सोयाबीन किसानों का संकट:मध्य प्रदेश में बाजार, मौसम और सरकारी नीतियों की से परेशान

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मध्यप्रदेश में सोयाबीन किसानों को पिछले दस साल पुराने दाम मिलने के कारण उनकी आर्थिक स्थिति गंभीर हो गई है, जिससे वे अब सोयाबीन की खेती छोड़ने पर विचार कर रहे हैं। खराब बीज, मौसम की मार और फसल पर कीटों के प्रकोप ने स्थिति और भी जटिल बना दी है, जिससे किसान अपनी फसल उखाड़ फेंकने को मजबूर हो रहे हैं।उन्नीसवीं सदी में पूर्वी एशिया के चीन से जब सोयाबीन के बीज जब भारत आए तो उन्हें सबसे पहले मध्यप्रदेश की जमीन पर लगाया गया और देखते ही देखते यहां के किसानों ने सोयाबीन को दोनों हाथों से अपना लिया। खेती-बाड़ी के मामलों में आज इस प्रदेश को सोयाप्रदेश पुकारा जाता है क्योंकि देश में यहां सोयाबीन सबसे ज्यादा पैदा होता है लेकिन आज मप्र में सोयाबीन के कई किसान अब इसे छोड़ने तक की बात करने लगे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि सोयाबीन वापस अब दस साल पुराने भाव पर हैं

उसका कारण है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार की मांग पर आधारित सोयाबीन की खेती अब उनके लिए घाटे का सौदा साबित हो रही है। हालात कुछ ऐसे हैं कि इन दिनों सोयाबीन की कीमतें एक दशक पुराने स्तर पर लौट आई हैं। Also Read – जबलपुर: जूनियर महिला डॉक्टरों के साथ छेड़खानी के बाद सुरक्षा व्यवस्था को लेकर उठे सवाल, छात्र कर रहे दोषियों पर कड़ी कार्रवाई की मांग मध्य प्रदेश के कई इलाकों में किसान सोयाबीन की अपनी फसल को उखाड़कर फेंक रहे हैं। वे अब एक महीने बाद आने वाले सोयाबीन के अगले सीजन का इंतजार भी नहीं कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें अपनी पिछले साल की रखी हुई फसल के दाम भी न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से करीब 1.5 हजार रुपये तक कम मिल रहे हैं। खराब गुणवत्ता के निकले सोयाबीन दाने • दलहन की इस अहम फसल (सोयाबीन) को लेकर किसान कई तरह की परेशानियों का सामना कर रहे हैं। पहली परेशानी सोयाबीन की लागत और मंडी में मिल रहे भाव में लगातार बढ़ रहा अंतर है, जबकि दूसरी समस्या सोयाबीन की उपज में लग रहे कीट हैं जो उत्पादन को लगातार प्रभावित कर रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि सोयाबीन उत्पादक किसान लगातार घाटे का सामना कर रहे हैं। उसकी वजह मौसम में अनियमित बदलाव, किसानों में कम जागरूकता, कम गुणवत्ता के बीज और खाद भी हैं।

उक्त स्थिति में मध्य प्रदेश के किसान सोयाबीन को लेकर एक जटिल स्थिति का सामना कर रहे हैं, ऐसे में वे उसे खेत से निकालकर मंडी तक ले जाने की परेशानी और अतिरिक्त खर्च से भी बचना चाहते हैं। बारिश के बाद सोयाबीन की फसलों को खा रहे हैं कीट • कैसे हैं सोयाबीन किसानों के हालात? इंदौर जिले के गवली पलासिया गांव के किसान रूपनारायण पाटीदार ने अपनी 13 बीघा जमीन पर लगी सोयाबीन की फसल पिछले दिनों उखाड़कर फेंक दी। वह कहते हैं कि बीते साल भी सोयाबीन का अच्छा भाव नहीं मिला था और उन्हें इस बार अपनी फसल से बहुत उम्मीद थी, लेकिन अबकि कमजोर बीज और खराब मौसम ने उन उम्मीदों पर पानी फेर दिया। सोयाबीन के पौधे काफी बढ़े, लेकिन उनमें फलियां नहीं आईं।

रूपनारायण पाटीदार, सोयाबीन की फसल खेतों से साफ करने के बाद • इस मौसम में रूपनारायण के खेत पूरी तरह खाली हैं, वह अब अगली फसल की तैयारी कर रहे हैं। उनके अनुसार, इस बार सोयाबीन में करीब 1.5 लाख रुपये की लागत आई थी; वह पैसा भी व्यर्थ गया। रूपनारायण बताते हैं कि बैंक ने बीमा प्रीमियम तो काट लिया था, लेकिन अब बीमा राशि की उम्मीद में वह बैंक के चक्कर लगा रहे हैं। कुछ ऐसी ही हालत मंदसौर जिले के गरोठ तहसील में रहने वाले किसान कमलेश पाटीदार की भी है। उन्होंने भी अपनी 10 बीघा जमीन में लगी सोयाबीन पर ‘रोटावेटर’ चला दिया। रिपोर्ट के मुताबिक, कमलेश ने जब अपनी पिछली फसल बेची तो उन्हें मुश्किल से 3800 रुपये का भाव मिला; जिसके बाद से वह दाम बढ़ने का इंतजार कर रहे थे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ऐसे में बाकी फसल को खेत से निकलवाकर तैयार करके मंडी तक ले जाने में काफी खर्च आता और यह खर्च उनकी लागत को नहीं पाट रहा था, तो उन्होंने अपनी फसल को ही खत्म कर दिया और अब लहसुन की अगली फसल के लिए खेत तैयार कर रहे हैं।

खेतों में खड़े सोयाबीन की फसल को रोग लग गए • ऐसी ही कहानी सीहोर जिले के किसान बनवारी लाल की भी है। उन्होंने जब मंडी में सोयाबीन के दाम सुने तो खेतों से अपनी फसल ही उखाड़ दी। भारतीय किसान संघ से जुड़े किसान सुभाष पाटीदार भी इंदौर जिले के गवली पलासिया गांव के ही निवासी हैं, वह बताते हैं कि पूरे इलाके में सोयाबीन की यही हालत है। सोयाबीन के पौधे काफी बड़े हो चुके हैं, लेकिन उनमें फलियां नहीं आई हैं। पाटीदार कहते हैं कि इस बार प्रति बीघा उत्पादन पिछले बार से आधा यानी, करीब दो क्विंटल तक ही रहने की आशंका है। महू मंडी में सोयाबीन की सफाई करते मजदूर • मध्य प्रदेश में सोयाबीन की खेती मध्य प्रदेश में सोयाबीन की खेती 50 लाख हेक्टेयर से अधिक जमीन पर की जाती है। लेकिन वर्तमान समय में ज्यादातर इलाकों से ऐसी ही खबर आ रही है कि सोयाबीन उत्पादक किसान बड़ी परेशानी में हैं।

प्रदेश के तकरीबन सभी हिस्सों में पीला मोजेक रोग सोयाबीन के लिए नुकसानदेह साबित हो रहा है। उसके अलावा पिछले दिनों हुई अनियमित बारिश भी फसल के लिए प्रतिकूल साबित हुई है, जिसके चलते फसल में कीट लग गए हैं; जो फूल को समय से पहले गिरा देते हैं। किसानों के मुताबिक, खेतों में फसल तो खड़ी नजर आ रही है लेकिन यह बाँझ फसल है; जो किसी तरह से उनके काम की नहीं है। विदिशा, नर्मदापुरम (होशंगाबाद), जबलपुर, धार, भोपाल, उज्जैन, इंदौर, रतलाम और मंदसौर जैसे दर्जनों जिलों में सोयाबीन की फसल में पर्याप्त फली न होने की परेशानी दिखाई दे रही है। उनमें से कई इलाकों के किसान मंडी में सोयाबीन के कम भाव के खिलाफ और फसल में हुए नुकसान के बाद फसल बीमा के तहत मुआवजा हासिल करने के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि किसान को सोयाबीन के जो दाम आज मिल रहे हैं, 10 दस साल पहले भी वही मिल रहे थे। साल 2014 में मंडियों में सोयाबीन अधिकतम 4400 रुपये प्रति क्विंटल के दाम पर बिक रहा था, जबकि आज भी मध्य प्रदेश की ज़्यादातर मंडियों में सोयाबीन के भाव करीब 3400 रुपये से 4400 रुपए प्रति क्विंटल के बीच ही झूल रहे हैं। ऐसे में यह तथ्य भी दिलचस्प है कि केंद्र सरकार ने खरीफ विपणन सत्र 2024-25 के लिए सोयाबीन का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 4,892 रुपये प्रति क्विंटल तय किया है, यानी मध्य प्रदेश में किसान एमएसपी से काफी कम दाम पर सोयाबीन बेचने को मजबूर हैं।

रतन लाल यादव, सोयाबीन किसान • ‘किसानी’ की हकीकत और उसकी बनायी गई छवि में अंतर धार जिले के किसानों का मानना है कि बाहरी दुनिया में खेती-बाड़ी की तस्वीर अवास्तविक ढंग से पेश की जाती है और बताया जाता है कि किसान मजे में हैं, लेकिन कोई किसानों की स्थिति को गहराई में जाकर समझने की कोशिश नहीं करता। यहां के किसान रतनलाल बताते हैं कि सोयाबीन का उत्पादन गिर रहा है और उसके भाव भी लाभदायक नहीं हैं। “भाव के बारे में तो अक्सर चर्चा होती रहती है, लेकिन किसान की लागत के बारे में कोई नहीं सोचता,” रतनलाल अफसोस जाहिर करते हुए कहते हैं। रतनलाल हमें सोयाबीन के बुआई से कटाई और मंडी तक ले जाने के खर्च का पूरा गणित और उत्पादन के अनुसार मिलने वाली रकम का ब्योरा देते हैं

– बीघा का खर्च और उत्पादन का गणित: • ​बीज का खर्च: एक बीघा में 20 किलो सोयाबीन के बीज की लागत 1500 से 2000 रुपये तक होती है। • ​भूमि की तैयारी: खेत की दो बार जुताई के लिए 450 प्रति बीघा के हिसाब से कुल खर्च 900 रुपये आता है। • ​बोवनी: एक बार बोवनी का खर्च 450 रुपये है।​• रासायनिक दवाई: खरपतवार नाशक पर 800 रुपये, कीटनाशक पर 3000 रुपये, और फफूंदनाशक पर 800 रुपये खर्च होता है। • ​मजदूरी: एक बार की निराई का खर्च 350 रुपये प्रति व्यक्ति के हिसाब से होता है। • ​कटाई: सोयाबीन की कटाई का खर्च 1100 रुपये प्रति बीघा है। • ​मंडी और परिवहन: मंडी शुल्क और बोरियों का खर्च 100 रुपये, जबकि डीजल खर्च 1000 रुपये तक आता है। सोयाबीन के पैकेजिंग एवं ढुलाई की प्रक्रिया • उक्त सभी खर्चों को मिलाकर, एक बीघा की लागत लगभग 10 हजार रुपये तक पहुंच जाती है।

रतनलाल कहते हैं कि उस दौरान उनकी खुद की और परिवार की मजदूरी नहीं जोड़ी जाती है। इस फसल के खर्च को अगर सरकार की नजर से देखें तो कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) की रिपोर्ट में सोयाबीन की उत्पादन लागत 3,261 रुपये प्रति क्विंटल बताई गई है, उसके अनुसार भी किसान को होने वाला संभावित लाभ बहुत कम है। महू मंडी में गजिंदा गांव से अपनी सोयाबीन बेचने आए किसान विमल पटेल • बाजार के आसरे किसान इंदौर जिले के गाजिन्दा गांव के किसान विमल पटेल अपनी उपज इंदौर जिले की महू मंडी में बेचने पहुंचे थे। उनका कहना है कि इस बार लागत नहीं निकल रही है, लेकिन वे बस इसलिए आए हैं कि जितना पैसा निकल सके; निकल जाए। अगर यह भी छोड़ दिया तो इस नुकसान से निकलना मुश्किल हो जाएगा। पटेल बताते हैं कि उन्होंने अपनी करीब 20 क्विंटल सोयाबीन 3600 रुपये प्रति क्विंटल के भाव में बेची है। कृषि विशेषज्ञ इस बात से इंकार नहीं करते कि फिलहाल सोयाबीन के दाम कम हैं, लेकिन वे उम्मीद जता रहे हैं कि आने वाले महीनों में उसके दाम बढ़ने वाले हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक, सोयाबीन के दाम अंतरराष्ट्रीय बाजार से तय होते हैं। मध्य प्रदेश ग्रेन मर्चेंट एसोसिएशन के सदस्य लाल साहब जाट कहते हैं, “सोयाबीन के रेट अंतरराष्ट्रीय बाजार और डीओसी (खली) की मांग के आधार पर तय होते हैं। अगर किसान सोयाबीन की बुआई के बाद उसे उखाड़ रहे हैं, तो यह गलत है। नवंबर और दिसंबर में सोयाबीन के रेट फिर से बढ़ सकते हैं; ऐसे में किसानों को सोयाबीन के अच्छे रेट के लिए इंतजार करना चाहिए।”

लेकिन, किसान अपना उप्ताद इसी बाजार के आसरे बेचने को मजबूर है। उनके मुताबिक, किसान को अपनी फसल सही दाम के इंतजार में भंडारित करना भी महंगा पड़ता है। उसके अलावा पुराने होते फसल के वजन में आने वाली कमी भी एक तरह का नुकसान ही है, जिसकी भरपाई बहुत मुश्किल होती है। बाजार की समझ रखने वाले विशेषज्ञों की राय से उलट किसान की आर्थिक स्थिति तय करती है कि वे अगले साल के लिए सोयाबीन रख सकते हैं या नहीं। इस बारे में धार जिले के किसान गोपाल यादव बताते हैं कि “सोयाबीन को लंबे समय तक रखने से फायदा हो ही जाए, यह तय नहीं है।” उन्होंने पिछले दो वर्षों से सोयाबीन को संभालकर रखा हुआ था, लेकिन उसके भाव में कोई खास बढ़ोत्तरी नहीं हुई है। वह कहते हैं, “अगर सोयाबीन के भाव में सुधार नहीं होता है तो आने वाले दिनों में किसानों को सोयाबीन की बजाय मक्का और अन्य फसलों की बुआई करने के लिए सोचना होगा।” मंडी में सोयाबीन का सीजन शुरू हो गया है, लेकिन कम दाम के चलते बहुत-से किसान अभी अपनी उपज लेकर नहीं आ रहे • मंडियों में कम आ रहा सोयाबीन धार जिले में भी सोयाबीन बड़ी मात्रा में उगाया जाता है, लेकिन इस बार यहां भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं दिखाई दे रही है। बीते साल बहुत अच्छे दाम मिलने की उम्मीद थी, लेकिन वैसा नहीं हुआ; ऐसे में किसान अब भी अपनी फसल रखे हुए हैं। इस साल वह भी अच्छे दाम मिलने की उम्मीद में थे, लेकिन ऐसा न होने के कारण फिलहाल मंडियों में सोयाबीन की बहुत ज्यादा आवक नहीं देखी जा रही है। जिले की मुख्य अनाज मंडी के सचिव किशोर नरगावे ने बताया कि सीजन के दौरान मंडी में 10 से 15 हजार बोरियों की आवक होती है,

लेकिन इस समय सोयाबीन की आवक घटकर 1878 बोरियों तक सीमित रह गई है। उनके मुताबिक, वर्तमान में सोयाबीन के भाव 3200 से लेकर 4100 रुपये प्रति क्विंटल तक चल रहे हैं। ऐसे में किसान सोयाबीन को अपनी वित्तीय जरूरत के अनुसार ही बाजार में ला रहे हैं। इंदौर के किसान मनमोहन गुणावद कहते हैं कि उनके सोयाबीन में भारी बारिश के चलते कीट और इल्लियों का प्रकोप है, जिसके कारण कीटनाशकों में हुए खर्च के कारण उनकी लागत और भी बढ़ गई है। उसके अलावा, इलाके में सोयाबीन में होने वाला पीला मोजेक रोग भी है; जो सोयाबीन को कमजोर कर रहा है। गुणावद बताते हैं कि आने वाले महीनों में दीपावली का बाजार भी है और बाजार की रौनक किसान से ही होती है, जबकि किसान की जेब सोयाबीन ने खाली कर दी है। वह कहते हैं, “सोयाबीन नकद फसल है और सितंबर तक पूरी तरह से मंडियों में पहुंच जाएगी। ऐसे में अगर किसानों को अच्छा भाव नहीं मिल रहा है तो दीपावली के पहले बाजारों पर भी उसका असर पड़ना तय है।” सोशल मीडिया पर बतौर पोस्टर प्रकाशित किसानों की अपील • क्या है सोयाबीन किसानों की मांग? देवास जिले के युवा किसान रंजीत किसानवंशी अपने साथियों के साथ सोयाबीन का सरकारी रेट बढ़ाने की मांग कर रहे हैं। वह इसे लेकर लगातार अभियान चला रहे हैं। रंजीत बताते हैं कि सोयाबीन की फसल में इतना घाटा हो रहा है कि किसान उस फसल के विकल्प की तलाश कर रहे हैं। हालांकि, रंजीत मानते हैं कि “जलवायु परिवर्तन के इस दौर में किसानों के लिए यह विकल्प चुनना भी आसान नहीं है।” किसानों से मिली जानकारी के मुताबिक, प्रदेश भर के किसान सितंबर महीने के पहले हफ्ते में अपने-अपने इलाकों में सोयाबीन के दाम छह हजार रुपए प्रति क्विटल करने के लिए गांव से लेकर जिला और प्रदेश स्तर तक ज्ञापन देंगे। सोयाबीन • “समस्या की जड़ में खराब बीज और खाद” मध्य प्रदेश कांग्रेस के किसान प्रकोष्ठ के अध्यक्ष केदार सिरोही कहते हैं कि राज्य में कम गुणवत्ता वाले बीज और खाद, फसलों में होने वाले घाटे का प्रमुख कारण हैं। सिरोही के मुताबिक, उनका आंकलन है कि प्रदेश में हर साल केवल उक्त समस्या की वजह से कृषि अर्थव्यवस्था को 15 हजार करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान होता है। वह कहते हैं, “कंपनियां कई बार किसानों तक खराब गुणवत्ता का बीज अच्छा बताकर पहुंचाती हैं, लेकिन जब किसान उसे बोता है तो आखिर में उसके हाथ निराश ही लगती है।” सिरोही का दावा है कि सोयाबीन की बिगड़ रही स्थिति में उक्त अव्यवस्था का बड़ा हाथ है। गौरतलब है कि कम गुणवत्ता वाले बीज की समस्या कई किसानों के मुंह से सुनने को मिलती है।

नरसिंहपुर जिले में गाडरवाडा के रहने वाले किसान रवि खजांची, किसान संघर्ष समिति के संरक्षक हैं। कम गुणवत्ता के बीज को लेकर वह अपना अनुभव साझा करते हुए बताते हैं कि उनके जिले में सोयाबीन की एक किस्म ‘ब्लैक बोल्ड’ शुरू में तीन वर्षों तक अच्छी रही; लेकिन अब उस किस्म की फसलों में फलियां तो आती हैं, मगर दाने नहीं निकल रहे हैं। उससे किसान परेशान हैं और वे अब सोचने लगे हैं कि सोयाबीन की फसल उगाना फायदेमंद नहीं है। केदार सिरोही भारत में सोयाबीन के लगातार कम हो रहे उत्पादन को भी किसान के घाटे के लिए जिम्मेदार बताते हैं। उनके मुताबिक, भारत में सोयाबीन की उपज अंतरराष्ट्रीय स्तर के मुकाबले काफी कम है और या तो यह स्थिर है या, फिर थोड़ी गिर रही है; लेकिन बढ़ती लागत के सामने यह किसान के लिए घाटे का कारण जरूर बन रही है। क्या है सरकार से किसानों की शिकायत? सोयाबीन के किसान अपनी लागत में हो रही बढ़ोत्तरी और बीते एक दशक से तकरीबन एक-से दिख रहे भाव से परेशान हैं। किसान कहते हैं, “भारत सरकार सोयाबीन के तेल का आयात लगातार बढ़ा रही है, जिससे स्थानीय स्तर पर सोयाबीन की मांग कम हो रही है और उसका परिणाम है कि आज बाजार में दाम कम है।”

धार जिले के ही बिलोदा के नौजवान किसान राहुल भाकर के अनुसार, “सरकार की नीतियों के कारण सोयाबीन के दाम स्थिर बने हुए हैं। बाहरी देशों से तेल आयात की वजह से भारतीय किसानों को नुकसान हो रहा है। पिछले दो से तीन वर्षों में सोयाबीन का दाम करीब 4000 रुपये प्रति क्विंटल पर स्थिर है, जबकि साल 2014 से डीजल, टायर, ट्रैक्टर, मजदूरी और दवाई के दाम चार गुना तक बढ़ चुके हैं। लेकिन, सोयाबीन के दाम इस दौरान केवल 10 से 20 फीसद तक ही बढ़े हैं।” सोयाबीन किसानों की कठिनाई की एक वजह सोयाबीन तेल के आयात से जुड़े निर्णय को भी माना जा रहा है। मध्‍य भारत किसान उत्पादक संघ (एफपीओ) के अनुसार, भारतीय सरकार ने ‘पाम ऑयल’ के आयात पर शुल्क हटा दिया है; जिसके परिणामस्वरूप भारत में सस्ता ‘पाम ऑयल’ उपलब्ध हो रहा है। उसका असर सोयाबीन खाद्य तेल उद्योग पर नकारात्मक रूप से पड़ा है। पाम ऑयल (ताड़ का तेल) की अधिक उपलब्धता और सोयाबीन जैसे खाद्य तेलों में उसके मिश्रण का बढ़ता उपयोग भारत में सोयाबीन की खपत को प्रभावित कर रहा है। देविंदर शर्मा, कृषि विशेषज्ञ • कृषि नीति विशेषज्ञ की राय देश के कृषि नीति विशेषज्ञ देविंदर शर्मा, मध्य प्रदेश में सोयाबीन किसानों की इस स्थिति पर कहते हैं, “सोयाबीन का दाम क्वालालंपुर (मलेशिया की राजधानी) के ‘कॉमोडिटी एक्सचेंज’ पर निर्भर करता है। वहां अगर दाम गिरते हैं तो भारत में भी गिरावट होती है। यह उतार-चढ़ाव किसानों के लिए संकट पैदा कर रहा है, खासकर तब जब सोयाबीन का दाम 12 साल पहले के स्तर पर वापस आ गया है। यह समस्या केवल भारत में ही नहीं, बल्कि विश्वभर में किसानों के लिए है।” देविंदर शर्मा संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास सम्मेलन (यूएनसीटीएडी) की रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताते हैं कि साल 1985 से 2005 तक किसानों को मिलने वाले फसल के दामों में महंगाई को समायोजित करके भी देखा गया तो कोई खास बढ़ोतरी नहीं हुई। उन्होंने आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) के अध्ययन का जिक्र करते हुए कहा कि वर्ष 2000 से 2016 के बीच भारतीय किसानों को 45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। शर्मा का मानना है कि सोयाबीन का मौजूदा दाम हमारी आर्थिक नीतियों की गलतियों का साफ संकेत है। उन्होंने कहा कि देश के अर्थशास्त्री किसानों को फसल आने पर तुरंत न बेचने की सलाह देते हैं, लेकिन मौजूदा हालात में यह ‘थ्योरी’ फेल हो चुकी है – क्योंकि सोयाबीन की अगली फसल सितंबर में आने वाली है और किसानों को पिछली फसल पर भी एमएसपी से कम दाम मिल रहे हैं।

किसान के लाभांश को बाजार पर निर्भर करने वाली नीति पर सवाल उठाते हुए देविंदर शर्मा ने सरकार की नई पेंशन स्कीम ‘एनपीएस’ पर भी सवाल उठाते हुए कहा कि अगर मंत्रियों और नौकरशाहों को बाजार पर इतना भरोसा है, तो उनकी ‘सैलरी’ भी ‘मार्केट लिंक’ कर दी जानी चाहिए। उन्होंने जोर देकर कहा कि किसानों की एकमात्र मांग ‘एमएसपी’ का कानूनी अधिकार है, जिसे हर हाल में लागू किया जाना चाहिए। केवल यही एक तरीका है जिससे किसान घाटे से उबरने की सोच सकता है। उनके मुताबिक, किसानों को अपनी उपज का उत्पादन 10 फ़ीसद कम करना चाहिए, ताकि मांग बढ़ सके। देविंदर शर्मा ने यह भी बताया कि सरकारें ‘सरप्लस’ उत्पादन की होड़ में हैं, जिससे ‘इंडस्ट्री’ को फायदा होता है लेकिन किसानों को नहीं। खाद्य तेल के आयात पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि एक समय भारत आत्मनिर्भर था, लेकिन अब वह दूसरे सबसे बड़े आयातक के रूप में उभरा है। “अगर हमें इस स्थिति से निकलना है, तो किसानों और उनके हितों को समझना होगा और उन्हें बाजार की अनिश्चितताओं से बाहर निकालना होगा,” शर्मा ने अपनी बात में जोड़ा। मध्य प्रदेश के कृषि मंत्री एंदल सिंह कंसाना • सोशल मीडिया किसानों के मसले पर क्या कहते हैं

कृकृषि नीति विशेषज्ञ की राय देश के कृषि नीति विशेषज्ञ देविंदर शर्मा, मध्य प्रदेश में सोयाबीन किसानों की इस स्थिति पर कहते हैं, “सोयाबीन का दाम क्वालालंपुर (मलेशिया की राजधानी) के ‘कॉमोडिटी एक्सचेंज’ पर निर्भर करता है। वहां अगर दाम गिरते हैं तो भारत में भी गिरावट होती है। यह उतार-चढ़ाव किसानों के लिए संकट पैदा कर रहा है, खासकर तब जब सोयाबीन का दाम 12 साल पहले के स्तर पर वापस आ गया है। यह समस्या केवल भारत में ही नहीं, बल्कि विश्वभर में किसानों के लिए है।” देविंदर शर्मा संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास सम्मेलन (यूएनसीटीएडी) की रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताते हैं कि साल 1985 से 2005 तक किसानों को मिलने वाले फसल के दामों में महंगाई को समायोजित करके भी देखा गया तो कोई खास बढ़ोतरी नहीं हुई। उन्होंने आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) के अध्ययन का जिक्र करते हुए कहा कि वर्ष 2000 से 2016 के बीच भारतीय किसानों को 45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। शर्मा का मानना है कि सोयाबीन का मौजूदा दाम हमारी आर्थिक नीतियों की गलतियों का साफ संकेत है।

उन्होंने कहा कि देश के अर्थशास्त्री किसानों को फसल आने पर तुरंत न बेचने की सलाह देते हैं, लेकिन मौजूदा हालात में यह ‘थ्योरी’ फेल हो चुकी है – क्योंकि सोयाबीन की अगली फसल सितंबर में आने वाली है और किसानों को पिछली फसल पर भी एमएसपी से कम दाम मिल रहे हैं। किसान के लाभांश को बाजार पर निर्भर करने वाली नीति पर सवाल उठाते हुए देविंदर शर्मा ने सरकार की नई पेंशन स्कीम ‘एनपीएस’ पर भी सवाल उठाते हुए कहा कि अगर मंत्रियों और नौकरशाहों को बाजार पर इतना भरोसा है, तो उनकी ‘सैलरी’ भी ‘मार्केट लिंक’ कर दी जानी चाहिए। उन्होंने जोर देकर कहा कि किसानों की एकमात्र मांग ‘एमएसपी’ का कानूनी अधिकार है, जिसे हर हाल में लागू किया जाना चाहिए। केवल यही एक तरीका है जिससे किसान घाटे से उबरने की सोच सकता है। उनके मुताबिक, किसानों को अपनी उपज का उत्पादन 10 फ़ीसद कम करना चाहिए, ताकि मांग बढ़ सके।

देविंदर शर्मा ने यह भी बताया कि सरकारें ‘सरप्लस’ उत्पादन की होड़ में हैं, जिससे ‘इंडस्ट्री’ को फायदा होता है लेकिन किसानों को नहीं। खाद्य तेल के आयात पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि एक समय भारत आत्मनिर्भर था, लेकिन अब वह दूसरे सबसे बड़े आयातक के रूप में उभरा है। “अगर हमें इस स्थिति से निकलना है, तो किसानों और उनके हितों को समझना होगा और उन्हें बाजार की अनिश्चितताओं से बाहर निकालना होगा,” शर्मा ने अपनी बात में जोड़ा।

मध्य प्रदेश के कृषि मंत्री एंदल सिंह कंसाना • सोशल मीडिया किसानों के मसले पर क्या कहते हैं कृषि मंत्री? सोयाबीन किसानों की समस्याओं को लेकर मध्य प्रदेश के कृषि मंत्री एंदल सिंह कंसाना कहते हैं कि उन्हें अब तक सोयाबीन किसानों की एक भी समस्या की जानकारी नहीं मिली है। उनके मुताबिक, “किसानों की समस्या की जो भी जानकारी है, वह निराधार है। यह जानकारी भी गलत है कि किसान अपने सोयाबीन को उखाड़कर फेंक रहे हैं। मैं अधिकारियों के पूरे संपर्क में हूं और ऐसी एक भी खबर मेरे पास नहीं आई है।” कृषि मंत्री से जब पूछा गया कि कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष ने भी पिछले दिनों एक किसान के अपनी सोयाबीन उखाड़ फेंकने की बात कही थी, क्या वह भी बेसिर-पैर की बात है? उस पर कंसाना कहते हैं, “मुझे उनके द्वारा लिखित शिकायत मिली थी, लेकिन जब मैंने उस मामले की जांच करवाई तो वैसा कुछ भी नहीं मिला।”

किसानों द्वारा सोयाबीन के 8 हजार रुपए प्रति क्विंटल का दाम मांगे जाने पर कंसाना कहते हैं, “यह ‘पॉलिसी मैटर’ है और उसका फैसला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री मोहन यादव करेंगे, जोकि किसान हितैषी काम कर रहे हैं,” कंसाना का मानना है कि सोयाबीन किसानों की स्थिति को लेकर किसी भी तरह की जांच की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह पूरी तरह निराधार बात है जिसे कांग्रेस ने हवा दी है। मंत्री कंसाना तक भले ही किसानों की समस्या न पहुंची हो, लेकिन किसान अपनी चिंताओं में उलझे हुए हैं।

नरसिंहपुर जिले के समनापुर गांव के किसान बाबूलाल पटेल कहते हैं कि वह पछतावा कर रहे हैं कि उन्होंने अपनी 30 एकड़ जमीन में से 10 एकड़ के रकबे में सोयाबीन की फसल लगाई थी, लेकिन पीला मोजेक और कीट लगने के बाद जो हालात हैं उससे तो फसल की लागत निकालना भी मुश्किल है। वहीं मंडी में जो दाम चल रहे हैं; उनसे भविष्य की उम्मीद भी नहीं रही।

उक्त मसले पर भारतीय जनता पार्टी के किसान मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष और नर्मदापुरम संसदीय क्षेत्र के सांसद दर्शन सिंह चौधरी कहते हैं कि किसानों की समस्याओं के बारे में उन्हें जानकारी है और वह उसे हल करने को लेकर हरसंभव प्रयास करेंगे। उन्होंने कहा कि किसान मोर्चा जल्द ही इस बारे में बैठक कर सोयाबीन किसानों की समस्याओं पर बात करेगा।

तीन किसानों ने नष्‍ट की फसल

‘फ्री प्रेस जर्नल’ की रिपोर्ट के मुताबिक, जिले में तीन ऐसे मामले सामने आए हैं, जहां किसानों ने अपनी खड़ी फसल नष्‍ट कर दी. पिछले हफ्ते एक किसान ने अपनी 7 एकड़ से अधि‍क खड़ी सोयाबीन की फसल पर ट्रैक्‍टर चला दिया था. किसान अपनी पुरानी फसल को मंडी में बेचने गया था, जिसका उसे कम दाम मिला. इसके बाद किसान ने खेत में लगी फसल को ही नष्‍ट कर दिया. कांग्रेस नेता जीतू पटवारी ने इसका वीडियो शेयर करते हुए एक्‍स पर पोस्‍ट किया था और राज्‍य सरकार को समर्थन मूल्य के मुद्दे पर घेरा था. हालांकि, भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने भी पलटवार करते हुए इसका जवाब दिया था. 

8 हजार रुपये समर्थन मूल्‍य की मांग की 

वहीं, क्षेत्र के किसान भरत सोलंकी और नाथूलाल पाटीदार ने कहा कि खेती घाटे का सौदा बन गई है. अक्सर उनकी फसलें कीटों या प्राकृतिक आपदाओं से बर्बाद हो जाती हैं. किसानों ने सरकार के आंकड़ों का हवाला देते हुए कि इस साल सोयाबीन का रकबा बढ़कर 125.11 लाख हेक्टेयर हो गया है. ऐसे में सोयाबीन के लिए 8,000 रुपये का समर्थन मूल्य दिया जाना चाह‍िए.