जहां तक अच्छे उत्पादन का प्रश्न है, यदि भूमि की तैयारी अच्छी तरह से हो जाये तो बुआई अंकुरण और स्वस्थ पौधों के मिलने का अनुमान लगाया जा सकता है।हमारे देश का लगभग 60 प्रतिशत भाग ऐसा है जहां पर रबी की बुआई वर्षा आधारित होती है। साथ ही, इसी हिस्सों को यदि नमी मिल गई हो तो वहां की औसत उपज बढ़ाना आसान हो जाता है।जहां तक गेहूं का प्रश्न है अधिकांश क्षेत्र सिंचित होता है और सिंचाई के लिये जल के विभिन्न स्त्रोत होते हैं।
सर्वाधिक सिंचाई कमांड क्षेत्र में उपलब्ध रहती है, रबी की दूसरी फसल चना है, जिसकी बुवाई के लिए भूमि चयन, भूमि की तैयारी से लेकर रखरखाव तक में आमतौर पर उतनी चिंता नहीं की जाती है, जितनी गेहूं की चिंता की जाती है।चना के साथ-साथ अन्य दलहनी फसलें जैसे मसूर, मटर आदि फसलें भी ऐसी हैं, जिनका यदि उचित रखरखाव किया जाये तो उत्पादकता को बढ़ाया जाना कोई असंभव बात नहीं है।दलहनी फसलें प्रोटीन की प्रमुख स्रोत होती है, जिसकी आवश्यकता आज आम आदमी को बहुत है।
रबी दलहनी फसलों में उर्वरक का उपयोग कम होता है
सामान्य तौर पर रबी दलहनी फसलों में उर्वरक काफी कम इस्तेमाल होता है। जहां होता है वहां भी असंतुलित होता है, जबकि इन फसलों में फास्फोरस तथा पोटाश का उपयोग नत्रजन की तुलना में कम होता है।चूंकि, दलहनी फसलें वायुमंडल से नत्रजन एकत्रित करने की क्षमता रखती हैं। इस वजह से अन्य आवश्यक उर्वरकों की पूर्ति करके बेहतर उपज हांसिल की जा सकती है।
राईजोबियम कल्चर तथा पीएसबी का उपयोग करना बेहद जरूरी
इसके अतिरिक्त राईजोबियम कल्चर तथा पीएसबी का उपयोग अनिवार्य रूप से किया जाना चाहिए, ताकि अच्छा अंकुरण अधिक नाईट्रोजन तथा भूमि में उपलब्ध फास्फेट का अधिक से अधिक उपयोग किया जा सके।ऐसा करके दलहनी विशेषकर चने की उत्पादकता सरलता से बढ़ाई जा सकती है। उल्लेखनीय है, कि देश की जनसंख्या 2030 तक अनुमानत: 145 करोड़ तक पहुंच सकती है।इसके लिये 335 टन दालों की आवश्यकता पड़ सकती है, जो वर्तमान के उत्पादन से लगभग दोगुना है।
मांग को पूरा करने लिए दलहन का आयात संभव
मांग की पूर्ति के लिये विवश शासन को बाहर से दलहन का आयात करना होगा, जिसका भार आम लोगों की आर्थिक संतुलन को भी बिगाड़ सकता है।पिछले दिनों बढ़े दलहन के दाम की मार आज तक लोगों को याद है। इस कारण हमें हर संभव प्रयास करके दलहनों की उत्पादकता बढ़ाने के लिये कम लागत की तकनीकी का अंगीकरण शत-प्रतिशत करना ही होगा।