तैरते खेत:भूमिहीन समुदायों की आजीविका के लिए जलमग्न भूमि का उपयोग

0
20

डॉ. प्रविण रंगराव पाटील

नदी मार्ग में गाद का जमाव जल निकासी को अवरुद्ध करता है, जिससे स्थायी जल भराव की समस्या (4000 हेक्टेयर/प्रति वर्ष) लगातार बढ़ रही है। विशेषज्ञों के मुताबिक पानी के साथ जीने के अलावा अन्य विकल्प नहीं है। अतः बांग्लादेश के दक्षिण मध्य जिलोंः बरिशाल, गोपालगंज, मदारीपुर, सतखीरा और पिरोजपुर के किसानों ने, अपने पुरखों से विरासत में मिली सदियों पुरानी, मृदा-रहित, स्थिर, उथले पानी पर तैरती खेती/कृषि (फ्लोटिंग एग्रीकल्चर), की बाढ अनुकूलित ऐतिहासिक प्रणाली को पुनर्जीवित किया है, जो कि इसी आर्द्रभूमि इलाके में लगभग 250 साल पहले विकसित हुई थी। इन तैरते खेतों की जरूरत अब लगभग पूरे साल ही रहती है। तैरती क्यारियों के रूप में प्राप्त 40% अतिरिक्त कृषि योग्य भूमि, भूमिहीन किसान के लिए आय के अवसर पैदा करती है। संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार, इस पारंपरिक कृषि तकनीक पर भरोसा कर बांग्लादेशी किसान तैरती क्यारी के प्रति 100 वर्ग मीटर से S (डॉलर) 40/₹3280 का औसत लाभ कमाते हैं।

बदलती “वैश्विक जलवायु” का प्रतिकूल प्रभाव हमारे जन-जीवन, पर्यावरण और कृषि व्यवसाय पर “जलवायु संकट” यानी घातक प्राकृतिक आपदाओं (तूफान, भारी वर्षा व हिमपात, बाढ़, सूखा और हिमस्खलन आदि) की बढ़ती आवृत्ति एवं तीव्रता के रुप में स्पष्ट दिखाई दे रहा है। बाढ़ का मुख्य कारण, वैश्विक ऊष्मन है, जिससे गर्म हवा, अधिक जल वाष्प धारण कर सकती है। परिणामस्वरूप कम समय में भारी वर्षा हो रही है, जिससे मृदा क्षरण व नदियों के मार्ग परिवर्तन के कारण जल निकासी अवरुद्ध हो रही है। साथ ही ध्रुवीय हिमखंड एवं हिमनदों के पिघलने से बनी झील के फटने से नदियों में उत्पन्न प्रचंड बहाव / बाढ़ के कारण महासागरों के जलस्तर में वृद्धि होती है, जिससे तटवर्ती इलाकों में भी बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है। यदि महासागरों का जलस्तर वैज्ञानिकों की चेतावनी के अनुरूप बढ़ता है तो. वर्ष 2030 तक तटवर्ती क्षेत्र में रहने वाले लोग गंभीर आपदा का शिकार होंगे। गंगा-ब्रह्मपुत्र नदियों के जलोढ़ मैदानों में हम बाढ़ का निरन्तर गंभीर रूप देख रहे हैं। भारत एवं अन्य पड़ोसी देश सर्दी, गर्मी, बारिश के साथ ही बाढ़ आपदा का भी सामना कर रहे हैं। कई समतल इलाके जहाँ केवल 4 से 5 महीने तक ही बाढ़ की समस्या रहती थी, अब 8 से 12 महीनों तक जलमग्न रहते हैं। साथ ही समुद्री जल की घुसपैठ, तटीय कृषि भूमि को अनुपयोगी बना रही है। जल भराव के साथ ही जल धाराओं एवं मृदा की उच्च लवणता फसलों को नष्ट कर रही है। लगातार घटते कृषि क्षेत्र तथा अपवाह एवं मृदा क्षरण से पोषक तत्वों व कार्बनिक पदार्थों की हानि के परिणामस्वरूप फसल उत्पादन कम होने के कारण, कई किसान परंपरागत कृषि व्यवसाय त्याग चुके हैं, और आजीविका के अन्य विकल्पों की तलाश में उन्हें विस्थापित होना पड़ रहा है। दुनिया भर में अधिकांश शरणार्थी अपने ही देशों में आंतरिक रूप से विस्थापित हैं। यह परिदृश्य भविष्य में मानव समाज में बेरोज़गारी, पलायन, सामाजिक पतन और बीमारियों की सबसे बड़ी लहर पैदा कर सकता है। भूगर्भीय बदलावों के कारण भूमि धँस रही है और अवसादन में वृद्धि होने के कारण बांधों की भंडारण क्षमता प्रति वर्ष कम हो रही है। अतः जलवायु परिवर्तन के इन अप्रत्याशित घातक प्रभावों से निपटने के उपाय खोजने की माँग सभी स्तरों पर हो रही हैं।

पुनर्जीवित होती ऐतिहासिक तैरती कृषि प्रणाली

पड़ोसी देश बांग्लादेश, को अत्यधिक जलवायु-संवेदनशील देशों में गिना जाता है। उच्चतम “आर्द्रभूमि एवं कुल भूमि” अनुपात वाले बांग्लादेश में नदी तटीय आर्द्रभूमि को स्थायी कृषि में तबदील करने एवं बाढ़ को नियंत्रित करके खाद्य उत्पादन बढ़ाने के लिए अपनायी गयी कठोर तटीय जल विनियमन / तटबंध परियोजनाओं (सीईपी) ने न केवल कृषि पारिस्थितिकी प्रणाली की अनदेखी की है, वरन् पारिस्थितिक रूप से जटिल और अत्यधिक उत्पादक तटीय आर्द्रभूमि पारिस्थितिकी तंत्र और अर्थव्यवस्था को भी बाधित किया है। प्राप्त स्थायी कृषि भूमि नदियों से अलग होने के कारण अब इस भूमि पर गाद जमा नहीं होता है। नदी मार्ग में गाद का जमाव जल निकासी को अवरुद्ध करता है, जिससे स्थायी जल भराव की समस्या (4000 हेक्टेयर/प्रति वर्ष) लगातार बढ़ रही है। विशेषज्ञों के मुताबिक पानी के साथ जीने के अलावा अन्य विकल्प नहीं है। अतः बांग्लादेश के दक्षिण मध्य जिलोंः बरिशाल, गोपालगंज, मदारीपुर, सतखीरा और पिरोजपुर के किसानों ने, अपने पुरखों से विरासत में मिली सदियों पुरानी, मृदा-रहित, स्थिर, उथले पानी पर तैरती खेती/कृषि (फ्लोटिंग एग्रीकल्चर), की बाढ अनुकूलित ऐतिहासिक प्रणाली को पुनर्जीवित किया है, जो कि इसी आर्द्रभूमि इलाके में लगभग 250 साल पहले विकसित हुई थी। इन तैरते खेतों की जरूरत अब लगभग पूरे साल ही रहती है। तैरती क्यारियों के रूप में प्राप्त 40% अतिरिक्त कृषि योग्य भूमि, भूमिहीन किसान के लिए आय के अवसर पैदा करती है। संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार, इस पारंपरिक कृषि तकनीक पर भरोसा कर बांग्लादेशी किसान तैरती क्यारी के प्रति 100 वर्ग मीटर से S (डॉलर) 40/₹3280 का औसत लाभ कमाते हैं। यदि इस पर विलुप्त होती पारंपरिक किस्में उगाई जाए तो, यह तकनीक कृषि जैव विविधता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण योगदान दे सकती है। इस प्रकार की जलीय खेती, कश्मीर की “डल” झील और म्यांमार की “इन्ले” झील में भी की जाती हैं। ये ऐसे परिदृश्य हैं जो, कृषि जैव-विविधता, लचीला पारिस्थितिक तंत्र, सांस्कृतिक विरासत और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को जोड़ते हैं। बाढ़ के समय लोग अपने पालतू जानवरों / पक्षियों और सामान के साथ इन तैरते खेतों पर कई दिनों तक शरण लेते हैं, जिससे इस तकनीक के लाभ दोगुने हो जाते हैं। पारिस्थितिक रूप से सुदृढ़ यह वैकल्पिक खाद्य उत्पादन प्रणाली बाढ़ प्रवण व आर्द्रभूमि क्षेत्रों में जलीय कृषि की सर्वोत्तम तकनीकों में से एक है, जो “जलवायु हस्ती” के रूप में लोकप्रिय हो रही है। तैरती कृषि को दिसंबर 2015 में एफएओ द्वारा “विश्व स्तरीय महत्वपूर्ण कृषि विरासत प्रणाली” के रूप में मान्यता दे दी गई हैं। वर्ष 2014 में जलवायु परिवर्तन से संबंधित अंतर सरकारी पैनल की पांचवीं आकलन रिपोर्ट में तैरती कृषि पर विस्तृत चर्चा की गई है। संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन की प्रौद्योगिकी कार्यकारी समिति द्वारा एक अनुकूलन प्रौद्योगिकी के रूप में तैरती कृषि को चिह्नित किया गया है। जो वर्तमान जलवायु परिस्थितियों में जलमग्न भूमि धारकों के लिए वरदान साबित हो सकती है।

जलमग्न भूमि पर तैरती कृषि का निर्माण

बांग्लादेश के जलमग्न क्षेत्रों में फल व सब्जियों (करेला, पालक, तोरई, लौकी, ककड़ी, कद्दू, टमाटर, भिंडी, बीन, आलू, फूलगोभी, पत्तागोभी, शलजम, मूली, गाजर, प्याज, मिर्च, लहसुन, चिरौंजी, बैंगन और स्टॉबेरी आदि) और जड़ी-बूटियां एवं मसालें (हल्दी व अदरक) उगाने के लिए किसान लगभग 15 से 20 मीटर लंबी, 1.0 से 2.5 मीटर चौड़ी और 0.6 से 0.9 मीटर मोटी कृत्रिम तैरती कृषि-भूमि/क्यारी/धाप/बैरा/ गेटो (फ्लोटिंगवेजिटेबल गार्डन/बेड/राफ्ट/द्वीप/प्लेटफॉर्म / चबूतरा) का निर्माण करते हैं। वैसे इन क्यारियों के आकार व आकृति का कोई निश्चित नियम नहीं हैं, बस जहाँ पर भी आप क्यारी बना रहे है वहाँ पानी 1 मीटर या अधिक गहरा होना चाहिए। हालांकि, क्यारी का अंतिम आकार स्थान की उपलब्धता और प्राकृतिक आदानों की मात्रा पर निर्भर करता है। जलीय वनस्पतियों/खरपतवारों (जलकुंभी/पोंटेडेरिया कैसिप्स/इचोर्निया कैसिप्स, शैवाल/काई, वॉटरवॉर्ट/एलाटिन हेक्सेंड्रा, वॉटर-लेट्यूस/पिस्टिया स्ट्रैटिओट्स, डकवीड/नाजस-ग्रेमिनिया, सोन घाश/ इम्पेराटा-सिलिंड्रिका, नोल घाश/ हैमरथिया प्रोटेन्सा, साल्विनिया-एसपीपी. और पोटामोगेटोन एल्पिनसे) का क्यारी बनाने के लिए आधार के रूप में उपयोग किया जाता है। एक बांस या लकड़ी को तैरती जलकुंभी पर रखा जाता है और दोनों और से लपेटते हुए जलकुंभी को इस पर चढ़ाते जाते हैं, जब तक कि अगर आप इस पर खड़े हों तो आपके पैर पानी में भीगने बंद हो जाए। 10 दिनों के लिए इसे सूखने या विघटन के लिए छोड़ दिया जाता है। 10 दिनों के बाद इस पर जलकुंभी की दूसरी परत चढ़ा दी जाती है और उसे चबूतरे का आकार दिया जाता है। आवश्यकतानुसार जलकुंभी की अनेक परतें मौजूदा क्यारी के उपर चढ़ाई जाती हैं। एक क्यारी बनाने के लिए क्यारी से लगभग पांच गुना बड़े क्षेत्र में फैली जलकुंभी की आवश्यकता होती है। एक बार जब जलकुंभी के तनें आपस में बुने जाएं, और क्यारी की संरचना स्थायी हो जाए, तब बांस को हटाया जा सकता हैं। इन क्यारियों पर उर्वरक के रूप में अकसर पुरानी क्यारी से बनी कम्पोस्ट, विच्छेदित नारियल के रेशों और लकड़ी के छिलकों को बिछाते हैं। क्यारियों पर 20 से 25 सेमी दूरी पर गड्ढे बनाकर पुरानी क्यारी से बनी कम्पोस्ट, विघटित जलकुंभी एवं गाद को इन गड्डों में डालकर उनमें पौध लगाई जाती हैं। पौधों के बढ़ते वज़न के कारण क्यारी का विघटित किनारा पानी से बाहर निकलता है, इन विघटित अवशेषों को पौधों की जड़ में लगा दिया जाता है जिससे के सहारे आपस में जोड़ दिया जाता है और उस पर बेल चढ़ाते हैं। इसमें आवश्यक सभी आदान और संसाधन प्राकृतिक हैं, तथा यह तकनीक कोई अपशिष्ट या उपोत्पाद नहीं बनाती है, जो पर्यावरण के लिए घातक हो। हल्की होने के कारण ये कृत्रिम क्यारियों जल स्तर के अनुरुप काफी लंबे समय तक तैरती हैं, परंतु इन्हें बनाने में कई महीनों की मेहनत लगती है। बुआई, निराई और कटाई हेतु छोटी नावें चलाने के लिए दो तैरती क्यारियों के बीच खाली जगह रखी जाती है। तैरती कृषि अधिक उपजाऊ हैं क्योंकि, फसल आवश्यक पोषक तत्वों को क्यारियों की सतह से तथा पानी में मिश्रित कार्बनिक पदार्थों से अवशोषित करती है। फसल, मिट्टी जनित बीमारियों और खरपतवार से मुक्त रहती हैं। महिलाएँ ‘सोनाली लता’ नामक जलीय पौधे के अवशेषों, कम्पोस्ट एवं पीट मिट्टी से बीज की नाजुक गेंदें (टेमा) बनाती हैं, जिन्हें विच्छेदित नारियल के रेशों में लपेटा जाता हैं। बारिश, चूहे और पक्षियों से बीज की गेंदों को सुरक्षित रखा जाता हैं। एक सप्ताह बाद. इन 1.5 सें. मी. ऊँचे अंकुरित बीजों की गेंदों को तैरती क्यारियों पर प्रत्यारोपित किया जाता है। पौधों को सूखने से बचाने के लिए पहले उन्हें हाथ से सींचा जाता है। बेचने के लिए परिपक्व (12-18 सेमी ऊँची) होने तक (10 से 15 दिन) पौध क्यारियों पर ही रहती हैं। पत्तेदार सब्जियाँ (लाल चौलाई) सीधे तैरती क्यारी पर ही बोई जाती हैं। यह तकनीक कुछ हद तक आधुनिक “हाइड्रोपोनिक्स” कृषि के समान ही है, जिसमें पानी के ऊपर तैरते पौधे पानी में घुले पोषक तत्वों को अवशोषित करते हैं। इन जैविक क्यारियों को गाँव के बाढ़ प्रभावित हिस्से में रखते हैं। नहरों, नदियों, तालाब और नदी मुख में लहरों एवं ज्वार-भाटे से सुरक्षित पानी तैरती कृषि के लिए अनुकूल जगह है। इन क्यारियों को जलमार्ग से किसी अन्य उपयुक्त जलमग्न स्थान पर भी स्थानांतरित किया जा सकता है। क्यारियों की स्थिरता, मजबूती एवं लहरों/ बहने से बचाव के लिए इन्हें पानी में गढ़े बांस के खंभों से बांध दिया जाता है। तैरती कृषि की सफलता स्थानीय भौगोलिक परिस्थिति पर निर्भर करती है।

कुछ किसान क्यारियाँ बनाने के लिए पुआल, धान के ठूंठ, गेहूँ के डंठल और रबड़ की ट्यूब का भी उपयोग कर रहे हैं। तैरते खेत मच्छरों की प्रजनन दर को कम रखते हैं। विघटित पुरानी क्यारियों में अक्सर जैविक खाद को मिट्टी में मिलाकर, सर्दियों की फसलें (शलजम, गोभी, फूलगोभी, टमाटर और लाल चौलाई आदि) उगाई जाती हैं। इस तरह से रासायनिक उर्वरकों के उपयोग में कमी के कारण मृदा स्वास्थ्य में सुधार होता है।

तैरती कृषि के लाभ

यह पर्यावरण अनुकूल तकनीक, बाढ़ प्रभावित / जलमग्न क्षेत्रों में, वैकल्पिक कृषि भूमि उपलब्ध करवाकर, पूरे साल किसानों को खेती करने की सुविधा देती है, जिससे किसान आत्मनिर्भर बन सकते हैं। यह आयपूरक तकनीक, स्थानीय भूमिहीन समुदायों हेतु, गरीबी उन्मूलन और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में भी योगदान देती है। श्रमिक प्रधान होने के कारण, इस प्रणाली में पुरुष एवं महिलाओं को रोजगार प्रदान करने की क्षमता हैं, जिससे लैंगिक समानता में सुधार होना निश्चित है। परंपरागत खेती की तुलना में तैरती कृषि की उत्पादकता 10 गुना अधिक है। चूंकि तैरती कृषि में आमतौर पर कीटनाशकों या रासायनिक उर्वरकों का उपयोग नहीं किया जाता है, इसलिए इससे प्राप्त जैविक उत्पाद सुरक्षित होते हैं, तथा उपभोक्ताओं के पसंदीदा होते है, जिसके चलते उनकी माँग भी अधिक है। यह प्रणाली जल प्रदूषण का कारक नहीं है। तैरती खेती करने वाले किसान, अन्य बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के किसानों की तुलना में, जिन्होंने इस तकनीक को नहीं अपनाया है, आर्थिक रूप से अधिक संपन्न है। मानसून के दौरान तैरती क्यारियों पर, सर्दियों की फसल की पौध उगाकर, बाढ़ का स्तर कम होते ही बिना समय गवाएं किसान पौध को मिट्टी में रोप सकते हैं. इस प्रकार नमी के कारण होने वाली संभावित फसल की क्षति से बचा जा सकता है। पारंपरिक खेती के लिए कृषि भूमि को, तटबंधों के सहारे संरक्षित किया जाना या नदीमुख इलाकों से विलग किया जाना आवश्यक है। यह दोनों उपाय पर्यावरण और अर्थव्यवस्था के लिए प्रतिकूल हैं। इसके विपरीत, जमीन के दावे और तटबंधों के बिना तैरती कृषि की जा सकती है। यह प्रणाली तटीय रक्षा के साथ जलमार्गों को साफ रखने, आर्द्रभूमि पारिस्थितिक तंत्र को स्वस्थ रखने और उन्हें उच्च जैव-विविधता युक्त बनाए रखने में भी योगदान देती है। तैरती कृषि में उपयोगी जलीय खरपतवार की आक्रामक प्रजातियां, जैव विविधता के लिए दूसरा सबसे बड़ा खतरा हैं। इस खरपतवार को एकत्रित कर, तैरती क्यारियाँ बनाकर, उसको नियन्त्रित एवं आच्छादित जल क्षेत्र (जो मच्छरों के प्रजनन के लिए उपयुक्त स्थान है) को साफ किया जा सकता है, जिससे खुले पानी में मछलियां पकड़ने में सहायता मिलती है। इस प्रकार से अन्य जलीय वनस्पतियों एवं मछलियों को आर्द्रभूमि में जीवित रहने और पनपने में भी सहायता मिलती हैं तथा ग्रामीण अब जलीय खरपतवार को संसाधन के रूप में देख रहे हैं। अतः सामाजिक चुनौतियों से निपटने के साथ ही प्रकृति और जैव-विविधता के प्रति तैरती कृषि के योगदान के आधार पर इसे मानव कल्याण का एक प्रकृति आधारित उपाय मान सकते है। तथा भविष्य में तैरती कृषि बाढ़ प्रवण क्षेत्रों में हमारी मुख्य कृषि पद्धति बन सकती है।

तैरती कृषि के नुकसान

गंगा-ब्रह्मपुत्र नदीमुख जैसे अन्य इलाकों में सफल साबित होने के बावजूद, जलवायु परिवर्तन के परिदृश्य में, समुद्र जलस्तर और लवणता में वृद्धि के कारण, यह तकनीक प्रभावित हो रही है। साथ ही एक सवाल यह भी है कि इस तकनीक को अपने उदगम स्थान से दूर प्रतिस्थापित करना कितना सफल रहेगा। जलवायु परिवर्तनशीलता, आर्द्रभूमि में जलकुंभी की उपलब्धता और पहुँच तथा अंकुर एवं सब्जियों के विकास को प्रभावित करती है। जलकुंभी, मध्यम लवणता भी सहन नहीं कर पाती है, इसलिए समुद्र जल की घुसपैठ, तटीय क्षेत्रों में जलकुंभी आधारित तैरती कृषि को प्रभावित कर सकती है। तैरती कृषि में कीट और कृन्तकों के संभावित संक्रमण से स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं और फसल को नुकसान हो सकता है। सार्वजनिक जलमग्न जमीन पर तैरती कृषि का अनुप्रयोग, समुदायों के बीच हिस्सेदारी के लिए संघर्ष पैदा कर सकता है। तथा आर्थिक रूप से बलशाली व्यक्ति इन जलमग्न जमीनों को हासिल करने का प्रयास कर सकते हैं। जलमग्न क्षेत्र से उपज को मण्डी तक पहुँचाना मुश्किल एवं खर्चीला होता है। तैरती क्यारियाँ बड़ी/तूफानी लहरों का सामना करने में सक्षम नहीं हैं।

वित्तीय आवश्यकताएँ और लागत

न्यूनतम बुनियादी ढाँचे और पूँजी की आवश्यकता के कारण तैरती कृषि की कुल लागत कम है। निर्माण के लिए आवश्यक स्थानीय कच्चा माल जलमार्गों से आसानी से व्यापक रूप में उपलब्ध हो जाता है। जिसकी न्यूनतम लागत की प्राप्त उत्पाद की बिक्री से भरपाई की जा सकती है। तैरती कृषि के विभिन्न अनुप्रयोगों में लाभ लागत अनुपात (बीसीआर) की विस्तृत श्रृंखला दिखती है। उदाहरण के लिए पिरोजपुर जिले में, बीसीआर 1.43 दर्ज की गई थी। तथा होर क्षेत्र में, एनजीओ द्वारा उत्पादित की गई तैरती कृषि में बीसीआर लगभग 2.7 था. जिसकी सीमा 0.9 से 3.7 के बीच दर्ज की गई थी।

तालिका 1: 15x2x1 मीटर आकार की 10 तैरती क्यारियां बनाने की लागत 
गतिविधि  अवधिकुल लागत (टका)कुल लागत (रु.)
तैरती क्यारी का निर्माण60 मानव दिवस30002273.27
कच्चे माल (खरपतवार) का संग्रह20 मानव दिवस1000757.76
बीज या पौधे की खरीद 600454.65
बांस, रस्सी, फसल कटाई व रखरखाव 1000757.76
 कुल खर्च56004243.44


संस्थागत और संगठनात्मक आवश्यकताएँ

तैरती कृषि को न केवल अनुकूलन के साधन, बल्कि आजीविका के विकल्प, आपदा जोखिम कम करने एवं पोषण सुरक्षा व गरीबी उन्मूलन के साधन / उपाय के रूप में भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए। तैरती कृषि के बारे में जागरूकता की कमी के कारण, स्थानीय समुदायों को प्रशिक्षित करना तथा उन्हें तकनीकी सहायता प्रदान करना आवश्यक है। बांग्लादेश स्थित एक अंतर्राष्ट्रीय शोध और विकास संगठन “वेटलैंड रिसोर्स डेवलपमेंट सोसाइटी” द्वारा इन कार्यों को बढ़ावा दिया जा रहा है। वैश्विक स्तर पर इस तकनीक की जानकारी जलमग्न क्षेत्रों के उन स्थानीय समुदायों तक पहुंचाना आवश्यक है, जहाँ तैरती कृषि नहीं की जाती है। लोगों को उपयुक्त ज्ञान से सुसज्जित कर, तैरती कृषि के सामूहिक कार्यान्वयन से, स्थानीय अर्थव्यवस्था और सांप्रदायिक स‌द्भाव को भी मजबूत किया जा सकता है। साथ ही गरीब और भूमिहीन किसानों को जमीनी स्तर पर संगठित, कर छोटे व्यवसाय चलाने में उनकी उद्यमशीलता को बढ़ावा दे सकते हैं।

कार्यान्वयन में बाधाएँ

तैरती क्यारी के निर्माण के लिए आवश्यक प्राकृतिक सामग्री की उपलब्धता एवं आपूर्ति कुछ क्षेत्रों में सीमित होती जा रही है, जो कि चिंताजनक हैं। ग्रामीण अशिक्षित किसानों द्वारा तैरती कृषि संबंधित योजनाओं में सम्मिलित होने से रोके जाने की संभावना है, यदि उनके सामूहिक संपत्ति और तकनीक के स्वामित्व के अधिकारों का हनन हो। अतः उन्हें सजग करने की आवश्यकता हैं। प्रचुर मात्रा में जलकुंभी वाले कई आर्द्रभूमि क्षेत्र मौजूद हैं, परंतु यदि कार्यान्वयन निकायों द्वारा व्यापक और लगातार समर्थन पर वकालत नहीं की, तो बलशाली व्यक्तियों द्वारा उन्हें हड़पने की संभावना है। युवा पीढ़ियां अपने पारंपरिक / मूल व्यवसाय (कृषि) को नहीं अपना रही हैं। सहायक / उपयुक्त व्यापार मॉडल के अभाव के कारण इस तकनीक का नए इलाकों में अनुप्रयोग इसकी सफलता के लिए एक बड़ी चुनौती है। यह आवश्यक है कि हम बदलते मौसम, भौगोलिक परिस्थिति और विभिन्न सामाजिक संदर्भों के तहत इस प्रणाली की कार्य क्षमता को लगातार मापें। अन्यथा “प्रकृति आधारित व्यावहारिक समाधान” के बजाय यह एक बोझ साबित हो सकती है।

निष्कर्ष

तैरती कृषि, किसानों की आजीविका के विकल्प, सीमित संसाधनों के साथ खाद्य व पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने, बाढ़ के प्रभाव को कम करने, और पर्यावरण अनुकूलित निश्चित जलवायु-स्मार्ट कृषि तकनीक के रूप में लोकप्रिय हो रही है। यह आय पूरक तकनीक, विकासशील देशों में मौजूद आर्द्रभूमियों को कृषि योग्य बनाने में उपयुक्त है। उचित प्रबंधन के साथ यह तकनीक, ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने में योगदान दे सकती है। तैरती कृषि इस बात का उदाहरण है कि, कैसे एक सदियों पुराना “प्राकृतिक संसाधन-आधारित समाधान”, जलवायु परिवर्तन, खाद्य सुरक्षा और आर्थिक विकास जैसी सामाजिक चुनौतियों से लड़ने के लिए नए आयाम प्रदान कर सकता है। इस तकनीक की स्थायी व सकारात्मक विशेषताओं के कारण बांग्लादेश जैसे विकासशील देशों में इसकी व्यापकता बढ़ रही है। तैरती कृषि, केवल बांग्लादेश के लिए ही उपयुक्त नहीं हैं, बल्कि इसका उपयोग म्यांमार, कंबोडिया और भारत में भी किया जा रहा है। यह पारंपरिक तकनीक अन्य क्षेत्रों में संभावित रूप से हस्तांतरणीय है, जो वर्तमान में अप्रत्याशित जलवायु परिवर्तन का सामना कर रहे हैं। भारत में बड़ी संख्या में तालाब, झीलें, नदियों और मौसमी बाढ़ के मैदान, जलीय कृषि के लिए प्रचुर अवसर पैदा करते हैं। सरकारी समर्थन से यह स्थायी कृषि पद्धति, भविष्य में खाद्य उत्पादन जारी रखने एवं भोजन स्थिरता प्रदान करने की एकमात्र कुंजी हो सकती है. क्योंकि बाढ़ व सूखा दोनों अधिक गंभीर होते जा रहे है। क्योंकि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी इसकी उत्पादकता संतोषप्रद है, अतः तैरती कृषि तकनीक को बड़े पैमाने पर बढ़ावा देना आवश्यक है।

लेखक बाढ़ प्रबंधन अध्ययन केंद्र, रा.ज.सं. पटना में पदस्थ हैं।