पपीता एक बहुउद्देशीय फल है, जो सेहत के लिए फायदेमंद होने के साथ-साथ कई औषधीय गुणों से भरपूर होता है. इसका पौधा कम समय में फल धारण करता है और जल्द तैयार होने एवं प्रति इकाई क्षे़त्र से अधिक उपज मिलने के कारण इसकी लोकप्रियता बढती जा रही है. आजकल सभी उष्ण एवं उपोष्ण देशों में इसकी व्यवसायिक खेती होती है. ताजे फलों के अलावा इसके कई प्रसंस्कृत उत्पाद भी बाजार में उपलब्ध है. सौंदर्य प्रसाधनों के निर्माण में भी इसके फल का रस गूदा एवं पपेन फल के छिलके से निकलने वाले दूध जैसे सफेद श्राव से प्राप्त एक प्रकार का एन्जाइम का प्रयोग होता है. पपेन एक प्रोटिएज यानि एक तरह का प्रोटीन है, जो कच्चे फल के गूदे में विद्यमान रहता है. छिलके को खुरचने पर सफेद दूध जैसे श्राव के रूप में बाहर आता है.
इस एन्जाइम की मौजूदगी के कारण कच्चे पपीता के टुकड़ों से मांस जल्द ही मुलायम हो जाता है. पपीता के गूदा में पेक्टीन की मात्रा अधिक होती है, जिससे इसकी जेली अच्छी बनती है. व्यवसायिक दृष्टिकोण से इसकी खेती लाभप्रद है.
पपीता की सफल खेती के लिए आवश्यक है की इसमे लगने वाले रोगों को ठीक से प्रबंधित किया जाए. यदि इसमे लगने वाले प्रमुख रोगों को समय से प्रबंधित नहीं किया गया तो भारी नुक्सान होता है. वैसे तो पपीता में बहुत सारी बीमारिया लगती है, उसी में से एक है जड़ एवं तनों का सड़ना (कालर रॉट) है.
पपीता में जड़ एवं तनों का सड़ना एक प्रमुख बीमारी है. यह रोग पीथियम एफैनिडरमेटम एवं फाइटोफ्थोरा पाल्मीवोरा नामक कवक के कारण होता है. इस रोग में जड़ तना सड़ने से पेड़ सूख जाता है. इसका तने पर प्रथम लक्षण जलीय धब्बे के रूप में होता है जो बाद में बढ़कर तने के चारों तरफ फैल जाता है. पौधे के ऊपर की पत्तियां मुरझाकर पीली पड़ जाती है तथा पेड़ सूखकर गिर जाते हैं और भूमितल जड़ें पूर्ण रूप से सड़-गल जाती हैं. बरसात में जहां जल निकास अच्छा नहीं होता है भूमितल के पास तना का छिलका सड़ जाता है जिसकी वजह से पत्तियां पीली होकर गिर जाती हैं तथा पौधा सूख जाता है और कभी-कभी पौधा भूमि तल से टूट कर गिर जाता है.
पपीता में जमीन की सतह से गलकर (जड़ एवं तनों के सड़ने) गिरने की बीमारी को कैसे करें प्रबंधित?
- पपीता को जल जमाव क्षेत्र में नहीं लगाना चाहिए.
- पपीता के बगीचे में जल निकास का उचित प्रबंध होना चाहिए.
- यदि तने में धब्बे दिखाई देते हैं तो रिडोमिल (मेटालाक्सिल) या मैंकोजेब (2 ग्राम प्रति लीटर पानी में) का घोल बनाकर पौधों के तने के पास की 5 सेंमी गहराई से मिट्टी को हटा कर मिट्टी को अच्छी तरह से अभिसिंचित कर देना चाहिए.
- रोग से ग्रसित पौधों को उखाड़ कर खेत से बाहर करके जमीन में गाड़ दें या जला दें.
- एक प्रतिशत बोर्डो मिश्रण से पौधे के आसपास की मृदा को अच्छी तरह से अभिसिंचित करें. यह कार्य जून-जुलाई में रोग की उग्रता के अनुसार 2-3 बार करें.
- रोपण से पूर्व गड्ढों में ट्राइकोडरमा @1 कि0ग्रा0 प्रति 100 कि0ग्रा0 सड़ी गोबर की खाद या कम्पोस्ट में अच्छी तरह से बहुगुणित करने के उपरान्त प्रति गड्ढा 5-6 कि0ग्रा0 प्रयोग करें, ऐसा करने से रोग की उग्रता में कमी आती है तथा पौधों की बढ़वार अच्छी होती है.
डैम्पिंग ऑफ नामक बीमारी की रोकथाम हेतु प्रयोग किये गये उपायों को भी ध्यान में रखना चाहिए.
- इससे बचाव के लिए नर्सरी की मिट्टी को बोने से पहले फारमेल्डिहाइड से 5 प्रतिशत घोल से उपचारित कर पालिथिन से 48 घंटों तक ढक देना चाहिए. यह कार्य नर्सरी लगाने के 15 दिन पूर्व कर लेना चाहिए.
- बीज को थीरम, केप्टान (2 ग्राम प्रति 10 ग्राम बीज) या ट्राइकोडरमा (5 ग्राम प्रति 10 ग्राम बीज) से उपचारित कर बोना चाहिए.
- पौधशाला में इस रोग से बचाव के लिए रिडोमिल (मेटालाक्सिल) एम-जेड-78 (2 ग्राम प्रति लीटर पानी में) का छिड़काव एक सप्ताह के अन्तराल पर बार करना चाहिए.
- नर्सरी को प्लास्टिक से बरसात में ढ़क कर रखना चाहिए और नर्सरी का स्थान बदलते रहना चाहिए.
- इस रोग की उग्रता बढ़ाने वाले उपरोक्त कारणों को इस प्रकार से प्रबन्धित करें कि वह नर्सरी में पौधों के लिए उपयुक्त हो तथा बीमारी को बढ़ाने में सहायक न हो.