मई-जून में दिन का पारा 45 डिग्री तापमान से लेकर कहीं-कहीं 49 डिग्री के आंकड़े को भी छू जाता है. ऐसे में गर्म हवाएं भी चलती हैं जिन्हें लू के थपेड़े कहते हैं. गर्मियों के ऐसे मौसम में इंसानों के साथ-साथ पशु भी बेहाल हो जाते हैं. खासतौर पर ऐसे पशु जो उत्पादन जैसे दूध, मीट और ऊन के लिए पाले जाते हैं. क्योंकि इंसानों की तरह से गाय-भैंस भी हीट स्ट्रैस का शिकार होते हैं. और यही वो वक्त होता है जब सबसे बड़ी परेशानी का सामना करना पड़ता है.
और वो बड़ी परेशानी है दूध उत्पादन का कम होना. इस मौसम में पशुओं को न तो खुले में चरने का मौका मिलता है और न ही खूंटे पर जरूरत के मुताबिक हरा चारा मिल पाता है. और नतीजा ये होता है कि दूध उत्पादन लगातार कम होता चला जाता है. अब सवाल ये उठता है कि ऐसे में दूध की डिमांड कैसे पूरी की जाती है. क्योंकि गर्मियों में तो दही, आइसक्रीम और लस्सी के चलते डिमांड और ज्यादा बढ़ जाती है.
डेयरी सेक्टर में ऐसे काम करता है फ्लश सिस्टम
डेयरी एक्सपर्ट नीरज सिंह बताते हैं कि कई बार डेयरियों को दो तरह के हालात का सामना बहुत करना पड़ता है. जैसे कभी-कभी बाजार में दूध की डिमांड ज्यादा हो जाती है. दूसरा ये कि कई बार पशुपालकों की ओर से दूध की सप्लारई कम होने लगती है. ऐसे ही वक्त में फ्लश सिस्टम से शहरों को दूध की सप्लाई की जाती है. और गर्मियों में तो ये हर साल ही होता है.
फ्लश सिस्टम में तैयार किया जाता है मक्खन-पाउडर
नीरज सिंह का कहना है कि जब डेयरी में एक्सट्रा दूध होता है तो उसका मक्खन बना लिया जाता है, साथ दूध का पाउडर भी तैयार कर लिया जाता है. और जब दूध की जरूरत पड़ती है तो फ्लश सिस्टम में से मक्खन और मिल्क पाउडर लेकर उन्हें मिला दिया जाता है. यह मिक्चर पहले की तरह से ही दूध बन जाता है. जब बड़े-बड़े आंदोलन के दौरान या फिर शहरों में कर्फ्यू लगा होने के चलते डेयरी तक पशुपालक का दूध सप्लाई नहीं हो पाता है तो ऐसे में फ्लश सिस्टम ही काम आता है.