बुंदेलखंड के छतरपुर जिले की जल सहेलियों ने अपने गांवों को जल संकट से उबारने में अकल्पनीय काम करके दिखाए हैं, चाहे वह पहाड़ को काटना हो या मृतप्राय नदी को जिंदा करना,छतरपुर के अगरौठा गांव में 107 मीटर पहाड़ काटकर पानी तालाब में पहुंचाया गया। 25 जुलाई 2024 तक महज दो बरसात में ही तालाब काफी भर चुका था
भेल्दा ग्राम पंचायत में 25 जुलाई की सुबह बादल छाए हुए हैं और बारिश किसी भी वक्त आ सकती है। आसपास के गांवों में सुबह जोरदार बारिश हुई है। बारिश की संभावना के बीच गांव में एक दिन पहले ही सूचना मिली है कि आज 20 सदस्यीय पानी पंचायत समिति की बैठक है। समिति बारिश की बूंद-बूंद सहेजना चाहती है, इसी उद्देश्य से अचानक बैठक का निर्णय हुआ है। आम पंचायत से अलग इस पानी पंचायत समिति का गठन जल संकट के स्थायी समाधान के लिए हुआ है। इसके सदस्यों में मुख्यत: वे महिलाएं हैं जो गांव को पानीदार बनाने की पहल में स्वेच्छा से जुड़ती हैं। समिति में सबसे सक्रिय सदस्य को जल सहेली के रूप मंे चुना जाता है जो जल संरक्षण के काम का नेतृत्व करती हैं। समिति पानी के स्थानीय मुद्दों के समाधान के लिए नियमित बैठकें करती है।
भेल्दा की एक ऐसी ही बैठक में सुबह-सुबह घर का सारा काम निपटाने के बाद पानी पंचायत के सदस्य 11 बजे आंगनवाड़ी केंद्र में जुटने लगे। इनमें से कुछ के हाथों में ढोल, मंजीरे और चिमटे थे। महिलाओं ने जब पारंपरिक वाद्य यंत्रों को बजाना और बुंदेली बोली में लोकगीतों का गायन शुरू किया तो लोगों तक यह संदेश पहुंचने में देर न लगी कि बैठक शुरू हो चुकी है। लोकगीत सुनकर जल्दी बैठक में पहुंचने की कोशिश में कुछ लोग नंगे पैर ही दौड़कर मौके पर पहुंच गए। महिलाओं के लोकगीत पानी बचाने और उसकी बर्बादी रोकने का संदेश दे रहे थे। जैसे एक लोकगीत के बोल थे, “आग लग जाए ऐसी जिंदगानी में, कूड़ा-कचरा न डारो पानी में…”
करीब 30 मिनट के बाद समिति की अध्यक्ष पप्पी बाई अहिरवार ने बोलना शुरू किया और चार अहम एजेंडे पंचायत के समक्ष रखे। पप्पी बाई पढ़ी-लिखी नहीं हैं लेकिन पानी के महत्व को बखूबी समझती हैं, इसीलिए बैठक का पहला एजेंडा वर्षा जल संचयन को लेकर था। बैठक में निर्णय लिया गया कि सभी सदस्य वर्षा जल का संचयन करने के लिए अपने घर के बाहर सोख्ता गड्ढा बनाएंगे। दूसरे निर्णय में तय हुआ कि सभी लोग पांच-पांच फलदार व छायादार पेड़ लगाकर उसकी सुरक्षा करेंगे। तीसरे निर्णय में इस बात पर सर्वसम्मति बनी कि सभी लोग बर्तन धोने, नहाने और कपड़े धोने के पानी का उपयोग किचन गार्डन में करेंगे। चौथा और अंतिम निर्णय गांव की बायछे तलैया में मछली के बीज छोड़ने का था जिससे पानी पंचायत के सदस्यों की आय बढ़े। पानी पंचायत की इस बैठक के ठीक तीन दिन बाद उसी ग्राम पंचायत (भेल्दा) के अगरौठा गांव में भी बैठक बुलाई गई और तय हुआ कि गांव की महिलाओं को वनों की सुरक्षा के लिए वन समिति से जोड़ा जाना चाहिए। बैठक के चंद दिनों बाद महिलाओं का समूह इसी मांग के आवेदन पत्र के साथ छत्तरपुर में वन मंडलाधिकारी के कार्यालय पहुंचा और आवेदन पत्र दिया।
भेल्दा ग्राम पंचायत बुंदेलखंड क्षेत्र में मध्य प्रदेश के हिस्से में आने वाले छतरपुर जिले के बड़ा मलहरा ब्लॉक में स्थित है। सूखे और जल संकट के लिए कुख्यात बुंदेलखंड के अन्य गांवों की तरह भेल्दा और अगरौठा भी 2018 तक इस संकट से अछूते नहीं थे। अगरौठा की पानी पंचायत की सदस्य किरन आज भी वह दिन याद करके गुस्से से भर उठती हैं, जब ऊंची जाति के लोग अपने घर के पास लगे एकमात्र चालू हैंडपंप से दलितों को पानी नहीं भरने देते थे। वह बड़े संकोच के साथ अपनी पीड़ा जाहिर करते हुए कहती हैं, “2018 में हमारे बर्तन फेंके गए थे। दिन में अक्सर लड़ाई के डर से हम रात को पानी भरने पहुंचते थे।” पानी को लेकर इस तरह के जातीय भेदभाव की जानकारी प्रशासन तक पहुंची तो दलितों के लिए टैंकर की व्यवस्था की गई। किरन कहती हैं, “अगड़ी जाति के कुछ लोगों को यह पसंद नहीं आया। उन्होंने हमारे टैंकर में गोबर घोल दिया, ताकि हम पानी का उपयोग न कर पाएं।”
पठारी क्षेत्र होने के कारण इस ग्राम पंचायत में अचानक और तेजी से साथ बरसा पानी पूरा बहकर निकल जाता है। पानी का ठहराव न होने से भूजल के स्रोतों जैसे हैंडपंपों और कुओं का गर्मियों में सूखना आम था। किसान केवल खरीफ की फसल ले पाते थे। पानी की कमी ने उन्हें रबी की फसल से दूर कर दिया था। ग्रामीणों के मुताबिक, साल 2000 के बाद पानी का संकट काफी बढ़ गया था। मुख्य रूप से खेती पर निर्भर यहां की आबादी कम बारिश, सूखा और खेती से सीमित आय में गुजर-बसर न कर पाने के कारण दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में पलायन के लिए मजबूर थी। पानी संकट को देखते हुए ही सरकार ने बुंदेलखंड पैकेज से एक विशाल तालाब अगरौठा में बनवाया था और सिंचाई के लिए इससे नहर भी निकाली गई थी लेकिन इससे खास फायदा नहीं हुआ, क्योंकि तालाब बरसात में भी नहीं भरता था।
किरन और गांव की अन्य महिलाएं जिन्हें 1-2 किलोमीटर दूर से पानी ढोना पड़ता था, यह बात अच्छी तरह जानती थीं कि गांव की बदहाली का सूखे तालाब से सीधा संबंध है और अगर इसमें पानी भर जाए तो यह बदहाली दूर हो सकती है। इन महिलाओं ने पानी पंचायत समिति का गठन किया और समिति में सबसे सक्रिय महिलाओं को जल सहेली के रूप में चुना गया। किरन भी उनमें शामिल थीं। अगरौठा की पानी पंचायत की बैठकों में महिलाओं ने सोचा कि अगर पहाड़ के एक हिस्से को काटकर जंगल से पानी पहुंचने का रास्ता बना दिया जाए तो हमेशा सूखा रहने वाला 70 एकड़ का तालाब भर सकता है और जल संकट दूर हो सकता है।
मई 2020 में अगरौठा की पानी पंचायत की बैठक में तय हुआ कि पहाड़ काटकर पानी का रास्ता बनाया जाएगा। लेकिन इस काम में एक बड़ी अड़चन यह थी कि पहाड़ वन विभाग के अधीन था और इसके लिए विभाग की अनुमति जरूरी थी। अनुमति के लिए महिलाओं का समूह जिला वन अधिकारी से मिला और पानी पंचायत में पहाड़ काटने के अपने निर्णय से अवगत कराया तो वह इस शर्त पर राजी हुए कि इस काम में मशीनों का उपयोग न हो।
वन विभाग की सशर्त अनुमति के बाद अगरौठा की महिलाओं ने जून 2018 में गांव और पड़ोसी गांव भेल्दा की महिलाओं को एकजुट किया और फावड़े, कुदाल, सब्बल, हथौड़े और गैंती जैसे औजारों से पहाड़ खोदने का काम शुरू हुआ। करीब 18 महीने चले इस काम में ग्राम पंचायत की करीब 300 महिलाएं जुटी रहीं और 2021 के अंत तक 107 मीटर लंबा, करीब 12 फीट गहरा और चौड़ा पहाड़ चीरने में उन्हें कामयाबी मिल गई। इसका सुखद नतीजा 2022 के मॉनसून में दिखा जब गांव का तालाब लबालब भर गया। ग्रामीणों ने पहली बार गांव के तालाब को इतना भरा हुआ देखा।
इस काम में पूरी लगन से जुटने वाली किरन कहती हैं कि जब हमने पहाड़ खोदकर पानी लाने के पानी पंचायत का निर्णय गांव के लोगों को बताया तो अधिकांश लोगों खासकर पुरुषों द्वारा हमारा मजाक उड़ाया गया। यहां तक कि हमें परिवार का भी सहयोग नहीं मिला। लेकिन जब इस काम में सफलता मिल गई और पहली बार तालाब भरा तो सभी महिलाओं की हिम्मत की दाद देने लगे।
अगरौठा की जल सहेलियों ने जून 2018 में महिलाओं को एकजुट किया और फावड़े, कुदाल, सब्बल, हथौड़े और गैंती जैसे औजारों से पहाड़ खोदने का काम शुरू हुआ। कुल 18 महीने चले इस काम में ग्राम पंचायत की करीब 300 महिलाएं जुटींफोटो सौजन्य: परमार्थ समाजसेवी संस्थान
पानी की करामात
तालाब में पानी भरने का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि सूखे पड़े कुएं और हैंडपंप जिंदा हो गए। अगरौठा गांव के 50 वर्षीय किसान प्रेम लाल लोदी के लिए यह किसी चमत्कार से कम नहीं था। प्रेम लाल के परिवार के हिस्से में 57 एकड़ खेत हैं जिन पर 11 सदस्यों की हकदारी है। अपने धान के खेत में कीटनाशक दवा का छिड़काव कर रहे प्रेम लाल ने डाउन टू अर्थ को बताया कि तालाब में पानी रहने से उनके खेत के पास से गुजर रहे नाले में तालाब से रिसकर पानी आने लगा जिससे पूरे साल पानी की उपलब्धता सुनिश्चित हो गई। नाले के पानी को तीन जगह चेकडैम बनाकर रोकने से भूजल स्तर में भी सुधार हुआ। तालाब से निकलने वाले गांव में ऐसे दो नाले हैं जिन पर जल सहेलियों की पहल से 7 चेकडैम बनाए गए हैं। पानी की इस उपलब्धता ने 200 परिवार वाले गांव में प्रेम लाल जैसे करीब 50 किसानों को साल में तीन फसलें लेने को प्रेरित किया। ये किसान अब गर्मियों में जायद की फसल के रूप में मूंग उगाने लगे हैं। खरीफ में ये किसान मुख्य रूप से धान, तिल, उदड़, मूंगफली जैसी फसलें और रबी में गेहूं, सरसों और चने की फसल उगा रहे हैं। प्रेम लाल ने डाउन टू अर्थ को बताया कि चार साल पहले पूरे खेत से कुल 2-3 लाख रुपए की सालाना आमदनी होती थी, जो अब बढ़कर 9-10 लाख तक पहुंच गई है। वह नि:संकोच बताते हैं कि उनकी आय तीन गुणा से अधिक बढ़ी है। पानी की उपलब्धता का एक परिणाम यह निकला कि गांव से पलायन में कमी आई। खुद प्रेम लाल अपने परिवार का उदाहरण देकर समझाते हैं कि अब केवल तीन से चार महीने ही परिवार के सदस्य काम के लिए बाहर जाते हैं। पहले खरीफ की बुवाई के समय जुलाई में ही परिवार के सदस्य लौटते थे और अक्टूबर-नवंबर में कटाई के तुरंत बाद पलायन कर जाते थे।
गांव के युवा किसान नीलेश राजपूत केवल दो ही बरसात में करीब 40 फीट की गहराई वाले कुएं में करीब 30 फीट भर चुके पानी की तरफ इशारा करते हुए बताते हैं कि चार साल पहले तक इन दिनों इसमें 10 फीट पर पानी रहता था। अब रबी की फसल के लिए दो बार पानी नाले और दो बार की सिंचाई कुएं से हो जाती है। इस तरह पूरे रबी सीजन पानी की उपलब्धता बनी रहती है। उनका यह भी कहना है कि गर्मी के मौसम में जो कुएं पूरी तरह सूख जाते थे, अब उनमें पूरे साल पानी रहने लगा है। नीलेश के खेतों में भी 2020 में नालों में चेकडैम बनने के बाद खेती नियमित रूप से होने लगी है। वह मानते हैं कि खेत को पानी मिलने से उपज में 20-30 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है।
ठीक ऐसी ही लाभ भेल्दा गांव के 55 वर्षीय किसान सत्तू अहिरवार को भी मिले। सत्तू के 10 एकड़ के खेतों से लगी बायछै तलैया का कायाकल्प पानी पंचायत के फैसले बाद 2019 में हुआ था। बारिश का पानी रुकने से खेत में लगा सत्तू का कुआं रिचार्ज होने लगा है। इस वक्त उनका 45 फीट गहरा कुआं आधे से ज्यादा भरा है। तलैया के गहरीकरण और उससे निकली मिट्टी से तटबंध बनाने के बाद वह साल में दो फसलें लेने लगे हैं। डाउन टू अर्थ को अपना कुआं दिखाते हुए वह स्वीकार करते हैं कि पानी की वजह से उनके छोटे भाई और दो भतीजे जो साल में करीब 9 महीने बाहर कमाने जाते थे, अब केवल तीन महीने ही बाहर जाते हैं, वह भी रबी की फसल की बुवाई के बाद। उनका यह भी मानना है कि खेती के साथ पशुपालन को भी इससे काफी मदद मिली है। गांव में भैंसों की संख्या तीन गुणा बढ़कर करीब 150 तक हो गई है। साथ ही बकरियों की संख्या में भी बढ़ोतरी हुई है। अगरौठा की जल सहेली किरन के मुताबिक, उनके तालाब में पानी आने के बाद गांव में भैसों की संख्या बढ़ी हैं। वर्तमान में गांव में करीब 1,000 भैंसें हैं।
कौन हैं जल सहेलियां
बुंदेलखंड के गांवों में जल सहेलियां उन महिलाओं का समूह है जो गांव में पानी से जुड़ी समस्याओं को दूर करने में तत्परता और सक्रियता दिखाती हैं। इनका मुख्य काम पानी का संरक्षण और संचयन, कुओं को गहरा करना, हैंडपंप की मरम्मत, चेकडैम और तालाब जैसी जल संरचनाओं का पुनर्निर्माण, समस्याओं के समाधान के लिए प्रशासनिक अधिकारियों से मिलना और लगातार फॉलोअप करना और समुदाय को जोड़ना है। पूरे बुंदेलखंड में ऐसी 1,000 से अधिक जल सहेलियों का बड़ा नेटवर्क है। परमार्थ समाजसेवी संस्थान द्वारा प्रकाशित पुस्तक “प्रयास : नदी पुनर्जीवन” की मानें तो जल सहेलियों ने पानी पंचायत के माध्यम से न केवल 2,256 हेक्टेयर कृषि भूमि को कुल 10.12 बिलियन लीटर पानी उपलब्ध कराया है बल्कि कृषि पद्धति में बदलाव व स्मार्ट कृषि से कुल 3.22 बिलियन लीटर पानी की बचत भी की है। इनके प्रयासों से 1,195 टन अतिरिक्त कृषि उत्पादन और 8,867 श्रमिक दिवस रोजगार भी सृजित किया गया है।
क्षेत्र में जल सहेली मॉडल को खड़ा करने वाले परमार्थ समाजसेवी संस्थान के प्रमुख संजय सिंह से जब डाउन टू अर्थ ने इनकी उत्पत्ति की कहानी पूछी तो वह 15 साल पहले पहुंच गए। दिमाग पर जरा जोर डालने के बाद संजय ने बताया कि 2002 में बुंदेलखंड में सूखे का चक्र शुरू हुआ और 2015 तक लगातार बना रहा। इन परिस्थितियों से उपजे सूखे और पलायन जैसे हालात के बीच संजय गांव-गांव घूम रहे थे। इसी क्रम में वह ललितपुर जिले के उदवां गांव पहुंचे, जहां एक महिला बहुत बड़बड़ा रही थी। संजय ने उससे कारण पूछा तो उसने कहा, “लूघर हुआ है” यानी आग लगी है। महिला ने यह बात सूखे के कारण पानी न मिलने पर घर में होने वाले झगड़े के कारण कही थी। साथ ही यह भी कहा कि इसमें हमारा क्या दोष है?
संजय सिंह को महिला की इस बात ने सोचने पर मजबूर कर दिया और वह अगले दिन फिर उसके पास गए और उसी से समस्या का समाधान पूछा। इस पर महिला ने बताया, “हैंडपंप, कुआं कहां लगेगा यह पुरुष तय कर रहे हैं, पुरुषों को पीने की पानी की चिंता नहीं है, न ही शौचालय की फिक्र है। पुरुषों ने महिलाओं की नजर से कभी पानी के बारे में नहीं सोचा।” संजय के मुताबिक, महिला ने आगे कहा कि महिलाओं को पानी से संबंधित सभी निर्णय लेने की जिम्मेदारी होनी चाहिए। इसके लिए उनके संगठन की जरूरत है, तभी उनकी दिक्कतें दूर होंगी।
महिला से बात करने के बाद संजय को लगा कि पानी पर महिलाओं का पहला अधिकार होना चाहिए। इसी सोच के साथ उन्होंने जल सहेली कैडर का निर्माण 2011 में शुरू किया। मौजूदा समय में क्षेत्र के 300 से अधिक गांव में उनका कैडर है जो बिना किसी आर्थिक लाभ के अपने गांव को पानीदार बना रही हैं। गरीबी, अभाव और लांछनाओं से गुजरकर भी ये पानी के काम में जुटी हैं। इन्होंने 100 से अधिक गांवों को जल संकट से मुक्त करा दिया है।
काम से पहचान
जल सहेलियों द्वारा किए गए कार्य केवल ग्रामीण स्तर तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि पानी संरक्षण और पर्यावरण की बहाली के लिए इन्होंने नदी को पुनर्जीवित करने जैसे बड़े काम भी सामूहिक प्रयासों से करके दिखाए हैं। भेल्दा और अगरौठा के नजदीक से गुजरने वाली 28 किलोमीटर लंबी बछेड़ी नदी की पुनर्जीवन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। भेल्दा से करीब 4 किलोमीटर आगे देवपुर से निकलने वाली और 12 गांवों से गुजरने वाली यह नदी यमुना की सहायक नदी धसान में झिरिया झोर में मिलती है। अगरौठा का तालाब और उससे निकलने वाले नाले अंत में जाकर इसी नदी में मिलते हैं। ब्लॉक के ऐसे दर्जनों तालाब और नाले नदी के पानी के मुख्य स्रोत हैं।
इस काम के लिए सबसे पहले नदी घाटी संगठन का निर्माण किया जिसमें हर गांव से लोग जोड़े गए। फिर फरवरी 2018 में नदी पर काम शुरू हुआ और मार्च 2023 तक चला। इस दौरान नदी में कुल 7 चेकडैम बने, 5 पुराने चेकडैम की जल सहेलियों द्वारा गाद हटाई गई। इसके अतिरिक्त नदी के नालों पर सरकार के सहयोग और मनरेगा के बजट का इस्तेमाल कर 14 स्थानों पर जल संरचनाओं का निर्माण किया गया जिसमें मुख्य रूप से चेकडैम और स्टॉपडैम बने। जल सहेलियों ने श्रमदान और बोरी बंधान में सबसे अहम भूमिका निभाई। साथ ही 2000 से अधिक पौधरोपण किया गया। इन सबका मिलाजुला नतीजा यह निकला कि 2023 में नदी जिंदा हो गई और अक्सर बरसात के बाद सूख जाने वाली नदी में पूरे साल पानी रुकने लगा। नदी में पानी रुकने से 500 एकड़ से अधिक खेती सिंचित होने लगी।
इसी तरह छतरपुर के राजनगर ब्लॉक के 55 गांवों से गुजरने वाली खूड़र नदी का भी कायाकल्प हुआ। यह नदी हतना, सतना और कुटिया गावों से उदगमित होती है और राजनगर के बेनीगंज, बमनौरा, मऊ मसनिया, धवाड़ से बहते हुए करीब 44 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद धौगुवा गांव में स्थित जलप्रपात के पास केन नदी में मिल जाती है। 2020 तक खूड़र नदी मृतप्राय हो चुकी थी। जल सहेलियों और ग्रामीणों की मदद से नदी की पुनर्जीवित करने की कोशिशों के तहत मऊ मसनिया गांव में तीन फीट चौड़ाई और आठ फीट ऊंचाई के कुल 12 स्टॉपगेट लगवाए गए। पूरी नदी में 10 जगह स्टॉपडैम बनाकर पानी रोका गया है। मऊ मसनिया गांव के पानी पंचायत के सदस्य कीरत सिंह यादव का अनुमान है कि अब नदी से 1,000 एकड़ से अधिक जमीन की सिंचाई हो रही है। कुछ किसान चार किलोमीटर दूर तक पंप की मदद से पानी ले जा रहे हैं। उनका कहना है कि साल 2,000 तक नदी की हालत ठीक थी लेकिन अवैध खनन से नदी मृतप्राय हो गई। नदी के सूखने के साथ ही गांव में हैंडपंप और कुएं सूख गए थे और जलसंकट इस हद तक बढ़ गया कि ग्रामीण पानी के टैंकर पर निर्भर हो गए। गर्मियों में रोज 5-10 टैंकरों से आपूर्ति होने लगी थी। कीरत सिंह के परिवार के पास नदी के किनारे 4 हेक्टेयर खेत हैं। पहले कम उपज देने वाले खेत पानी मिलने से अधिक पैदावार देने लगे हैं। उनके खेतों की उपज में करीब दोगुना अंतर आया है। प्रति एकड़ खेत जो पहले 7-8 क्विंटल अनाज पैदा करते थे, अब 13-14 क्विंटल तक उपज देने लगे हैं। नदी के पुनर्जीवन के बाद अपने डेढ़ एकड़ के खेत से 2023 में 27 क्विंटल और 2024 में 22 क्विंटल गेहूं उपज पैदा करने वाले प्रदीप सिंह मानते हैं कि उनके खेतों में 70 से 80 प्रतिशत तक उपज बढ़ी है। ग्रामीणों के अनुसार, मऊ मसनिया में 9 सरकारी हैंडपंप, 3 सरकारी कुएं और घरों और खेतों में करीब 156 निजी कुएं हैं, जिनका जलस्तर बढ़ गया है। इन जल स्रोतों में पूरे साल पानी मिलने लगा है, यहां तक कि भीषण गर्मी में भी।
गांव के हनुमत कुशवाहा ने नदी किनारे स्थित अपने 12 एकड़ खेतों से अपनी आमदनी में तीन गुणा इजाफा कर लिया है। वह अपने 6 एकड़ खेत में सब्जियों की खेती करने लगे हैं और साल में करीब 10 लाख की आय सृजित कर रहे हैं। पानी की बदौलत गांव के हालात बेहतर होने पर छतरपुर जिला मुख्यालय में तीन दशक से रसायन विज्ञान की कोचिंग देने वाले नरेंद्र सिंह गांव लौट आए हैं और सब्जी की खेती की योजना बना रहे हैं। वह बताते हैं कि कोचिंग से उन्हें सालाना करीब पांच लाख रुपए की आय हो रही थी। उन्हें उम्मीद है अपने छह एकड़ के खेत में सब्जी और डेरी फार्मिंग करके उससे अधिक कमा सकते हैं। उनका अंदाजा है कि पानी की उपलब्धता सुनिश्चित होने पर गांव से करीब 80 प्रतिशत पलायन रुक गया है।
मऊ मसनिया में 2021 से पानी संरक्षण को लेकर हुए कामों की बदौलत आज गांव की जल सहेली माया सिंह प्रधान हैं। वह बताती हैं कि पहले गर्मियों में हालात इतने विकट थे कि गांव से करीब आधा किलोमीटर दूर नदी के तल में गड्ढा करके महिलाएं मटमैला पानी ढोने को मजबूर थीं। माया सिंह ने नदी के अलावा अपनी पंचायत में 3 एनीकट, सोकपिट और वृक्षारोपण के काम करवाए हैं। आज यह गांव नालियों, कचरे और ग्रेवाटर से मुक्त हो चुका है। घर का सारा पानी सोकपिट में जाकर भूजल को रिचार्ज करने में मदद करता है।
माया सिंह की तरह रामटौरिया पंचायत के गुंजौरा गांव में रहने वाली बबली आदिवासी जल सहेली के रूप में अपने कार्यों की बदौलत 2 वर्षों से ग्राम प्रधान की भूमिका में आ गई हैं। वह फरवरी 2022 में जल सहेली चुनी गईं थी और जुलाई 2022 में उनका चयन प्रधान के रूप में हो गया। पहले जल सहेली और अब प्रधान के रूप में उन्होंने भूजल रिचार्ज के लिए गांव में 15 जगह नल के पास सोख्ता गड्ढों का निर्माण करवाया है। साथ ही कचरा प्रबंधन के लिए गांव में इसी साल कूड़ाघर का निर्माण भी करवाया है। बबली खुद कच्चे घर में रहती हैं और 2019 में शादी के महज एक साल बाद दिल्ली और आसपास के इलाकों में पलायन के दौरान मजदूरी करने पर मजबूर हो चुकी हैं। वह मानती हैं कि ऐसे हालात की जड़ में पानी का संकट है, इसलिए इसे दूर करने की कोशिशों में दिल-ओ-जान से जुटी हैं।