खस की खेती:इस घास का तेल बिकता है 25 हजार रुपये लीटर के भाव

0
132

खस या वेटीवर एक भारतीय मूल की बहुवर्षीय घास है, जिसका तेल बहुत कीमती होता है. पौधे के जमीन के अंदर रहने वाले भाग में हल्के पीले रंग या भूरे से लाल रंग वाली जड़ें होती हैं. इसमें से तेल प्राप्त होता है. खस की रेशेदार जड़ें नीचे की ओर बढ़ती हुई 2-3 मीटर तक जमीन की गहराई में फैलती हैं और इन जड़ों की सुगंध बहुत ही तीव्र होती है. इसके तेल की कीमत राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में 20 से 25 हजार रुपये प्रति लीटर तक मिल जाती है. खास बात यह है कि जमीन बाढ़ग्रस्त हो, बंजर हो या पथरीली, इसकी खेती हर जगह की जा सकती है. आये दिन प्राकृतिक आपदा के कारण खेती बर्बाद हो जाती है, ऐसे में किसानों के लिये खस की खेती लाभकारी सिद्ध हो सकती है.

कृषि वैज्ञानिक पंकज कुमार राय, आशुतोष सिंह, अमित कुमार पाण्डेय  और उमेश सिंह बताते हैं कि उत्तर भारत में पैदा होने वाले प्रीमियम गुणवत्ता वाले खस के सुगन्धित तेल की कीमत अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बहुत अच्छी प्राप्त होती है. खस की जड़ों से निकाला गया सुगन्धित तेल  शर्बत, पान मसाला, खाने के तम्बाकू, इत्र, साबुन तथा अन्य सौन्दर्य प्रसाधनों में प्रयोग किया जाता है. इसकी सूखी हुई जड़ें लिनन व कपड़ों में सुगंध के लिए इस्तेमाल की जाती हैं. खस का इस्तेमाल सिर्फ ठंडक के लिए ही नहीं होता, आयुर्वेद जैसी परम्परागत चिकित्सा प्रणालियों में औषधि के रूप में भी होता है. यह जलन को शान्त करने और त्वचा संबंधी विकारों को दूर करने में भी प्रयोग किया जाता है.

कहां होती है खस की खेती

भारत में खस की व्यावसायिक फसल के रूप में खेती राजस्थान, असम, बिहार, उत्तर प्रदेश, केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश में की जाती है. खस की व्यावसायिक खेती भारत के पड़ोसी देशों पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, चीन और मलेशिया में भी की जा रही है. इसके अलावा अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया,इंडोनेशिया, ग्वाटेमाला, मलेशिया, फिलीपींस, जापान, अंगोला, कांगो, अर्जेंटीना, जमैका और मॉरीशस में भी इसकी खेती की जाती है. 

खेती के लिए क्या चाहिए?

खस की अच्छी पैदावार के लिए शीतोष्ण एवं समशीतोष्ण जलवायु उपयुक्त रहती है. इसकी खेती उपजाऊ दोमट से लेकर अनुपजाऊ लेटराइट मृदा में भी की जा सकती है. रेतीली दोमट मिट्टी, जिसका पी-एच मान 8.0 से 9.0 के मध्य हो, पर खस की खेती की जा सकती है. इसकी खेती ऐसे स्थानों में की जा सकती है, जहां वर्षा के दिनों में कुछ समय के लिए पानी इकट्ठा हो जाता है. यहां अन्य कोई फसल लेना सम्भव नहीं होता है, इसलिए खस की खेती एक विकल्प के रूप में की जा सकती है. खस की रोपाई के बाद 35-40 दिनों में खरपतवारों का नियंत्रण किया जाना चाहिए. इसका पौधा खेत में एक बार अच्छी तरह स्थापित हो गया, तो फिर खेत में खरपतवारों की बढ़वार नहीं हो पाती है. खरपतवारों को समाप्त करने के लिए 2-3 बार निराई एवं गुड़ाई की आवश्यकता होती है.

बहुपयोगी है खस का तेल
खस के पौधे की जड़ से सुगंधित तेल निकाला जाता है जो बहुपयोगी है। खासकर इत्र निर्माण में इसका इस्तेमाल किया जाता है। साबुन, सुगंधित प्रसाधन सामग्री निर्माण में इसका इस्तेमाल होता है। हरी घास पशुचारे में भी काम आता है। यह फसल विषम माहौल में भी फल-फूल रही है। शून्य से चार डिग्री से लेकर 56 डिग्री तापमान तक में इस पौधे को नुकसान नहीं है।

कम करता है प्रदूषण
पर्यावरण के अनुकूल खस के पौधे मिट्टी की गुणवत्ता बढ़ाती है। खस का एक पौधा एक साल में 80 ग्राम कार्बन का अवशोषण करता है। इससे प्रदूषण कम करने में भी मदद मिलती है। एक बार इस पौधे को लगा देने के बाद पांच साल तक दुबारा लगाने की जरूरत नहीं है।

एक या दो बारिश ही काफी
सिंचाई की सुविधा नहीं रहने व किसानों को इंद्र देवता के भरोसे रहने की जरूरत नहीं है।  खस, लेमनग्रास, पामारोजा तथा सिट्रोनेला घासों की खेती काफी उपयोगी साबित हो रही है। मोटी कमाई होने से यहां के किसानों की तकदीर बदल रही है।  किसान देवी बाबू कहते हैं अन्य फसलों के साथ खस की खेती कर डेढ़ साल में तीन लाख रुपये प्रति हेक्टेयर तक मुनाफा कमा रहे हैं। इनके लिए एक या दो बारिश भी काफी है।

खस 10-15 दिन तक पानी में डूबे रहने के बाद भी गलता नहीं है। इसलिए कोसी के बाढ़ प्रभावित इलाकों में किसान इसकी खेती में खासी रुचि दिखा रहे हैं। इसे अन्य फसलों के साथ भी लगाया जा सकता है। इसे लगाने में अलग से कोई विशेष खर्च नहीं होता। अलग से कोई रासायनिक उर्वरक की आवश्यकता नहीं है।