अस्सी प्रतिशत से अधिक आबादी कृषि पर निर्भर रहने वाले बिहार में राज्य सरकार अभी पैक्स का चुनाव करवा रही है। पैक्स यानी कि प्राइमरी एग्रीकल्चर कोआपरेटिव सोसाइटी, हिंदी में कहे तो प्राथमिक कृषि ऋण समितियां। बिहार में हर पांच साल में पंचायत स्तर पर पैक्स अध्यक्ष व सदस्यों का चुनाव होता है। किसानों की बेहतरी के लिए होने वाले इस चुनाव को लेकर ज़्यादातर किसानों तक जागरूकता नहीं फैलाई गई है। अधिकांश किसान वोटर नहीं हैं, वहीं जो किसान वोटर हैं, वह चुनाव में दिलचस्पी ना के बराबर रख रहे हैं।
“देखिए पैक्स चुनाव हो या कोई चुनाव.. सब जाति और क्षेत्र देखकर दिया जाता है। वैसे भी अधिकांश किसान को पैक्स से कोई मतलब नहीं है। यहां ना खाद पैक्स देता है ना अधिकांश किसानों से अनाज पैक्स खरीदता है।” बिहार के सुपौल जिला स्थित बभनगामा गांव के अनिल मिश्रा बताते है।
सुपौल के ही पड़ोसी जिला सहरसा के रहने वाले नवीन ठाकुर कहते हैं कि “एक तो गांव में वैसे ही लोग कम है। उसमें भी पैक्स का वोटर अलग होता है। किसी को मतलब नहीं है इस चुनाव से। सब दिल्ली पंजाब कमाने के लिए जा रहे हैं।”
वहीं सहरसा जिला के ही रहने वाले रंजन मिश्रा बताते हैं कि “गांव में स्थिति इतनी खराब है कि पैक्स अध्यक्ष अपने विरोधी लोगों को वोटर लिस्ट में शामिल नहीं करते हैं। पैक्स चुनाव में सिर्फ सदस्य लिस्ट में शामिल व्यक्ति ही वोट कर सकते हैं। नियमानुसार ऑनलाइन सदस्यता के लिए आवेदन किया जाता है। हालांकि बिना पैक्स अध्यक्ष के मंजूरी के सदस्य लिस्ट में जोड़ा नहीं जाता है। इस वजह से वर्त्तमान अध्यक्ष अक्सर उन्हें ही सदस्य बनने की मंज़ूरी देता है, जो उसे वोट करे।”
बिहार में हो रहा पैक्स चुनाव
बिहार में 26 नवंबर 2024 से 3 दिसंबर 2024 के बीच पांच चरणों में 6,422 पैक्स में चुनाव होने वाला है। अध्यक्ष पद का चुनाव जीतने वाले शख़्स ही अगले पांच वर्षों तक किसानों की फसलों को सरकार द्वारा तय मूल्य पर खरीदता है। बिहार में कुल 8,484 पैक्स हैं। बाकी पैक्स का कार्यकाल वर्ष 2026 में पूरा होगा। पहले चरण में 1608, दूसरे में 740, तीसरे में 1659, चौथे में 1137 और पांचवें चरण में 1278 पैक्स के लिए चुनाव होंगे।
नीतीश कुमार 2005 में मुख्यमंत्री बनने के एक वर्ष के बाद वर्ष 2006 में मंडी व्यवस्था ख़त्म कर राज्य के किसानों के लिए पैक्स का सिस्टम लाया। आपको बता दें कि बिहार सरकार पैक्स के माध्यम से मुख्य रूप से अनाज खास कर धान, गेहूं और मक्का खरीदती है, जिसके लिए सरकार हर वर्ष एक निश्चित कीमत तय करती है। एपीएमसी मंडियों को खत्म करने के पीछे तत्कालीन सरकार ने ये तर्क दिया था कि पीएसीएस के माध्यम से किसानों और व्यापारियों को किसानों की उपज की बिक्री और खरीद से संबंधित आज़ादी मिलेगी। इसके साथ ही कृषि क्षेत्र में निजी निवेश के जुड़ने से किसानों को फायदा होगा। लेकिन लगभग 18 साल के बाद भी राज्य में अनाज की खरीद और बिक्री निजी निवेश को आकर्षित नहीं कर पा रही है। अधिकांश किसान आज भी निजी व्यापारियों को नुकसान में अनाज बेचने को मजबूर हैं।
2006 में बिहार सरकार के द्वारा लाया गया पैक्स एसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदता है, लेकिन आम लोगों के मुताबिक यह समितियां, पैक्स अध्यक्ष और अधिकारियों के लिए पैसे कमाने का एकमात्र जरिया बन कर रह गई हैं।
पैक्स की कहानी-किसानों की जुबानी
पैक्स को लेकर सरकार दावा करती हैं कि पैक्स एवं किसानों के बीच बहुत आसानी से अनाज का खरीद बिक्री होता है एवं किसानों के द्वारा पैक्स को अनाज बेचने के 48 घंटों के अंदर अनाज की कीमत किसानों के बैंक खाते में भेज दी जाती है। हालांकि ज़मीनी हकीकत इससे कोसो दूर है।
सहरसा जिला स्थित बनगांव के सीमांत किसान नंदन खां बताते हैं कि “बिहार सरकार ने पैक्स के माध्यम से अनाज खरीदने का सिस्टम बनाया था। सरकार का मकसद बिचौलियों को सिस्टम से खत्म करने का था। आज तक हम जैसे छोटे व्यापारियों के पास कोई भी पैक्स का सदस्य उपज खरीदने के लिए नहीं आया। छोटे किसान जो 2-4 क्विंटल अनाज पैदा करते हैं, वे पैक्स में नहीं जाते और बिचौलियों को बेचना पसंद करते हैं।
वहीं सहरसा के मुरादपुर के रहने वाले हरीनाथ कहते हैं कि ”सरकार को अपनी उपज बेचने के लिए किसानों को बहुत सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है जैसे कि सरकारी खरीद में भुगतान देर से मिलता है। अध्यक्ष के नजदीकी लोगों का ही जल्दी अनाज खरीदा जाता है। ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन कराना भी गांव के किसानों के लिए किसी संघर्ष से कम नहीं है। पैक्स में धान की खरीद के लिए कागज़ी कार्रवाई की लंबी प्रक्रिया से किसान परेशान रहते हैं। इस वजह से किसानों को बिचौलियों के माध्यम से अनाज बेचना पड़ता है। पैक्स अफसरशाही और राजनीति का गठजोड़ बनकर रह गया है।”
सुपौल के वीणा पंचायत के रहने वाले राजन मिश्रा बताते हैं कि “जब धान या गेहूं की कटाई होती है, तब पैक्स के रेट से निजी व्यापारी ₹500 कम क्विंटल रेट देते है। लेकिन छोटे किसानों को फायदा यह है कि रुपया तुरंत मिल जाता है। अनाज लेकर जाना नहीं पड़ता है। पैक्स में आज अनाज दीजिए तो रुपया 1 साल के बाद मिलता है। ऐसे में छोटा व्यापारी क्या करेगा?”
वीणा पंचायत के ही अरुण मिश्रा बताते हैं कि “अभी गेहूं की कीमत ₹3000 क्विंटल है। जब हम बेचे थे उस वक्त, 1800 से ₹1900 बेचे थे। क्योंकि अनाज को रखने की जगह नहीं है। अगर पैक्स के माध्यम से अनाज भंडारण की सुविधा रहती तो किसानों को काफी फायदा होता।” कृषि विभाग बिहार में अभी 12 जिले में कोल्ड स्टोरेज नहीं है।
नुकसान से बचने के लिए हरीनाथ, राजन मिश्रा और नंदन खां जैसे किसान स्थानीय व्यापारियों को अपनी उपज बेचने पर मजबूर हैं। गौरतलब है कि राज्य में 104.32 लाख किसानों के पास कृषि भूमि है। जिसमें 82.9 प्रतिशत भूमि जोत सीमांत किसानों के पास है और 9.6 प्रतिशत छोटे किसानों के पास है।
बिहार में धान खरीद की रफ्तार धीमी
बिहार के भागलपुर जिला के रहने वाले सुबोध कुमार किसानों के हक के लिए काम करते रहते है। वह बताते हैं कि ”अभी बिहार में पैक्स चुनाव है। इसके बावजूद पैक्स धान की खरीद ठीक से नहीं कर रही है। हर बार यही स्थिति रहती है।”
बिहार सरकार ने इस साल 45 लाख मीट्रिक टन धान खरीद का लक्ष्य तय किया है, लेकिन शुरुआत के पंद्रह दिनों में केवल 15 हजार मीट्रिक टन धान की ही खरीद हो पाई है।
बिहार में पैक्स राजनीतिक मुद्दा बनता रहा है
2022 को राज्य के तत्कालीन कृषि मंत्री सुधाकर सिंह ने मंडी को फिर से शुरू किया जाए और दूसरा किसानों को अनाज के लिए प्रोक्योरमेंट के लिए मल्टीपल एजेंसी का ऑप्शन दिया जाए। पैक्स के अलावा अन्य एजेंसियों से भी अनाज बेचने का ऑप्शन किसानों को देने से भ्रष्टाचार खत्म होगा।
वहीं 2023 में बक्सर के एक किसान सभा में राकेश टिकैत ने मंडी कानून के मुद्दे पर बोलते हुए कहा था कि यहां मंडी कानून लागू होना चाहिए ताकि बिहार के किसानों को राज्य से बाहर जाकर मजदूरी ना करना पड़े।
बिहार राज्य के विक्रम विधानसभा क्षेत्र में डॉक्टर ममतामइ प्रियदर्शनी ने भी सहकारिता विभाग के द्वारा हो रही धान खरीद में हो रही देरी और अनियमितता को लेकर चिट्ठी लिखी थी कि पूरे बिहार की यही स्थिति है