*पहाड़ों से पलायन:गाँव लौटने के लिए सलाह नहीं, सरकारी सुविधाएँ चाहिए

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बीरेंद्र सिंह रावत

उत्तराखंड के पहाड़ों से मैदानों की तरफ होने वाला पलायन, अनेक दशकों से चिंता का विषय रहा है I अभी हाल ही मैं वर्तमान प्रधानमंत्री ने भी उत्तराखंड के गांवों को आबाद करने के लिए, उत्तराखंड के लोगों को कुछ सुझाव दिये I

इस विषय का अध्ययन करने वाले विद्वानों ने पलायन करने के अनेक कारण बताए हैं I पलायन के लिए जिम्मेदार माने जा रहे हैं कारकों में से शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की कमजोर स्थिति प्रमुख कारक माने जाते हैं I पब्लिक ट्रांसपोर्ट का अभाव और संचार माध्यमों का कमजोर होना भी है कारण हैं I अनेक जानकारों का मानना है कि सरकार की और से जंगल से मिलने वाले वनस्पति उत्पादों पर सरकारी रोक-टोक में बढ़ोतरी के कारण, एक तरफ तो पशु पालन मुश्किल हो गया है तो दूसरी और वनस्पति-उत्पादों को हासिल करने में लगने वाला समय और श्रम में भी बढ़ोतरी हुई है I

महिलाओं की दृष्टि से समझने पर पता चलता है कि उत्तराखंड में पायी जाने वाली पितृसत्ता के कारण, ऐसी महिलाओं की संख्या बढ़ रही है जो उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में नहीं रहना चाहती हैं I क्योंकि पितृसत्ता के कारण वहाँ की महिलाओं पर एक तो कामों का बोझ पुरुषों की तुलना में काफी ज्यादा है, तो दूसरी और पितृसत्ता के कारण वहां की महिलाएं घरेलू हिंसा से भी पीड़ित हैं I शिक्षा के अवसरों के कारण आज उत्तराखंड की महिलाओं की शादी करने की उम्र बढ़ी है और शिक्षा के अवसरों के कारण उनमें अपने समाज में व्याप्त पितृसत्ता को चिन्हित और विश्लेषित करने तथा उसे चुनौती देने की समझ और साहस भी विकसित हुआ है I ऐसे अनेक कारक हैं जिसकी वजह से उत्तराखंड से लगातार पलायन हो रहा हैI

पहाड़ में स्वास्थ्य सुविधाओं की बेहद खराब स्थिति के कारण अनेक रिटायर्ड उत्तराखंडी अपने गांवों को नहीं लौटना चाहते या चाहती I क्योंकि 60  साल की उम्र के बाद उन्हें स्वास्थ्य सेवाओं की लगातार जरूरत रहती है I उत्तराखंड में ज्यादातर इलाके ऐसे हैं जहां से किसी भी सुविधा संपन्न अस्पताल की दूरी दो-तीन सौ किलोमीटर से ज्यादा है I 60 साल  से ज्यादा की उम्र में किसी सामान्य या गंभीर बीमारी की हालत में दो-तीन सौ  किलोमीटर की  असुविधाजनक यात्रा करना बेहद कष्टकारी है I वह भी अकेले में I क्योंकि जवान लोग तो प्लेन्स में रहते हैं I

इसलिए उत्तराखंड से पलायन  को रोकना उनके बस की बात नहीं है जो संस्कृति पर केंद्रित भावात्मक पुकार की बात करके, पलायन की धारा को उल्टना  चाहते हैं I पलायन  को रोकना उनके भी बस की बात भी नहीं है जो उत्तराखंड के किन्हीं व्यक्तियों के किसी काम में सफल हो जाने की कहानी को पलायन  रोकने के उपाय के रूप में पेश करते हैं I क्योंकि पलायन  सिस्टमिक कारणों से होता है इसीलिए उसे रोकने के समाधान भी सिस्टमिक होने चाहिए I

ऐसा नहीं है कि जो लोग किन्हीं मजबूरियों के कारण पलायन कर गये, वे पहाड़ पर रह गये लोगों से कम उत्तराखंडी हैं I यदि इस बात को मान लिया जाए कि पलायन करने वाले लोग कम उत्तराखंडी हैं तो इसी तर्क के आधार पर कहा जा सकता है कि वहाँ की महिलाएं, पुरुषों की तुलना में ज्यादा उत्तराखंडी है I या वहाँ के बुजुर्ग, युवा लोगों की तुलना में ज्यादा उत्तराखंडी हैं I क्या महिलाओं और बुजुर्गों की तुलना में पुरुष और युवा ज्यादा संख्या में पलायन करते हैं I इस तरह की अतार्किक और भावनात्मक किस्म की बातों से पलायन जैसी गंभीर चुनौती को न तो समझा जा सकता है और न ही उसका समाधान निकाला जा सकता है I

स्वास्थ्य सुविधाओं का नितांत अभाव

4 नवंबर 2024 (इमेज) को पौड़ी गढ़वाल के एक जगह मर्चुला के पास एक बस गहरे में रामगंगा में गिर गयी I उस दुर्घटना में 36 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई थी I उस दुर्घटना में घायलों को बड़ी मुश्किल से मर्चुला से 35 किलोमीटर दूर रामनगर पहुंचाया गया I लेकिन रामनगर के अस्पताल में सुविधाओं के अभाव में घायलों को रामनगर से 52  किलोमीटर दूर हल्द्वानी ले जाया गया I लेकिन वहां भी इलाज न हो सका तो घायलों को हल्द्वानी से 250 किलोमीटर दूर ऋषिकेश ले जाया गया I

इस तरह घायलों को 338 किलोमीटर तक दौड़ाया जाता रहा I ऐसी स्थिति में पलायन पर भावात्मक नजरिए से नहीं I बल्कि राजनैतिक नजरिए से विचार करने से ही हल मिल सकता है I राजनैतिक नजरिये का अर्थ है कि पहाड़ में रोजगार के अवसर, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएँ, सस्ती और आरामदेह पब्लिक ट्रांसपोर्ट, कनेक्टिविटी, आदि के लिए उपयुक्त नीति, पैसे का आवंटन, उपयुक्त क्रियान्वयन और उपयुक्त मोनीटरिंग की  योजनाबद्ध व्यवस्था होनी चाहिए I

शिक्षा की बदहाली दूसरा बड़ा कारण

उत्तराखंड की सरकार मानती है कि शिक्षा की खराब स्थिति और वहां से होने वाले पलायन के बीच एक सकरात्मक सहसंबंध हैI जितनी ज्यादा खराब स्थिति, उतना ज्यादा पलायनI

इसी साल उत्तराखंड सरकार की “ग्राम्य विकास एवं पलायन निवारण आयोग” ने राज्य में शिक्षा की स्थिति को बताने वाली एक रिपोर्ट जारी की हैI इस रिपोर्ट का नाम है “राज्य के पलायन प्रभावित क्षेत्रों में बेसिक एवं माध्यमिक शिक्षा के सुधार हेतु सिफारिशें”I इस रिपोर्ट के अध्यक्ष उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हैं I इस रिपोर्ट में दिये गये आंकड़े बताते हैं कि राज्य में स्कूली शिक्षा की स्थिति बेहद खराब हैI

रिपोर्ट में माना गया है कि उत्तराखंड से पलायन के लिए “गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव”, (भूमिका) पलायन का एक मुख्य कारण हैI रिपोर्ट की भूमिका में लिखा गया है कि “विद्यालयों में कई चुनौतियां हैं जिसके अभाव से ग्रामीण क्षेत्रों से लोग, शहरी क्षेत्रों की ओर पलायन कर रहे हैं”I इस रिपोर्ट के लिए आंकड़े उत्तराखंड के शिक्षा विभाग के ऑनलाइन और ऑफलाइन स्रोतों से लिये गये हैंI  

उत्तराखंड के पलायन निवारण आयोग की यह रिपोर्ट बताती है कि राज्य में प्राइमरी के 12065 सरकारी स्कूल हैं, जिनमें 22005 टीचर्स काम करते हैं। यानी उत्तराखंड के हर प्राइमरी स्कूल में औसतन दो से कम टीचर्स हैं।

12065 प्राथमिक स्कूलों में से केवल 6018 स्कूलों में हेड मास्टर हैं। इसका मतलब यह हुआ कि 50% से ज्यादा स्कूलों में हेड-मास्टर नहीं हैं।

राज्य के 12065 सरकारी प्राथमिक स्कूलों में से 1666 स्कूल ऐसे हैं जिनमें लड़कों की संख्या जीरो है, जबकि 1617 स्कूल ऐसे हैं जिनमें लड़कियों की संख्या जीरो है। (पृष्ठ 5) I

देखते हैं कि मिडिल स्कूलों की स्थिति के बारे में इस रिपोर्ट में दिये गये आंकड़े क्या कहते हैं।

रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड में कुल 3426 सरकारी मिडिल स्कूल हैं। इनमें 93,209 विद्यार्थी पढ़ते हैं। उन स्कूलों में 8055 टीचर्स पोस्टेड हैं। यानी एक टीचर के हिस्से में 11 से 12 विद्यार्थी आते हैं। अगर राइट टू एजुकेशन एक्ट 2009 के मानकों के हिसाब से देखें तो यह बहुत बेहतर स्थिति है। लेकिन हमें नहीं पता कि 8055 पोस्टेड टीचर्स में से कितनों को पढ़ाने की जिम्मेदारी दी गई है और कितनों को राज्य के अलग-अलग कामों पर लगाया गया है।

राज्य में 402 मिडिल स्कूल ऐसे हैं जिनमें एक-एक टीचर हैंI यानी ये सिंगल टीचर स्कूल से। छठी से आठवीं की तीन कक्षाओं के कम-से-कम 18 विषयों को पढ़ने के लिए उन 402 स्कूलों में केवल एक-एक टीचर है। ऐसे में उस टीचर के लिए कुछ भी पढ़ना असंभव होगा।

उत्तराखंड राज्य के प्रत्येक 9 सीनियर सेकेंडरी स्कूलों में से केवल चार स्कूलों में ही प्रिंसिपल हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि 50% ज्यादा सीनियर सेकेंडरी स्कूलों में प्रिंसिपल नहीं हैं।

50% से ज्यादा सीनियर सेकेंडरी स्कूलों में प्रिंसिपल का ना होना यह बताता है कि उन स्कूलों में व्यवस्थागत चुनौतियां और भी ज्यादा जटिल हो जाती होंगीI उन चुनौतियों का नकारात्मक असर बच्चों की पढ़ाई-लिखाई पर पड़ता होगाI ऐसे में पहाड़ के लोग, पहाड़ से प्लेन्स को पलायन करने का निर्णय लेते होंगेI

भेदभावपूर्ण भाषानीति

यहां पर मैं उत्तराखंड से पलायन के एक और कारक का जिक्र करना चाहता हूं। उत्तराखंड सरकार ने राज्य के स्कूलों में भेदभावपूर्ण भाषा-नीति को अपना रखा है। राज्य की भेदभावपूर्ण भाषा-नीति भी वहां के स्कूलों की बदहाली का एक कारण हो सकती है।

अगर आपका बच्चा उत्तराखंड के सरकारी प्राथमिक स्कूल में पढ़ता है, तो वहां उसे चौथी कक्षा से संस्कृत भी पढ़ने होगीI लेकिन अगर आपका बच्चा उत्तराखंड के निजी प्राथमिक स्कूल में पड़ता है, तो वहां उसे चौथी कक्षा से संस्कृत नहीं पढ़नी होगी। राज्य सरकार ने राज्य में चलने वाले प्राथमिक स्कूलों के लिए भाषा की दो नीतियां लागू कर रखी हैं। कहां तो भारतीय जनता पार्टी इस बात का राजनैतिक केम्पेन करती रहती है कि एक देश में एक ही कानून चलना चाहिए और कहां उसने अपने द्वारा शासित राज्य उत्तराखंड में भाषा पढ़ने की दो नीतियां लागू कर रखी हैंI

तीसरी भाषा के रूप में संस्कृत को पढ़ने के कारण राज्य के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के पास गणित और पर्यावरण जैसे विषयों को पढ़ने-समझने का समय, निजी स्कूलों के बच्चों की तुलना में कम बचता है I क्योंकि निजी प्राथमिक स्कूलों के बच्चों को संस्कृत नहीं पढ़नी पड़ती, जबकि सरकारी प्राथमिक स्कूलों के बच्चों को बच्चों को संस्कृत भी पढ़नी पड़ती है। लोग द्वारा, पहाड़ों से शहरों की ओर पलायन करने का एक कारण यह भी हो सकता हैI क्योंकि निजी स्कूलों में बच्चों को चौथी कक्षा से संस्कृत नहीं पढ़नी पड़ती और निजी स्कूल प्लेन्स में ही हैं।

जिलों में असमानता

शिक्षा सुविधाओं का अभाव, राज्य से पलायन के लिए जिम्मेदार कारणों में से दूसरा सबसे बड़ा कारण है। 15% से ज्यादा लोग शिक्षा की बदहाली के कारण पहाड़ से प्लेन्स में पलायन करते हैंI

अगर बात करें उच्च शिक्षा की तो उसका हाल तो और भी बुरा है। इसलिए पहाड़ का नौजवान या पहाड़ की नव-युवती, उच्च शिक्षा के लिए देहरादून आती हैं। देहरादून एक महंगा शहर है। पैसे के अभाव में पहाड़ के सभी युवा, देहरादून में रहकर नहीं पढ़ पाते।

पहाड़ से पलायन को रोकने के लिए सबसे जरूरी है वहां रोजगार के अच्छे और पक्के अवसर पैदा करना। और दूसरा जरूरी काम है स्कूली और उच्च शिक्षा की सरकारी व्यवस्था को बेहतर करना।

पलायन निवारण आयोग ने अपनी रिपोर्ट के पेज 39 पर एक ग्राफ दिया हुआ है। इस ग्राफ से पता चलता है कि विद्यार्थियों की संख्या के हिसाब से उत्तराखंड के 13 जिलों में बहुत असमानता है। हरिद्वार जिले के सरकारी प्राइमरी स्कूलों में 86 हजार विद्यार्थी पढ़ते हैं, जबकि चंपावत जिले के सरकारी प्राथमिक स्कूलों में केवल 9 हजार विद्यार्थी पढ़ते हैं। (P. 39) I

प्लेन्स में अनेक कारणों से जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है। उन कारणों में रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएँ भी शामिल हैं।

अभी हाल में ही प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने उत्तराखंड के लोगों से पांच आग्रह किये। उन्होंने उत्तराखंड के लोगों से कहा कि वे रिटायर्ड होने के बाद अपने गांव को लौटे। लेकिन सवाल यह है कि अगर उन रिटायर्ड लोगों के लिए अस्पताल, डॉक्टर, दवाई, और अन्य चिकित्सा सुविधाएँ नहीं होंगी, तो वे लोग वापस किसके सहारे लौटेंगे !

हालांकि, उत्तराखंड के रिटायर्ड लोग उत्तराखंड तो लौट रहे हैं, लेकिन वे राज्य की उन्हीं जगहों पर लौटते हैं जहां कुछ हद तक स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हैं। उत्तराखंड में बेहतर सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का जाल बिछा हो तो अनेक लोग बिना प्रधानमंत्री के आग्रह के भी अपने गांव को लौट रहे होते। लेकिन सुविधाओं के अभाव में प्रधानमंत्री के आग्रह का कोई असर होगा, इसमें मुझे पूरा संदेह है।

(बीरेंद्र सिंह रावत, शिक्षा विभाग, दिल्ली-विश्वविद्यालय से सम्बद्ध हैं)

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