भारत को 2047 तक एक विकसित राष्ट्र बनाने में कृषि की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहने वाली है। भारतीय कृषि को अपनी मौजूदा 4 फीसदी की वृद्धि दर से बाहर निकलना होगा। विकसित भारत के लक्ष्य को पूरा करने के लिए अनुसंधान और विकास पर अधिक निवेश करना होगा। साथ ही फसलों के विविधीकरण पर भी जोर देना होगा। बिज़नेस स्टैंडर्ड द्वारा दिल्ली में आयोजित मंथन कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कृषि विशेषज्ञों व किसानों का प्रतिनिधित्व करने वालों ने कहा कि अगर किसानों की आय बढ़ानी है तो कृषि को बदलना होगा जिससे ज्यादा से ज्यादा लोग गरीबी से बाहर निकल सकें।
इस पैनल चर्चा में नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद, कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी, भारत कृषक समाज के चैयरमैन अजय वीर जाखड़ ने भाग लिया। नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद ने कहा कि अध्ययनों से पता चलता है कि कृषि में एक फीसदी वृद्धि से विनिर्माण व अन्य गैर कृषि क्षेत्रों की तुलना में 4 से 5 गुना अधिक गरीबी में कमी आती है। इसलिए समावेशी विकास के लिए कृषि महत्त्वपूर्ण है।
जाने माने कृषि अर्थशास्त्री व इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनैशनल इकनॉमिक्स रिलेशन्स (आईसीआरआईआईआर) के प्रोफेसर अशोक गुलाटी के कहा कि पहली चुनौती यह है कि न केवल लोगों को खाना खिलाना है, बल्कि उन्हें अच्छा खाना भी खिलाना है।
उन्होंने कहा, ‘मैं न केवल खाद्य सुरक्षा की तरफ देख रहा हूं, बल्कि पोषण की सुरक्षा भी चाहता हूं। इस समय 5 साल से कम उम्र के 35 फीसदी बच्चे ऐसे हैं जिनका कद छोटा (बौनापन) रह गया है। ये बच्चे 2047 तक कार्यबल का हिस्सा बनेंगे। अगर ये कद में छोटे रहेंगे तो उनकी आय की क्षमता भी कम रहेगी। वे कद में छोटे क्यों हैं? इसकी कई वजहें हैं। गुलाटी कहते हैं कि हमारी मिट्टी में जिंक की कमी हो गई है। इससे गेहूं और चावल में भी जिंक की कमी हो गई है। इसलिए इन बच्चों में बौनेपन की समस्या हो रही है।’
भारत कृषक समाज के चेयरमैन अजय वीर जाखड़ ने कहा कि हमारे सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद कृषि नीति विकसित भारत के लिए बड़ी बाधा है। कृषि में अनुसंधान व विकास बड़ी समस्या है। उन्होंने कहा कि हमें 2047 की तरफ देखने से पहले यह देखना होगा कि बीते 20 से 30 साल पहले कृषि नीति में क्या हुआ है? बीते 20 साल में कृषि क्षेत्र में अनुसंधान व विकास पर निवेश मुद्रास्फीति के स्तर से भी कम हुआ है। राज्य सरकारें कृषि में निवेश नहीं कर रही है।
कृषि विद्यालय व विश्वविद्यालय और अनुसंधान संस्थानों में 50 से 60 फीसदी पद खाली पड़े हैं। इन पदों को भरने में दशकों लग जाएंगे। मुझे नहीं लगता कि हम इन पदों को भरने की योजना बना रहे हैं। राज्य सरकारें मुफ्त बिजली, पुरानी पेंशन देने जैसे लोकलुभावन उपाय करने में अधिक रुचि रखती हैं। इसलिए कृषि को राज्यों का विषय बने रहने देना सही नहीं है।
जाखड़ ने भारत में कृषि नीति निर्धारण में कमी पर भी प्रकाश डाला। अगर हम वैश्विक स्तर पर देखें तो चीन, अमेरिका जैसे देश अपने किसानों को राहत देने के लिए नियमित अंतराल पर अपनी कृषि नीतियों में बदलाव करते हैं, जबकि भारत में दशकों से वही सब्सिडी और अन्य मुद्दों वाली नीतियां चली आ रही हैं।
उन्होंने कहा कि किसी भी राजनीतिक दल के पास किसान नेता नहीं हैं, जिन्हें किसान अपने प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार करते हैं। इससे राज्य और केंद्र दोनों सरकारों के बीच मतभेद पैदा होता है। कृषि कानून के लिए किसानों से सलाह नहीं ली गई और न ही न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय करते समय उनसे सलाह ली गई।
गेहूं और चावल से उच्च मूल्य वाली फसलों, डेरी,मछली पालन, पोल्ट्री की ओर किसानों के विविधीकरण की धीमी गति के सवाल पर विशेषज्ञों ने कहा कि आम धारणा के विपरीत विविधीकरण हो रहा है। लेकिन इसकी गति को तेज करने के लिए इन क्षेत्रों के उत्पादकों के लिए अधिक मूल्य दिलाने की आवश्यकता है।
चंद ने कहा कि मैं नहीं समझता कि भारत में फसल विविधीकरण असफल रहा है। दो तरह का विविधीकरण है। पहला चावल और गेहूं से दलहन और तिलहन की ओर जाना। पर यहां मुद्दा यह है कि भले ही यहां एमएसपी दे दिया जाए पर इन फसलों को उगाने पर किसानों को गेहूं और चावल जितना लाभ नहीं होता है। चंद के मुताबिक दूसरी तरफ उच्च मूल्य वाली वैकल्पिक फसलों की ओर विविधीकरण होना है।
अगर आप बागवानी फसलों की ओर विविधीकरण करते हैं तो इन फसलों से आय गेहूं व चावल जैसी खेतों में उगाई जाने वाली अन्य फसलों से आमतौर पर 4 गुना ज्यादा आय होती है। इसलिए जिस राज्य में इन उच्च मूल्य वाली फसलों पर जोर दिया जाता है, उस राज्य की कृषि वृद्धि दर उच्च रहती है। कई राज्यों में इस तरह का विविधीकरण हो रहा है। दूसरी ओर गुलाटी का मानना है कि मछली और मुर्गी पालन की दिशा में विविधीकरण हो रहा है।
उन्होंने कहा, ‘आज भारतीय कृषि उस बिंदु पर पहुंच गई है जहां बाजार अपने आप चल रहा है और यह सबसे अच्छा विकास कर रहा है। जहां बहुत अधिक हस्तक्षेप है, वहां वे बढ़ नहीं रहे हैं।’ खेती का मतलब एमएसपी फसलें नहीं हैं। 70 से 80 फीसदी फसलें एमएसपी के दायरे से बाहर हैं। सबसे ज्यादा 8 फीसदी वृद्धि दर पोल्ट्री की है। उसके बाद मछली पालन फिर डेरी आदि की है। पारंपरिक कृषि इनसे बहुत पीछे है।
जाखड़ ने कहा कि किसान अपनी पसंद से कुछ नहीं उगाते हैं, बल्कि वही उगाते हैं जिसकी बाजार में मांग रहती और जिस पर प्रोत्साहन मिलता है। यह कहना गलत है कि विकास उन क्षेत्रों में हुआ है, जहां सरकार हस्तक्षेप नहीं कर रही है। बल्कि मांग ने विविधीकरण में मदद की है। जाखड़ ने कहा कि जब लोग बेहतर भोजन की आकांक्षा करेंगे, तो किसान उस ओर स्थानांतरित हो जाएंगे। सरकार ने योजनाएं आजमाई हैं। लेकिन जब तक मांग नहीं बढ़ेगी इससे मदद नहीं मिलेगी। हमें कुछ किसानों की सफलता के उदाहरण मिलते हैं लेकिन यह पूरी तस्वीर नहीं दिखाता है। कृषि में बहुत सी समस्याएं आ रही हैं क्योंकि अंतरराष्ट्रीय सलाहकार सरकार की मदद कर रहे हैं और उन्हें इस बात का पता नहीं रहता है कि जमीनी स्तर पर कैसे काम करना है?
एमएसपी को कानूनी वैद्यता देने के सवाल पर विशेषज्ञों ने कहा कि यह इस क्षेत्र को बर्बाद कर देगा। गुलाटी ने कहा कि किसान बेहतर आमदनी चाहते हैं। इसका एक तरीका जोखिम को कम करना है। जोखिम की वजह से ही किसान एमएसपी की मांग कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि 25 फसलों के मूल्य में 25 फीसदी वृद्धि से इन फसलों की अत्यधिक आपूर्ति हो जाएगी। जिसके परिणामस्वरूप सब कुछ सरकार की खरीद पर निर्भर हो जाएगा।
इस मसले पर रमेश चंद ने कहा कि इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि एमएसपी की आवश्यकता है। उत्पादन में छोटे से उतार-चढ़ाव से कीमतों में भारी बदलाव हो सकता है। कई बार देखा गया है कि उत्पादन 5 फीसदी बढ़ने पर भी दाम 50 फीसदी तक गिर जाते हैं। विशेषज्ञों द्वारा सुझाए गए एमएसपी का स्वागत है। लेकिन किसान मनमाने ढंग से लागत से 50 प्रतिशत अधिक मांगते हैं तो उस पर स्पष्टीकरण की आवश्यकता है।
चंद ने कहा कि इस पर स्वर्गीय डॉ. एमएस स्वामीनाथन की ओर से भी तर्कसंगत जवाब नहीं मिला। ऐसे में यह जानना महत्वपूर्ण है कि तार्किक एमएसपी क्या है? जाखड़ ने कहा कि कानूनी एमएसपी की पूरी अवधारणा ही बहुत सारी अस्पष्टता में फंसी हुई है। कोई भी सरकार सही मायनों में कानूनी एमएसपी नहीं देगी। उन्होंने कहा कि 90 फीसदी किसानों के पास एक हेक्टेयर से भी कम जमीन है।