गन्ने की शरदकालीन बुआई के साथ पपीते की भी खेती

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यदि गन्ना किसान गन्ने के साथ कुछ दूसरी फसलें लगाएँ तो उन्हें अच्छी कमाई हो जाती है। पपीते की फसल जल्दी तैयार हो सकती है और ये गन्ने के खेत में जगह भी ज़्यादा नहीं लेती। इसीलिए गन्ने के साथ पपीता उगाने से दोहरा लाभ मिलता है। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में दोमट और बलुई मिट्टी की बहुतायत है। ऐसी मिट्टी न सिर्फ़ गन्ने के लिए बढ़िया है बल्कि पपीते के लिए भी बेहद मुफ़ीद होती है।

गन्ने की तरह ही पपीता भी नगदी फसल है। पपीते की माँग लगातार बढ़ रही है। इसे देखते हुए कृषि वैज्ञानिकों ने उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल और बिहार के किसानों को सलाह दी है कि जब वो गन्ने की शरदकालीन बुआई करें तो उसके साथ पपीते की भी खेती करें। गन्ना संग पपीता की सहफसली किसानों के लिए बहुत लाभकारी साबित होती है।

गन्ने की फसल तैयार होने में 11 से लेकर 12 महीने लगते हैं। इस बीच यदि गन्ने के साथ किसान कुछ दूसरी फसलें लगाएँ तो उन्हें अच्छी कमाई हो जाती है। पपीते की फसल जल्दी तैयार हो सकती है और ये गन्ने के खेत में जगह भी ज़्यादा नहीं लेती। इसीलिए गन्ने के साथ पपीता उगाने से दोहरा लाभ मिलता है।

वैसे तो देश के सबसे बड़े गन्ना उत्पादक राज्य, उत्तर प्रदेश में गन्ने के साथ कई दूसरी फसलें भी लगायी जाती हैं। लेकिन तीन-चार साल पहले ICAR-भारतीय गन्ना अनुसन्धान संस्थान, लखनऊ के कृषि वैज्ञानिकों ने उत्तर-पूर्वी राज्य मिज़ोरम में जाकर देखा है कि वहाँ के किसान गन्ने के साथ पपीते की उत्तम खेती कर रहे हैं।

इससे उनकी आमदनी में बम्पर इज़ाफ़ा हुआ। तब तक उत्तर प्रदेश के किसानों के बीच गन्ने के साथ पपीते की खेती कुछ ख़ास प्रचलित नहीं थी। हालाँकि, प्रदेश में पपीते की पर्याप्त माँग थी और इसकी भरपाई के लिए बिहार, बंगाल, महाराष्ट्र और दक्षिण भारत के राज्यों से पपीता की सप्लाई होती थी।

पूर्वांचल में मिले उत्साहित नतीज़े

उत्तर प्रदेश गन्ना विकास संस्थान के कृषि वैज्ञानिकों ने भी जब राज्य में गन्ना संग पपीता की खेती को आज़माने का फ़ैसला किया तो उन्होंने गाजीपुर, बलिया, देवरिया, मऊ और आज़मगढ़ ज़िलों में पहले तो बहुत छोटी जगह में प्रयोग किये। इसके उत्साहजनक नतीज़ों को देखते हुए ‘गन्ने के साथ पपीते की खेती’ के जिस नायाब और वैज्ञानिक तरीके को प्रतिपादित किया। इसके अनुसार, उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में दोमट और बलुई मिट्टी की बहुतायत है। ऐसी मिट्टी न सिर्फ़ गन्ने के लिए बढ़िया है बल्कि पपीते के लिए भी बेहद मुफ़ीद होती है।

गन्ना संग पपीता के फ़ायदे

कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार, गन्ने और पपीते के पौधे एक-दूसरे लिए रोग-प्रतिरोधक की भूमिका निभाते हैं। इसीलिए यदि किसी एक फसल पर रोगों का प्रकोप होता है तो दूसरी पर भी इसका असर पड़ने की आशंका ज़्यादा होती है। लिहाज़ा, जैसे ही किसी रोग का संकेत नज़र आये वैसे ही उसका गम्भीरता से इलाज़ करना चाहिए।

लेकिन दूसरी ओर, गन्ने की ही तरह पपीते की खेती को भी ज़्यादा पानी पसन्द है। पूर्वांचल का मौसम भी पपीते की फसल के लिए बेहद माकूल है। ज़रूरत है तो सिर्फ़ पतीते के उन्नत किस्म के बीज को चुनने और पपीते की बुआई से पहले वैज्ञानिक तरीके से खेत को तैयार करने की।

गन्ना संग पपीता की वैज्ञानिक खेती

बुआई का समय: पपीते की खेती के लिए पौधा आमतौर पर जून-जुलाई में लगाया जाता है। जिन इलाकों में सिंचाई की व्यवस्था अच्छी होती है वहाँ इसे सितम्बर और अक्टूबर में भी लगाया जाता है।

उन्नत किस्में: पपीते की उन्नत किस्मों के नाम हैं – मधु, हनी, पूसा डिलिशियस, पूसा ड्वार्फ, पूसा नन्हा, CO-7 और PK-10.

बीज-दर: उन्नत नस्लों के पौधों की रोपाई के लिए प्रति एकड़ 125 ग्राम बीज पर्याप्त होता है।

बीज उपचार: बुआई से पहले बीजों को तीन ग्राम कैप्टॉन दवा प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित करना चाहिए।

पौध बनाना: नर्सरी में पपीते के पौधों के तैयार करने के लिए बीजों के एक-दूसरे से 15 सेंटीमीटर की दूसरी पर मिट्टी में 2 सेंटीमीटर की गहराई पर बोना चाहिए। जब पपीते के पौधे बढ़कर करीब डेढ़ फीट ऊँचे हो जाएँ तब इन्हें गन्ने के खेत में एक-दूसरे से ढाई से तीन मीटर की दूसरी पर ऐसे लगाना चाहिए जिससे गन्ने की फसल को धूप और अन्य पोषण पाने में दिक्कत नहीं हो।

खादपपीते के पौधों की बुआई के वक़्त हरेक पौधे को सड़ी हुई गोबर की खाद के साथ 500 ग्राम अमोनियम सल्फेट, सिंगल सुपर फॉस्फेट और पोटेशियम सल्फेट को 2:4 के अनुपात में हरेक पौधे को देना चाहिए।

रोगों से बचाव: लीफकर्ल और मोजेक पपीते के प्रमुख रोग हैं। इससे बचाव के लिए पपीते के पौधे के बड़ा होते ही मैलाथियान और ई.सी. को पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए।

गन्ना संग पपीता की पैदावार: उपरोक्त तरीकों को अपनाकर यदि गन्ने के साथ पपीते की सहफसली खेती की जाए तो पपीते के हरेक पेड़ से औसतन 40 किलोग्राम पैदावार मिलती है। ये उपज प्रति एकड़ के हिसाब से 200 से 250 क्विंटल तक होती है।