें गिरा दिया करती हैं। इसलिए प्याज को गंभीरता से लिया जाता है। डाउन टू अर्थ ने पिछले साल जुलाई के अंक में प्याज की आत्मकथा प्रकाशित की थी जिसमें किसानों की दुर्दशा और प्याज की ऐतिहासिक यात्रा का विस्तार से उल्लेख था। पाठक यह आत्मकथा यहां पढ़ सकते हैं-

भले ही आप भारतीय हों या अमेरिकी, मैं आपकी जिंदगी, संस्कृति, अर्थव्यवस्था और यादों में शामिल रहा हूं। दुनिया भर में 150 से ज्यादा देश हर मौसम में प्रतिदिन मुझे चखते हैं। आप अमीर हों या गरीब, सबके लिए मेरी भूमिका भोजन को स्वादिष्ट बनाने की होती है। मैं आपको स्वस्थ रखने में मदद करता हूं। भारत के प्रधानमंत्री से लेकर अमेरिका के राष्ट्रपति तक मुझमें दिलचस्पी रखते हैं। गरीब की भात रोटी से लेकर मांसाहार तक में बड़े चाव से मुझे खाया जाता है।

गरीबी के प्रतीक के रूप में अक्सर कहा भी जाता है “भात प्याज खाकर जीता हूं।” भोजन संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए मुझे नजरअंदाज करना नामुमकिन है। तमाम तरह के चिप्स और सूप में मुझसे ही स्वाद आता है। हाल ही में मुझे पता चला कि अमेरिकी और भारतीय चिप्स कंपनियां अपने उत्पाद को बेचने के लिए मेरी मौजूदगी का प्रचार कर रही हैं।

मेरे उदगम स्थल के बारे में स्पष्टता नहीं है लेकिन इतिहास में मेरे बारे में जो जानकारी उपलब्ध है, वह बेहद दिलचस्प है। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि मैं 10,000 साल पहले से आपकी सेवा में लगा हूं। उस वक्त व्यवस्थित खेती की शुरुआत नहीं हुई थी। तब आप चावल और गेहूं से परिचित नहीं थे। अन्य फलों और सब्जियों की तरह मैं भी जंगल में उग आता था। उस वक्त आप शिकार करते थे और भोजन की तलाश में भटकते रहते थे। आपमें से कुछ लोगों ने भूख शांत करने पर मुझे उखाड़कर खा लिया और मैंने प्यास बुझा दी थी। बाद के वर्षों में वैज्ञानिकों इसे साबित भी किया है। मुझे और आपके पूर्वजों को पता है कि उस दौर में सभ्यता विकसित नहीं हुई थी। आपके खानाबदोश पूर्वज प्यास बुझाने के लिए मुख्य रूप से मेरा सेवन करते थे। धीरे-धीरे मैं आपके जीवन में शामिल हो गया।

मैं आपके पूर्वजों के घुमंतू से सभ्य समाज का हिस्सा बनने तक की यात्रा का प्रत्यक्ष गवाह रहा हूं। सभ्य समाज का प्राणी बनने के आपके संघर्ष को मैंने अपनी आंखों से देखा है। आपके सफर के साथ मेरी यात्रा भी हुई। अब मैं आपकी बालकनी में रखे गमलों में मौजूद हूं और आपके सैकड़ों एकड खेत में उपस्थित हूं। हर सड़क के किनारे दुकान में मेरी मौजूदगी है। अपनी तरह आपने मुझे भी बसा दिया है।

इस लंबी यात्रा में आपने मेरी वंशावली को भुला दिया है। मेरे जंगली वंशज विलुप्त हो चुके हैं। मेरी भौगोलिक उत्पत्ति का कोई दस्तावेज मौजूद नहीं है। भारत के 50,000 कृषि वैज्ञानिक भी मेरे इतिहास का पता नहीं लगा पाए हैं। कहने को तो आप कह सकते हैं कि इस कालखंड में दुनियाभर मैं अपनाया गया हूं। इसकी मुझे खुशी तो है लेकिन अपने इतिहास को गंवाने का दुख भी सालता है।

कुमाऊं विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग से संबद्ध इंदु मेहता के शोधपत्र के अनुसार, 3200 ईसा पूर्व मिस्र के मकबरों में मुझे आहार के रूप में दर्शाया गया था। 1700-1600 ईसा पूर्व प्राचीन बेबीलोनियन दवाओं की रेसिपी में मेरा उल्लेख मिलता है। मिस्र में मेरी जड़ें 3500 ईसा पूर्व से हैं। यहां मेरी पहचान सिर्फ भोजन तक सीमित नहीं थी। मिस्र के लोग मुझे पूज्यनीय मानते थे। मेरी आकृतियां पिरामिडों व प्राचीन साम्राज्यों के मकबरों में उकेरी गई हैं। मिस्र की चर्चित ममी में भी मुझे रखा जाता था।

माना जाता है कि मिस्र के लोगों ने उन मजदूरों को रोज मेरा सेवन कराया था जो पिरामिड बनाने के काम में लगे थे ताकि वे पूरी ताकत के साथ काम करते रहें। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान रूसी सैनिक अपने साथ मुझे ले जाते थे और संक्रमण होने पर मुझसे उपचार करते थे। ये सैनिक एंटीसेप्टिक के रूप में मेरा इस्तेमाल करते थे। बाइबल और कुरान में भी मेरा जिक्र है।

भारत में प्राचीन काल से मुझे उगाया जा रहा है। 6 ईसा पूर्व के चरक संहिता में मेरे औषधीय गुणों का वर्णन है। भारत में प्राचीन काल में कट्टर ब्राह्मण, विधवा महिलाएं मुझसे से आने वाली दुर्गंध के कारण में मुझे अपवित्र मानते थे और मेरा सेवन करने से परहेज करते थे, लेकिन अब मैं लगभग सभी लोगों के आहार में शामिल हो चुका हूं।

सभी मुझसे प्यार करते हैं लेकिन कुछ राजनेताओं को मैं रुला भी चुका हूं। वर्तमान में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज भी उनमें से एक हैं। 1998 में जब वह दिल्ली की मुख्यमंत्री थीं, तब मैंने उनकी सरकार गिराने में अहम भूमिका निभाई थी। माना जाता है कि मेरा नाम “ओनियन” लैटिन शब्द यूनिओ से पड़ा जिसका अर्थ है अखंडता व एकता।

इलस्ट्रेशन: तारिक अजीज / सीएसई

पिछले कुछ समय से मैं असहज महसूस कर रहा हूं। दरअसल, जो किसान मुझे उपजाने में लगे हैं, जिनकी मेहनत के बल पर आप लोगों के किचन में स्वाद का तड़का लगता है, उनकी माली हालत बहुत खराब हो चली है। मुझे काटने पर अक्सर आंखों से पानी निकलता है लेकिन किसानों की हालत देखकर मेरी आंखों में पानी आ रहा है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ लेकिन अब मेरे दाम लगातार गिरते जा रहे हैं। मेरे गिरते दाम से किसानों के माथे पर चिंता की लकीरें साफ देखी जा सकती हैं। कई बार तो मेरे दाम इतने गिर जाते हैं कि लागत तक नहीं निकल पाती। किसान सड़कों पर मुझे फेंककर रोष प्रकट कर रहे हैं। कई बार खुदकुशी तक की नौबत आ चुकी है। यह मुझसे देखा नहीं जाता।

मेरे गिरते दाम भोपाल के ईंट खेड़ी छाप नामक गांव के किसान वीर सिंह को भी परेशान कर रहे हैं। उन्होंने पिछले साल रबी के मौसम में अपने 2.5 एकड़ के खेत में मुझे 75,000 रुपए की लागत से उगाया था। उनके खेत में मेरी करीब 400 क्विंटल की पैदावार हुई। जब उन्हें पता चला कि मंडी में मेरा भाव 500 रुपए प्रति क्विंटल है तो उन्होंने मुझे बेचा ही नहीं।

गांव के रोहित ठाकुर ने भी समझदारी दिखाई और कम भाव के चलते मुझे बेचने मंडी लेकर नहीं पहुंचे। उन्होंने मेरा भंडारण कर लिया और अब उम्मीद लगाए बैठे हैं कि अच्छे भाव मिले तो बेचें। उन्हें उम्मीद है कि अगस्त में मेरे अच्छे भाव मिलेंगे क्योंकि उस वक्त मेरी आवक कम हो जाती है। वीर सिंह की गिनती सक्षम किसानों में होती है। कुछ महीने तक वह अपनी फसल का भंडारण कर सकने की स्थिति में हैं लेकिन मुझे उगाने वाले अधिकांश इतने दूरदर्शी और सक्षम नहीं हैं।

उदाहरण के लिए महाराष्ट्र के नासिक में रहने वाले किसान शंकर डारेकर को ही ले लीजिए। आमतौर वह अपने 20 एकड़ के खेत में प्याज लगाते हैं लेकिन चालू वर्ष में उन्होंने अपने 7.5 एकड़ खेत में ही मुझे उपजाया। प्रति एकड़ करीब 65 हजार रुपए खर्च आया और एक एकड़ में औसतन 90-100 क्विंटल पैदावार हुई।

जब वह ट्रैक्टर में मेरी 700 क्विंटल की उपज लादकर नासिक की लासलगांव मंडी पहुंचे तो मेरी नंबर एक किस्म का भाव 650 रुपए प्रति क्विंटल था। उस वक्त दो नंबर की उपज का भाव 350 से 400 रुपए प्रति क्विंटल के बीच ही था। शंकर को मजबूरी में इसी भाव पर मुझे बेचना पड़ा क्योंकि अगली फसल की तैयारी के लिए उन्हें तत्काल रुपयों की जरूरत थी। कुल मिलाकर उन्हें 50-60 हजार रुपए का घाटा उठाना पड़ा। साल 2017 में भी वह मेरी खेती से 4 से 4.5 लाख रुपए का घाटा उठा चुके हैं।

शंकर बताते हैं कि इस साल मई में मेरा भाव 70-100 रुपए प्रति क्विंटल तक पहुंच गया था। इस भाव पर मुझे बेचने वालों के ट्रैक्टर में डीजल भरवाने तक के पैसे नहीं निकल पाए। शंकर मेरी खेती को मटका (लकी ड्रॉ) खेल से तुलना करते हुए कहते हैं कि किसान इस उम्मीद से मेरी खेती करता है कि कभी तो भाव मिलेगा। घाटे पर घाटा उठाने के बाद भी वह उम्मीद के आसरे मटका डालता रहता है लेकिन हर बार निराशा ही हाथ लगती है।

जो किसान पहले हंसी खुशी मुझे उपजाते थे, क्या उनका मुझसे मोहभंग होने लगा है? क्या मैं राजनीतिक महत्व भी खोता जा रहा हूं? ये सवाल मेरे जेहन में अक्सर उठते रहते हैं। अब बताया जा रहा है कि मुझे उपजाना आर्थिक रूप से फायदेमंद नहीं है।

नासिक में ही मेरे उत्पादक धनंजय पाटिल बताते हैं कि एक किलो प्याज उगाने की लागत 10-11 रुपए बैठती है। कई जमीनों पर लागत 15 रुपए प्रति किलो तक पहुंच जाती है। वह बताते हैं कि मुझे उगाने वाला तब तक फायदे की स्थिति में नहीं होगा जब तक मेरा भाव 1500 रुपए प्रति क्विंटल न हो। धनंजय ने अपने 3 एकड़ के खेत में मुझे लगाया था। मई के पहले सप्ताह में उन्होंने 500 रुपए प्रति क्विंटल के भाव से मंडी में बेच दिया। भाव कम होने पर धनंजय ने समझदारी दिखाते हुए मुझे पूरा का पूरा नहीं बेचा। उपज का महज 150 क्विंटल की उन्होंने बेचा और बाकी का 450 क्विंटल का भंडारण कर लिया।

धनंजय बताते हैं कि सरकार मेरा भंडारघर बनाने के लिए महज 85,500 रुपए की मदद देती है जबकि लागत कम से कम 2.5 लाख रुपए आती है। जो किसान भंडारघर बनाने की स्थिति में नहीं है उन्हें कम दाम मिलने के बावजूद अपनी उपज बेचनी पड़ती है। संपन्न किसान चार से साढ़े चार महीने ही भंडारघर में मुझे रख सकते हैं। इसके बाद बाजार भाव पर मुझे बेचना ही पड़ता है चाहे दाम कम ही क्यों न हों। धनंजय के अनुसार, मेरे दाम इसलिए इतने कम हो रहे हैं क्योंकि मुझ पर सरकारी नियंत्रण नहीं है और मैं पूरी तरह व्यापारियों के हवाले हूं।

यूं तो मेरे चढ़ते भाव अक्सर चर्चा का विषय बनते हैं लेकिन 2016 से मेरे थोक भाव में लगातार गिरावट जारी है। मुझे उपजाने वाले छोटे तबके के अलावा कहीं इस पर बात ही नहीं हो रही। नुकसान की आशंका के चलते दो साल से मेरे रकबा में भी गिरावट दर्ज की गई है। कृषि मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि 2015-16 में 13,20,000 हेक्टेयर में मुझे उगाया गया था जो 2016-17 में गिरकर 13,06,000 हेक्टेयर हो गया। अनुमान है कि 2017-18 में यह और घटकर 11,96,000 हेक्टेयर पहुंच जाएगा।

राष्ट्रीय किसान मजदूर महासंघ के किसान नेता भगवान मीणा रकबे में इस गिरावट का जिम्मेदार मंडी में उचित दाम न मिलने को बताते हैं। उनका कहना है कि इंदौर की मंडियों में इस साल मई में मुझे 25 पैसे प्रति किलो और उससे भी कम भाव पर बेचा गया। पिछले साल जुलाई में सरकार ने 6 रुपए प्रति किलो के हिसाब से मेरी खरीद की थी। कुछ महीनों बाद मैं 100 रुपए किलो हो गया। वह बताते हैं कि किसान अपना स्टॉक जल्दी निकालने के चक्कर में मुझे औने-पौने दाम पर बेच देते हैं जिसे व्यापारी जमा कर लेते हैं और महंगे दामों पर बेचते हैं।

मध्य प्रदेश के मंडी अधिनियम 1972 में प्रावधान है कि कोई भी फसल न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दाम पर नहीं बेची जा सकती लेकिन सरकार की भावांतर भुगतान योजना इस नियम की घोर अवहेलना कर रही है। मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने मंडी अधिनियम के तहत उत्पाद खरीदने का आदेश दिया लेकिन सरकार अब भी इस पर ध्यान नहीं दे रही है।

मेरे दाम किस हद तक गिरे हैं, इसका अंदाजा महाराष्ट्र की लासलगांव मंडी में मेरे न्यूनतम भाव को देखकर लगाया जा सकता है। कृषि उत्पादों के क्रय-विक्रय का रिकॉर्ड रखने वाली सरकारी वेबसाइट एगमार्केट के अनुसार, एशिया की सबसे बड़ी इस मंडी में जनवरी 2018 में मेरा न्यूनतम भाव 900-1500 रुपए प्रति क्विंटल था। फरवरी में यह भाव गिरकर 700-1200 रुपए प्रति क्विंटल हो गया। मार्च में 281-700 रुपए के न्यूनतम दाम के बीच किसानों को मुझे बेचना पड़ा।

मेरे दाम गिरने का सिलसिला यहीं नहीं थमा। अप्रैल में 271-400 रुपए तक के न्यूनतम भाव पर किसानों को मुझे बेचने पर मजबूर होना पड़ा। मई में 300-400 और 14 जून तक 251-400 रुपए प्रति क्विंटल के बीच मेरा न्यूनतम भाव रहा। दूसरे शब्दों में कहें तो जून में मुझे बेचने वाले किसानों प्रति किलो ढाई से चार रुपए ही हासिल हुए।

राष्ट्रीय किसान मजदूर महासंघ में युवा इकाई के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल राज मेरा दाम गिरने की सबसे बड़ी वजह सरकारी नीतियों को मानते हैं। वह बताते हैं कि सरकार के एजेंडे में किसान कहीं नहीं हैं। हालांकि चुनावी घोषणापत्र में किसानों के बारे में सबसे ज्यादा बातें होती हैं। एक बार वोट लेकर किसानों को भूल जाना ही सरकारों की फितरत है। उनका कहना है कि मध्य प्रदेश में फरवरी में मेरी आवक शुरू हो जाती है।

इस साल मई में नीमच की मंडियों में मुझे 50 पैसे प्रति किलो तक बेचा गया। वह बताते हैं कि मध्य प्रदेश सरकार ने मई में भावांतर भुगतान योजना के अंतर्गत मुझे खरीदने की घोषणा की लेकिन मई तक तो किसान अपनी उपज औने-पौने दाम पर बेच चुका था। इसलिए सरकार की घोषणा से किसानों को विशेष लाभ नहीं हुआ।

मध्य प्रदेश के होशंगाबाद में किसान नेता लीलाधर सिंह का कहना है कि होशंगाबाद में सरकार ने मई में भावांतर योजना के तहत प्याज की खरीद 8 रुपए प्रति किलो यानी 800 रुपए प्रति क्विंटल की दर पर खरीद की। सरकारी खरीद के बावजूद किसानों की लागत नहीं निकली। उनका कहना है कि भंडारण न होने के कारण सरकार किसानों से मुझे खरीदकर व्यापारियों को 4 रुपए प्रति किलो के भाव से बेच रही है। कुछ समय बाद यही व्यापारी ऊंचे दाम पर मुझे बेचकर मोटा मुनाफा कमाते हैं।

लीलाधर बताते हैं कि मध्य प्रदेश की मंडियों में पिछले साल मैं खुले में यूं ही पड़ा रहा। धूप और पानी से सड़ने पर सरकार ने मुझे जंगलों में फिंकवा दिया। यही वह वजह जगह थी, जहां हजारों साल पहले आपने मुझे चखा था। समय का पहिया ऐसा घूमा कि मुझे वापस जंगल में पहुंचा दिया गया।

भारत में दुनिया के तमाम देशों के मुकाबले सर्वाधिक क्षेत्रफल में मुझे उगाया जाता है। मैं ऐसी फसल रहा हूं जिस पर आप हमेशा निर्भर रहे हैं। इसलिए ऐसा कोई कारण नहीं है कि कहा जा सके कि मैं फायदे का सौदा नहीं रहा। मेरी मुख्यत: तीन किस्में हैं- लाल, पीली और हरी। मैं रबी और खरीफ दोनों मौसम की फसल हूं। खरीफ के बाद भी मुझे उगाया जाने लगा है। खरीफ की मेरी फसल अक्टूबर-नवंबर में तैयार हो जाती है, जबकि रबी की फसल अप्रैल-मई में तैयार होती है। खरीफ के बाद की फसल जनवरी-फरवरी में तैयार होती है। रबी के मौसम में मेरा 60 प्रतिशत उत्पादन होता है जबकि अन्य दो मौसम में 20-20 प्रतिशत की हिस्सेदारी रहती है।

फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन (एफएओ) के आंकड़े बताते हैं कि 2016 में भारत में मुझे 11,99,850 हेक्टेयर क्षेत्र में उगाया गया। क्षेत्रफल के लिहाज से दूसरे नंबर पर चीन है, जहां 10,85,569 हेक्टेयर क्षेत्र में मेरी पैदावार हुई।

भारत में क्षेत्रफल (रकबा) के लिहाज से भले ही मैं चीन से आगे हूं लेकिन उत्पादन में मैं अपने पड़ोसी देश से पिछड़ जाता हूं। साल 2016 में भारत में मेरा उत्पादन 1,94,15,425 टन हुआ जबकि चीन में कम क्षेत्रफल होने के बावजूद 2,38,49,053 टन पैदावार हुई। प्रति हेक्टेयर मेरी उत्पादकता दूसरे देशों के मुकाबले भारत में काफी कम है। जयपुर स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रीकल्चर मार्केटिंग (एनआईएएम) द्वारा 2012-13 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, भारत में मेरी प्रति हेक्टेयर उत्पादकता 14.2 मीट्रिक टन थी।

चीन में यह उत्पादकता 22 मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर, ब्राजील में 23.1, टर्की में 30.3 मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर है। जहां तक वैश्विक उत्पादन में मेरी हिस्सेदारी का सवाल है तो इसमें चीन सबसे आगे है। मेरे वैश्विक उत्पादन में चीन की हिस्सेदारी 26.99 प्रतिशत है। 19.90 प्रतिशत हिस्सेदारी के साथ भारत दूसरे पायदान पर है।

नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकॉनोमिक रिसर्च (एनसीएईआर) के शोध के अनुसार, भारत में मेरा उपभोग पिछले सालों में काफी बढ़ गया है। नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस कहता है कि 2004-05 से 2009-10 के बीच ग्रामीण क्षेत्रों में मेरा उपभोग 32 प्रतिशत जबकि शहरी क्षेत्रों में यह 18.6 प्रतिशत बढ़ा है। 2009-10 में ग्रामीण क्षेत्रों में मेरी खपत 9 किलो प्रति व्यक्ति जबकि शहरों में यह खपत 10 किलो प्रति व्यक्ति थी।

भारत में खाद्य श्रृंखलाओं की बढ़ती संख्या के कारण मेरा उपभोग बढ़ा है। करीब 10 लाख किलो का प्रसंस्करण मसलन निर्जलीकरण और अचार में मेरा उपयोग होता है। यह भी तथ्य है कि उत्पादन के बाद मेरा 25 से 30 हिस्सा नष्ट हो जाता है। धूप, भंडारण और बीमारियों के कारण मुख्यत: ऐसा होता है।

वक्त का पहिया कब घूम जाए, कहना मुश्किल है। मैं अक्सर अपने अतीत में खाेया रहता हूं। मेरा सुनहरा अतीत राजनीितक महत्व का था। अभी भले ही मेरे भाव किसानों को रुला रहे हों, लेकिन ऐसा वक्त भी मैंने देखा है जब मेरे चढ़ते दाम ने सरकारों की नींद उड़ा दी थी। दरअसल, दूसरी सब्जियों के दाम में उतार-चढ़ाव को लोग और सरकारें आसानी से पचा लेती हैं लेकिन अगर मेरे दाम बढ़ जाएं तो सरकारें बेचैन हो उठती हैं। सरकार आनन-फानन में मेरे दाम नियंत्रित करने के लिए जरूरी कदम उठाती हैं। कई बार तो मुझे खरीदने की सीमा तक निर्धारित कर दी जाती है।

याद कीजिए 1998 का दौर जब मेरे आसमान छूते दाम ने दिल्ली में बीजेपी की सरकार तक गिरा दी थी। इस साल हुआ परमाणु परीक्षण भी सरकार को मेरे कोप से नहीं बचा पाया था। मेरा कोपभाजन बनने के बाद बीजेपी को अब तक दिल्ली की सत्ता नसीब नहीं हुई है। इसे आप मेरा श्राप भी कह सकते हैं।

1998 में राजस्थान में भी सत्ता का उलटफेर मेरे दाम में हुए इजाफे का परिणाम था। 2010 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को यहां तक कहना पड़ा था कि मेरी बढ़ती कीमतें चिंता का गंभीर विषय है। इन उदाहरणों से साफ है कि मैं केवल किसानों की एक फसल ही नहीं हूं बल्कि राजनीति में ऊंट किस करवट बैठेगा, यह भी काफी हद तक मैं ही तय करता हूं। यानी राजनीतिक गलियारों में मेरा दखल बहुत ज्यादा है।

जरा सोचिए, ऐसा तब है जब मेरे उत्पादक गेहूं और चावल की तरह शक्तिशाली लॉबी में शामिल नहीं है। अगर मुझे उगाने वाले लामबंद हो जाएं तो सरकारों की क्या हालत होगी, यह सोचने वाली बात है।

दरअसल सरकारों के विचलित होने की वजह यह है कि मैं लगभग सभी भारतीयों के भोजन में शामिल हूं, चाहे वह अमीर हों या गरीब। मोरारका फाउंडेशन में कार्यकारी निदेशक मुकेश गुप्ता मेरे सांस्कृतिक महत्व पर रोशनी डालते हुए बताते हैं कि थाली से जब मैं गायब हो जाता हूं तो लोगों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है। उन्हें बुरा लगता है और मेरी कमी अखरती है। मैं लोगों के “फीलगुड फैक्टर” और कल्याण से जुड़ा हुआ हूं।

यही वजह है कि मेरे दाम में बढ़ोतरी समाज के सभी वर्गों को प्रभावित करती है। सरकार समाज के सभी वर्गों का गुस्से से इतनी भयभीत हो जाती है कि मेरे दाम नियंत्रित करने के लिए तत्काल कदम उठाती है। विदेशों से मुझे आयात किया जाता है। यहां तक कि दुश्मन समझे जाने वाले पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान से भी मेरी बड़ी खेप मंगा ली जाती है।

वहीं दूसरी तरफ सरकार द्वारा निर्यात पर रोक लगा दी जाती है और मेरे जमाखोरों के खिलाफ छोपेमारी जैसी कार्रवाईयां की जाती हैं, ताकि बाजार में मेरी आवक बढ़ जाए और दाम नियंत्रण से बाहर न हों। इसके अलावा सरकार के पास कोई अन्य ठोस नीति नहीं है।

मध्य प्रदेश में सक्रिय किसान नेता त्रिलोक गोठी किसानों की दुविधा का जिक्र करते हुए बताते हैं कि किसान जिस वक्त मेरी उपज लगाता है, उस वक्त भाव ठीक रहते हैं लेकिन उपज के तैयार होने और मंडी पहुंचने पर भाव एकदम गिर जाते हैं। अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए गोठी बताते हैं कि जब मैं 1995-96 पढ़ता था तो शिक्षक बताते थे कि मुझे सबसे ज्यादा निर्यात किया जाता था और सरकारी राजस्व में मेरा बड़ा योगदान था। लेकिन अब स्थितियां उलट गई हैं।

मेरे निर्यात में भारी शुल्क लगा दिया जाता है। इससे देश के किसान अच्छे दाम से वंचित रह जाते हैं। वह बताते हैं कि सरकारी आंकड़ों में फसलों का जो रिकॉर्ड है, वह कई विसंगतियों से भरा है। गिरदावली का सही रिकॉर्ड न होने के कारण फसलों का सही मूल्यांकन नहीं हो पाता। सरकारी कर्मचारी मौके पर न जाकर अंदाजे से फसलों का रिकॉर्ड दर्ज कर लेते हैं। इससे वास्तविक उत्पादन की जानकारी सरकार तक नहीं पहुंच पाती।

मुकेश गुप्ता बताते हैं कि भारत समेत पूरी दुनिया में मध्यम वर्ग उपभोक्ता है और राजनीतिक रूप से शक्तिशाली वर्ग है। सरकार को इसी वर्ग से राजस्व भी मिलता है। इसीलिए नीतियां इस वर्ग को ध्यान में रखकर ही बनाई जाती हैं। जब यह वर्ग मेरे महंगा होने से प्रभावित होता है तो सरकार त्वरित कार्रवाई करती है। सरकारी नीतियों में किसान को जगह ही नहीं मिली है क्योंकि वह न तो मध्यम वर्ग जितना शक्तिवाली और न ही उसका राजनीति में प्रभावकारी हस्तक्षेप है। वह बताते हैं कि अर्थव्यवस्था मध्यम वर्ग के लिए होती है। गरीब को बस पेट भरा रहे, सरकार के लिए इतना ही काफी है।

अब मैं आम सब्जियों की तरह हो गया हूं। मेरी खेती में लगे किसानों को उस काम के लिए दंड दिया जा रहा है जिसके लिए वे जाने जाते हैं। किसान नेता लीलाधर सिंह बताते हैं कि इसका बड़ा कारण है मेरा अत्यधिक उत्पादन है। इसकी पुष्टि कृषि मंत्रालय के आंकड़े भी करते हैं। मंत्रालय के अनुसार, 1978-89 में मेरा प्रति हेक्टेयर उत्पादन 10.4 मीट्रिक टन था। 2017-18 में यह और बढ़ कर 17.9 मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर पहुंच गया। मैं यह देखकर हैरान होता हूं कि अधिक उत्पादन के बाद भी किसानों को उचित मूल्य नहीं मिल रहा है।

खासकर तब जब मैं आपके घर से बहुत दूर नहीं होता। दिल्ली के फुटकर बाजार में अब भी मेरा भाव 35-40 रुपए प्रति किलो है लेकिन किसानों को महज 1 रुपए ही नसीब हुए हैं। लीलाधर कहते हैं कि इसका कारण मेरा कृत्रिम अभाव है। उपज तैयार होने पर किसान मंडी में मुझे सस्ते में बेच आते हैं और बिचौलिए मेरा भंडारण करके कृत्रिम अभाव पैदा कर देते हैं। इससे मेरा भाव बढ़ जाता है और बिचौलियों का फायदा भी।

इसी कृत्रिम अभाव के बीच बिचौलिए मुझे सीमित मात्रा में निकाल निकालकर मोटा मुनाफा कमाते हैं। ये बिचौलिए सीमित मात्रा में मेरी आपूर्ति करते हैं ताकि कीमत बहुत ज्यादा न गिरे। इस तरह बंपर उत्पादन का जो फायदा उपभोक्ताओं और किसानों को मिलना चाहिए, वह बिचौलियों को मिलता है।

इन बिचौलियों के पास भंडारण और यातायात के तमाम संसाधन मौजूद होते हैं और उन्हें बाजार व मांग की पर्याप्त जानकारी होती है। उनका कहना है कि महाराष्ट्र में सरकार दिखावे के लिए मेरा भंडारण करने वाले बड़े व्यापारियों के ठिकानों पर छापे मार रही है लेकिन यह छापे दिखावे के सिवा कुछ नहीं है। अगर ये छापे ईमानदारी से हों और सरकार की नीयत साफ हो तो व्यापारियों में इतनी हिम्मत नहीं है वे मेरा भंडारण कर सकें और उपभोक्ताओं और किसानों का हक मार सकें। भ्रष्टाचार और सरकारी तंत्र की मिलीभगत से ही मेरा कृत्रिम अभाव पैदा किया जाता है।

लेकिन जैसा दिखता है, वैसा है नहीं। मेरे अस्तित्व की तरह मेरा व्यापार भी बहुत हद तक अलग है। बाजार के तमाम नियम मेरे आगे बौने साबित होते हैं। 2012 में मैं पहली ऐसी दुर्लभ सब्जी बनी जिसकी पड़ताल भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग (सीसीआई) ने की। सीसीआई मानता है कि प्रतिस्पर्धा के जरिए ही आम आदमी को वस्तुएं और सेवाएं बेहतर मूल्य पर मिल पाती हैं। सीसीआई ने मेरा अध्ययन यह पता लगाने के लिए किया कि आखिर उत्पादन और रकबा बढ़ने के बावजूद मेरा दाम क्यों बढ़ जाता है। यही वजह है कि मैं बाजार के नियमों को नए सिरे से परिभाषित करता हूं।

कर्नाटक और महाराष्ट्र के प्रमुख बाजारों का अध्ययन करने के बाद सीसीआई के शोधकर्ताओं ने पाया कि उत्पादन, आवक और मेरे भाव के बीच कोई संबंध नहीं है। उन्होंने पाया कि कुछ महीनों में मेरी आवक सर्वाधिक होने के बाद भी मेरे भाव अधिकतम होते हैं। नीति निर्माताओं के लिए यह सिरदर्दी वाली बात है जिसे सीसीआई पैराडॉक्सीकल कहता है। मैं अपने व्यापारियों से पीड़ित हूं जो हमेशा ज्यादा मुनाफे की जुगत में रहते हैं। मेरे किसानों को इससे नुकसान और उपभोक्ताओं पर अधिक भार पड़ता है।

मेरे उत्पादक छोटी जोत वाले हैं, इसलिए वे मुझे कम जमीन पर उपजाते हैं। जलवायु परिवर्तन, अप्रत्याशित मौसम के इस दौर में अक्सर मुझे नुकसान पहुंचता है। यही वजह है कि मुझे उपजाने वाले अधिक समय तक मेरा भंडारण नहीं कर सकते और बाजार में ऊंचे दाम का इंतजार नहीं कर सकते। अत: मेरे उत्पादक इस स्थिति में नहीं हैं कि बाजार के भाव को प्रभावित कर पाएं।

रितिका बोहरा / सीएसई

भारत के अलग-अलग बाजारों में मेरी जरूरत अलग हैं। पूर्वी भारत में मेरी छोटी किस्म को प्राथमिकता मिलती है जबकि उत्तर और पश्चिमी भारत के बाजारों में मेरी बड़ी किस्म को प्राथमिकता दी जाती है। मेरे व्यापारी किसानों से खरीदकर मेरा भंडारण कर लेते हैं और विभिन्न बाजारों की प्राथमिकता के आधार पर मेरा चयन करते हैं। मेरे अधिकांश उत्पादक बाजारों में प्राथमिकताओं से अनभिज्ञ होते हैं, इसलिए मुनाफे से वंचित रह जाते हैं।

विभिन्न भौगोलिक कारणों से मेरा उत्पादन क्षेत्र छोटे-छोटे हिस्सों में बंटा हुआ है। दिल्ली या बेंगलुरू जैसे दूरदराज के बाजार के लिए ये क्षेत्र अल्प अवधि के लिए सक्रिय होते हैं। सक्रिय अवधि 15 दिन या एक महीने की होती है। इस वजह से व्यापारी मेरा भाव नियंत्रित करते हैं। जिस वक्त मैं अपनी इस आत्मकथा को लिख रहा हूं, उस वक्त मेरे उत्पादकों को मध्य प्रदेश में दो रुपए प्रति किलो मेरी उपज का मूल्य मिला लेकिन भोपाल में मुझे 35 रुपए प्रति किलो के भाव से बेचा जा रहा था।

पंजाब कृषि विश्वविद्यालय में मेरे ब्रीडर अजेमर सिंह का मानना है कि बंपर उत्पादन को भाव गिरने की वजह बताना गलत है। उनका मानना है कि मेरा भाव बाजार के कुप्रबंधन के चलते गिरता और चढ़ता है। व्यापारी और बिचौलिए बाजार में मेरी कमी की अफवाह फैला देते हैं जिससे मेरे भाव बढ़ जाते हैं।

अब तो मेरे छोटे भाई लहसुन की खेती करने वाले किसानों की भी आत्महत्या की खबरें आ रही हैं। राजस्थान से कभी आत्महत्या तो कहीं अवसाद से लहसुन किसानों की मौत की सूचनाएं हैं। राज्य का हडौती संभाग किसानों की कब्रगाह बन रहा है। अत्यधिक उत्पादन का खरीदार नहीं मिल रहा है। मंडी में जो भाव मिल रहा है उससे लागत तक नहीं निकल रही। तिस पर सरकार ने कह दिया जो वह 25 एमएम आकार के ही लहसुन खरीदेगी। इससे किसानों में निराशा और बढ़ गई।

खबरों के अनुसार, राज्य में 2 से 3 रुपए प्रति किलो लहसुन बेचने को किसान मजबूर हुए हैं। भगवान मीणा बताते हैं कि मध्य प्रदेश के इंदौर में लहसुन 100 रुपए प्रति क्विंटल यानी एक रुपए प्रति किलो के भाव से खरीदा गया। उनके अनुसार, लहसुन का घोषित मूल्य 3200 रुपए प्रति क्विंटल था लेकिन भावांतर भुगतान योजना के तहत इसकी 8-10 रुपए प्रति किलो के हिसाब से खरीद हुई। मुकेश गुप्ता बताते हैं कि हाइब्रिड तकनीक से लहसुन का उत्पादन बढ़ा है, इसलिए भी यह समस्या देखने को मिल रही है।

अखिल भारतीय किसान समन्वय समिति के अध्यक्ष विजय जवांधिया मेरे किसानों के मौजूदा संकट के पीछे बंपर उत्पादन और निर्यात न होने से जोड़ते हुए बताते हैं कि अब ज्यादातर राज्य मेरी पैदावार करने लगे हैं। तमाम राज्यों से साल के अधिकांश महीनों में मेरी आवक बनी रहती है, इसलिए भाव गिरे रहते हैं। उनका कहना है कि सरकार ने मेरे निर्यात पर पाबंदी हटा दी है लेकिन अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी मेरे भाव गिर रहे हैं। इसलिए निर्यात में दिक्कतें हो रही हैं। वह बताते हैं कि सरकार उत्पादन बढ़ाने के लिए तो नीतियां बनाती है लेकिन उसे खपाने की सरकार के पास कोई योजना नहीं है।

सरकार का ध्यान मेरे किसानों पर इसलिए भी नहीं है क्योंकि उनकी आबादी बहुत कम (करीब 7 प्रतिशत) है। इनमें भी करीब 3 प्रतिशत मतदाता हैं। इतनी कम आबादी के लिए वह मध्यम वर्ग या कहें उपभोक्ता वर्ग को नाराज नहीं करना चाहती। इसीलिए मेरे बढ़ते दाम उसे बेचैन तो कर देते हैं लेकिन जब मेरे दाम गिरते हैं और यह 7 प्रतिशत की आबादी प्रभावित होने लगती है तो सरकार ध्यान नहीं देती। उपभोक्ता वर्ग की ताकत ज्यादा है जबकि किसान बंटा हुआ है। मुझे उगाने वाले किसानों से धान या गेहूं उगाने वाले किसानों को सरोकार नहीं है। मुझे उपजाने वाले किसानों की तकलीफ उन्हीं तक सीमित होकर रह जाती है।

क्या मेरे किसानों की यही नियति है? जानकार बताते हैं कि स्थिति में सुधार सरकारी प्रयास से ही हो सकता है जिसकी उम्मीद कम है। अजमेर सिंह के अनुसार, मुझ जैसी जरूरी उपज को पूरी तरह से बाजार के हवाले करना सबसे बड़ी भूल है। इसके बाजार और खरीद पर सरकारी हस्तक्षेप बहुत जरूरी है। इसी से मेरे किसान शोषण से बच पाएंगे और उन्हें उत्पाद का न्यूनतम दाम नसीब होगा। उनका कहना है जिस तरह गेहूं, चावल और दलहन का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित है, उसी तरह साग सब्जियों को भी इसके दायरे में लाना चाहिए।

मुकेश गुप्ता मुझे एमएसपी के दायरे में लाने की वकालत तो करते हैं लेकिन उन्हें यह भी लगता है कि इससे सरकार पर भार बहुत बढ़ जाएगा। सरकार इस स्थिति में नहीं है कि इतनी मात्रा में मुझे खरीदकर भंडारण कर सके। लीलाधर सिंह के अनुसार, किसानों को तत्कालिक नहीं दीर्घकालिक उपाय की जरूरत है। सरकार की तरफ से किसानों को निश्चित आय की गारंटी मिलनी चाहिए।

अभी उन्हें कर्जदार बनाकर एकदम उल्टा काम किया जा रहा है। राहुल राज एक बार संपूर्ण कर्जमाफी की जरूरत बताते हैं। उनका कहना है कि एक बार किसानों को कर्जमुक्त करने के बाद ठोस नीति बनाकर उस पर अमल जरूरी है, तभी मेरे किसानों का कुछ भला हो पाएगा अन्यथा हालात और खराब ही जाएंगे।

वर्धा में रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता जयकृष्णा मोरेश्वर उर्फ बाबूजी बताते हैं कि मेरी बढ़ती कीमत सरकार गिरा सकती है तो गिरते दाम सरकार गिराने की कूवत भी रखते हैं। किसानों की हालत इतनी खराब है कि उनका जिंदा होना ही अचरज से कम नहीं है। लेकिन यह भी सच है कि जिंदा रहने के लिए संघर्ष कर रहे लोग जब ताकत और एकजुटता दिखाते हैं तब इतिहास बनता है। क्या वह दौर आने वाला है? मुझे उसी पल का इंतजार है।