छत्तीसगढ़ कासफल किसान राजाराम त्रिपाठी:खेती के लिए करते हैं हेलिकॉप्टर का इस्तेमाल

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 दिल्ली से 1,500 किलोमीटर दूर छत्तीसगढ़ का कोंडागांव जिला दो वजहों से प्रसिद्ध है। एक तो वहां की शिल्प कला और दूसरी प्राकृतिक सुंदरता। लेकिन धीरे-धीरे जिले के एक बेहद सफल किसान भी यहां की पहचान बनते जा रहे हैं। इनका नाम है राजाराम त्रिपाठी। हाल ही में हेलिकॉप्टर खरीदने वाले त्रिपाठी ‘काले और सफेद सोने’ की खेती करते हैं। काला सोना यानी काली मिर्च और सफेद सोना यानी सफेद मूसली। सोना इसलिए क्योंकि बाजार में इस वक्त अच्छी क्वालिटी की काली मिर्च करीब 1,000 रुपये प्रतिकिलो के भाव बिक रही है। वहीं, सफेद मूसली की कीमत 2,000 रुपये से भी ज्यादा है।

सर्वश्रेष्ठ किसान का अवॉर्ड

दो बार पीएचडी कर चुके राजाराम त्रिपाठी को 6 बार देश के सर्वश्रेष्ठ किसान का अवॉर्ड मिल चुका है। वे अपनी पारिवारिक 700 एकड़ जमीन पर खेती करते हैं। इस जमीन से होने वाली फसल बेचने के बाद उनका सालाना टर्नओवर 70 करोड़ रुपये तक पहुंच जाता है। खेती करने की उनकी तकनीक बेहद अलग है। वो अपनी फसलें अमेरिका, जापान और अरब देशों में भी सप्लाई करते हैं। ऐसा नहीं है कि डॉ. राजाराम त्रिपाठी शुरू से ही इतने समृद्ध किसान हैं। उन्होंने तो यह काम बैंक की नौकरी छोड़ने के बाद शुरू किया। अपनी जर्नी के बारे में बात करते हुए राजाराम बताते हैं…

वह बताते हैं ‘मेरे दादाजी के पास 30 एकड़ जमीन हुआ करती थी। पिताजी भी किसानी करते थे। पढ़ने-लिखने के बाद मेरी नौकरी एसबीआई के ग्रामीण बैंक में लग गई। मैं नौकरी करने लगा। लेकिन मेरा दिल और मन अपने खेतों में ही लगा रहता था। दो-तीन साल तक ऐसे ही चलता रहा, फिर 1995 में मैंने नौकरी छोड़कर पूरी तरह से खेती करने का फैसला किया। मैंने अपने जनरल मैनेजर को इस्तीफा भेज दिया। लेकिन उन्होंने सालभर तक इस्तीफा स्वीकार नहीं किया। सालभर बाद जीएम ने फोन कर मुझे कहा कि चेयरमैन ने मुझे मिलने के लिए बुलाया है। उन्होंने मुझसे पत्नी को साथ लाने के लिए कहा। वे जानना चाहते थे कि मेरे फैसले पर पत्नी की क्या राय है।

नौकरी नहीं छोड़ने दे रहे थे बैंक चेयरमैन

त्रिपाठी आगे बताते हैं… मैं चेयरमैन साहब के दफ्तर में पहुंचा। मेरी पत्नी भी मेरे साथ थीं। चेयरमैन साहब ने उनसे पूछा कि आपके पति अच्छी खासी बैंक की नौकरी छोड़कर खेती करना चाहते हैं, क्या आपको यह बात पता है? मेरी पत्नी ने उनसे कहा कि वह मेरे फैसले से सहमत है। वो मुझे समझाते रहे कि अगर में 3-4 साल और नौकरी कर लूं तो वीआरएस मिल जाएगा। मैंने उनसे कहा कि जब मैं बैंक में रहता हूं तो मेरा ध्यान खेत में लगा रहता है और जब खेतों में जाता हूं तो दिमाग में बैंक रहता है। मैंने दिल की सुनने का फैसला करते हुए ही इस्तीफा दिया है। मेरे इतना कहते ही चेयरमैन ने मेरा इस्तीफा स्वीकार कर लिया।

क्या है त्रिपाठी की खेती का मॉडल

राजाराम त्रिपाठी कहते हैं कि अब किसानों को गेहूं और चावल की खेती से ऊपर उठना होगा। उनका मॉडल इस पारंपरिक खेती से बिल्कुल अलग है। वह अपनी पूरी जमीन के 10 फीसदी हिस्से पर पेड़ लगाते हैं। खेत के अंदर बनी पेड़ों की इस दीवार के अंदर ही वह खेती करते हैं। इसके कई फायदे होते हैं। तेज धूप सीधे फसलों को प्रभावित नहीं करती। गर्म हवा फसलों को नहीं लगती। ऐसे पेड़ लगाए जाते हैं, जो हमेशा हरे-भरे रहते हैं और जिसकी पत्तियां रोज गिरती रहती हैं। ये पत्तियां जमीन पर गिरकर नमी पैदा करती हैं। इससे जमीन जल्दी नहीं सूखती और बाद में पत्तियां सड़कर खाद बना देती हैं। हमारी जमीन पर इन पत्तियों से अपने आप करीब 6 टन खाद बनता है। हम ऐसा पेड़ लगाते हैं, जो नाइट्रोजन लेकर सीधे जड़ों में भेजता है। इससे 3 फीसदी गर्मी कम महसूस होती है।

ऑस्ट्रेलियन बबूल की खेती

राजाराम त्रिपाठी आगे बताते हैं…

  • हम जमीन के चारों तरफ ऑस्ट्रेलियन बबूल के पेड़ लगाते हैं। प्रति एकड़ का खर्च 2 लाख रुपये आता है। 10 साल बाद इन पेड़ों की लकड़ियां दो से ढाई करोड़ रुपये में बिकती हैं।
  • भारत हर साल करीब 45 लाख करोड़ रुपये की लकड़ी दूसरे-देशों से इंपोर्ट करता है। अगर इस मॉड्यूल के साथ खेती की जाए तो हम मुनाफा कमाने के साथ देश का सहारा भी बन सकते हैं।
  • हम वर्टिकल खेती करते हैं। इसमें लताओं वाली खेती शामिल है, जो एक एकड़ में 50 एकड़ के बराबर फसल देती है। काली मिर्च की लताएं पेड़ों पर लटकी रहती हैं। बीच की बची जगह पर हल्दी, मूसली और अश्वगंधा लगा देते है।
  • काली मिर्च की पैदावार तीसरे साल से होती है। 4-5 लाख रुपए एकड़ मिल जाता है। बीच की 90 फीसदी जगह खाली रहती है। उसमें शलजम, टमाटर, चने, भिंडी जिसकी चाहे खेती कर सकते हैं।
  • काली मिर्च के लिए पहले सिर्फ केरल के मालाबार का नाम ही प्रसिद्ध था, लेकिन हमने इसे छत्तीसगढ़ के जंगलों में उगाकर दिखा दिया। हमारी काली मिर्च की क्वालिटी कहीं बेहतर है।
  • हमने हमारी काली मिर्च को सिलेक्शन प्रोसेस से डेवलप किया है, इससे हमें दूसरों की तुलना में चार गुना ज्यादा प्रोडक्शन मिलता है। ये किसी चमत्कार से कम नहीं, जिसे हमने कर दिखाया है।
  • काली मिर्च की खेती वन टाइम इन्वेस्टमेंट है। इसके पौधे एक बार लगाने के बाद यह 100 साल तक फसल देते हैं। ये सीधे तौर पर लाभ की खेती है।
  • खेती के लिए करते हैं हेलिकॉप्टर का इस्तेमाल

किसान त्रिपाठी को हेलिकॉप्टर वाला किसान भी कहा जाता है। हेलिकॉप्टर खरीदने के आइडिये को लेकर राजाराम त्रिपाठी कहते हैं कि उन्होंने हेलिकॉप्टर खेती के इस्तेमाल के लिए ही खरीदा है। दरअसल, उनकी और उनके समूह की हजारों एकड़ जमीन पर दवा का छिड़काव एक साथ करना होता है। इंसान ये काम तेजी से नहीं कर सकते, इसलिए वह हेलिकॉप्टर की मदद से पूरे खेत में दवा का छिड़काव कराते हैं। वह बताते हैं कि हमारे देश के लिए यह नई बात है, लेकिन अमेरिका और यूरोप में खेती के लिए हेलिकॉप्टर का इस्तेमाल आम है। सरकार को इसे पॉलिसी बनाने के लिए आगे आना चाहिए, क्योंकि तकनीक के इस्तेमाल से ही फसलों की पैदावार बढ़ाई जा सकती है।

पूरे इलाके के किसानों का करते हैं प्रतिनिधित्व

राजाराम त्रिपाठी अपने पूरे इलाके में किसानों का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनके साथ 25 से 30 गांवों के करीब 20-25 हजार किसान जुड़े हुए हैं। ये सभी अपनी-अपनी खेती तो अलग करते हैं, लेकिन बाजार में अपनी पूरी फसल की मार्केटिंग एक साथ करते हैं। इससे ये किसान पूरे दमखम से अपनी उपज का दाम मांगते हैं और खरीदार को बेस्ट क्वालिटी का माल देते हैं। उनके पूरे समूह की बात की जाए तो ग्रुप का सालाना टर्नओवर 600-700 करोड़ रुपये है। राजाराम त्रिपाठी खेती पर लेक्चर देने के लिए 40 से ज्यादा देशों में जा चुके हैं, जिनमें जर्मनी, हेमबर्ग, हॉलैंड, ईरान, दुबई, कतर, इथीयोपिया, दक्षिण अफ्रीका, मोजंबिक और ब्राजील शामिल है। राजाराम त्रिपाठी मां दंतेश्वरी हर्बल ग्रुप भी चलाते हैं, जिसके प्रोडक्ट विदेशों तक में सप्लाई होते हैं। इस ग्रुप को उनकी बेटी अपूर्वा त्रिपाठी संभालती हैं।

आसान नहीं था सब-कुछ, परेशानियां भी झेलीं

राजराम त्रिपाठी बताते हैं कि बैंक से इस्तीफा देने के बाद उन्होंने पूरे मन से खेती शुरू की और आज उनके परिवार के पास करीब 700 एकड़ जमीन है। हर साल होने वाली कमाई से वह अपनी थोड़ी-थोड़ी जमीन और बढ़ाते जा रहे हैं। वह बताते हैं कि सब कुछ इतना आसान नहीं था कई बार उतार चढ़ाव भी देखने को मिले। साल 2003 की घटना को याद करते हुए त्रिपाठी बताते हैं कि तब उन्होंने स्टेट बैंक से 1 करोड़ 56 लाख रुपए का सबसे बड़ा कृषि लोन लेकर 50 एकड़ में सफेद मूसली की खेती की। उस समय भाव 1,200 रुपये प्रति किलो चल रहा था। लेकिन जब माल बाजार में आया तो रेट 900 रुपये प्रतिकिलो हो गया। उन्होंने कुछ दिन रुकने का फैसला किया, लेकिन कुछ ही दिनों में रेट गिरकर 400 रुपये पर आ गया। अब मूसली छीलने और सुखाने का खर्च ही 200 रुपये प्रतिकिलो था तो तय किया कि अभी फसल नहीं बेचेंगे। हमने पता किया तो कहीं रेट डाउन नहीं था। ये बिचौलियों की करतूत थी। बिचौलिये से मिलने गए, लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा। हमने फसल नहीं बेची। बैंक का लोन एनपीए हो गया। जमीन बिकने की नौबत आ गई। घाटा होने के कारण अगले साल किसानों ने मूसली की खेती नहीं की। वही, बिचौलिये हमारे पास आए कि पिछले साल का माल न बेचा हो तो हमें 1,200 के भाव में दे दो। हमने कहा अब तो 1,370 रुपये में देंगे और वे खुशी-खुशी ले भी गए। हम स्ट्रेटजी के साथ बनाकर काम करते हैं, तब हरगिज माल नहीं बेचते, जब सबका माल बाजार में बिकने आता है।

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