.शायद,अगले कुछ सालों में सोयाबीन को लेकर,सब कुछ बदल भी जाए

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कमलेश पारे

पिछले करीब 38 सालों से मध्यप्रदेश की पहचान,यहाँ पैदा होने वाली सोयाबीन की खेती से भी रही है.पूर्व प्रधानमंत्री स्व.श्रीमती इंदिरा गांधी ने इसे ‘सोयाबीन-राज्य’ का नाम व तमगा दिया था.किन्तु,हमारी ही लापरवाहियों या प्रकृति के प्रकोप के कारण अब स्थितियां बदल रही हैं.शायद,अगले कुछ सालों में सोयाबीन को लेकर,सब कुछ बदल भी जाए.

हम भारतीयों की एक बड़ी अजीब सी आदत है कि हम पड़ौसी के घर की समस्या से हमेशा यह मानकर बेखबर रहते हैं कि इसकी आंच या प्रभाव हम तक थोड़े ही आएगा.मैं जो बात कह रहा हूँ,वह पड़ौसी से थोड़ा ही आगे,अपने ही देश के गाँवों में रह रहे किसानों की है.

डॉ.लोहिया कहा करते थे कि अपने यहाँ लोक-भाषा,लोक-भूषा,लोक-भोजन और लोक-भवन से राज-भाषा,राज-भूषा,राज-भोजन और राज-भवन अलग हैं.वाक़ई हम शहरी भी अपने ही देश के गाँवों से बहुत ज्यादा अलग हैं.दो अलग दुनियाओं जैसी समझ हैं.

थोड़े दिनों के लिए मेरी बात के लिए आपके पास बिलकुल समय न रहे,क्योंकि,इस हफ्ते से,अगले तीन महीनों तक हम अपने-अपने त्योहारों में व्यस्त हो जाएंगे.

इसी बीच हमें मोदी-मोदी और राहुल-राहुल या मामा-मामा भी तो खेलना है.कुछ बुद्धिमान मित्रों को नोटा-नोटा की भी पड़ी है.

लेकिन,प्लीज जान लें कि गाँवों में सोयाबीन में लगी फफूंद और इल्लियों का घोर प्रकोप आग की तरह जारी है.एक बीमारी ऐसी लगी है,जिसमें पूरा खेत पीला पड़ रहा है.जिस भी किसान के खेत में इसकी मक्खी पत्तों में घुसकर,फसल को चौपट कर रही है,वह जानता है कि उसकी उतनी तो करीब-करीब सोलह आना फसल चौपट हो गई है.

भोपाल के पड़ौसी जिले होशंगाबाद के एक किसान ने अपनी चिंता बांटते हुए बताया कि इससे दवाई का खर्च एक हज़ार रुपये प्रति एकड़ बढ़ गया है.जबकि रतलाम जिले के कालूखेड़ा में किसानों का कहना है कि प्रकोप की गहनता के कारण,उनका खर्च डेढ़ हज़ार रुपये से ज्यादा बैठेगा.सारे खर्चों में ये हज़ार-डेढ़ हज़ार और जुड़ गए,तो जो भी मूल्य घर में पड़ेगा,उसके सामने सरकार द्वारा घोषित समर्थन मूल्य काफी कम होगा.

इसलिए,किसान ने अब सोयाबीन से तौबा करना शुरू कर दिया है.बल्कि भोपाल के पड़ौसी जिले रायसेन,होशंगाबाद और हरदा के किसान धान,दलहनी फसलों उड़द,मूंग या कपास की तरफ मुड़ भी गए हैं.

एक पढ़े लिखे मेहनती किसान श्री सुरेंद्र वर्मा,जो अपने प्रदेश में अच्छी mखेती करते थे,सब कुछ छोड़-छाड़ कर उत्तराखंड चले गए हैं,से मैंने पूछा कि इसका आखिर,कोई तो इलाज़ होगा ? उनका कहना है कि यदि हम ऐसे ही रहे,तो जब तक सूरज-चाँद रहेंगे,इल्ली भी हमें ऐसे ही मुंह चिढ़ाते रहेगी.

पैसे के लिए,हम पूरे बारह महीने खेत में कुछ न कुछ लगाए ही रहते हैं.जमीन को सूरज कहाँ लगने देते हैं ? जमीन में भी जान होती है,उसे भी सूरज की जरूरत होती है.जमीन में बारह महीनों की नमी और हरियाली इल्लियों के लिए सबसे आदर्श स्थिति  होती है.

दवाइयों के असर को तो भूल ही जाइये.वहां भी सूरज-चाँद के रहने तक भ्रष्टाचार रहेगा,और नक़ली दवाएं भी आती ही रहेंगी.इससे आदमी को कैंसर हो जाएगा,पर इल्लियां नहीं मरेंगी.

हम शहरी इस स्थिति पर कुछ नहीं कर सकते,इसलिए मजे से बेफिकर भी हैं.चलिए,मैं खेती-बाड़ी,बीज-दवाई,मंडी-समर्थन मूल्य,मज़दूरों की समस्या या ‘भावान्तर’के लिए सरकार ने रखे 1 ,75 , 000 करोड़ रुपये के प्रावधान की बात नहीं करता.

लेकिन जान तो लीजिये कि इसके कारण खाने का तेल कम होगा,वोट पाने के लिए सरकारें बेतहाशा आयात भी करेंगी,उससे किसान और तेल उद्योग भारी घाटे में चले जाएंगे.आयात की अपनी गरज के कारण,रूपया और कमजोर होगा,तब तो,इस आग की आंच आप तक आएगी ही ना ?

भारत दुनिया का सबसे बड़ा खाद्य-तेल आयातक देश है.हम अपनी जरूरत का 50 से 60 प्रतिशत खाने का तेल बाहर से बुलाते हैं.हमारे खेती के उत्पादन और उत्पादकता के हिसाब से जो दाम हमारे खाने के तेल के आएंगे,उससे विदेशी तेल बहुत सस्ता होगा.यानी फिर किसान को कम दाम और तेल उद्योग को भारी घाटा होना ही है.इसके भी खूब डराने और चमकाने वाले आंकड़े हैं.

अब सवाल है कि हम क्या करें ? पिछले पांच साल में सोयाबीन का रकबा और उत्पादन दोनों घटे हैं.सरकार फर्जी आंकड़े देती हैं,उनका कोई भी आंकड़ा, खुद उन्हींके दूसरे आंकड़े से मेल नहीं खाता है.

उसी सरकार ने अपनी मूर्खता,मक्कारी और अहंकार के कारण तिलहनी फसलों पर काम करने वाली सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाओं और सहकारिता को सभी राज्यों में खुद मिटा दिया है.पूछ आइये गाँवों में,इनके रहने से किसानों को सहारा तो था.सोयाबीन का ‘श्रेष्ठ’काल वह था जब देशी-विदेशी अनुदानों की भरमार थी.जैसे ही ये कम हुईं,सरकार और उसके अमले ने ध्यान देना बंद कर दिया और समर्पित विस्तार कार्यकर्ताओं की बरसों की मेहनत मिट्टी हो गई.

कीड़े,मकोड़े,मक्खी,इल्ली,फफूंद और खरपतवार की समस्या,सरकारों की ईनाम पाने की भूख,और महत्वाकांक्षा के कारण भी आई है.

कुछ लोगों ने भले सुना हो,कुछ लोगों ने देखा भी हो,और कुछ लोगों ने जरूर हिस्सेदारी भी की हो.अपने देश में एक बार अन्न की भीषण कमी आ गई थी.जिन भी देशों से हम अन्न बुलाते थे,वे देश ‘दादागिरी’पर उतर आये थे.तब हमारे प्रधानमंत्रीजी स्व.लाल बहादुर शास्त्री ने नारा दिया था कि ‘हम हफ्ते में,एक दिन एक वक़्त,नहीं खाएंगे’.हम सबने इसे शब्दशः पालन किया और लड़ाई लगभग जीत ली थी.भले बाद में बड़े प्रयास भी हुए थे,पर अपने मनों में भरोसा तो जगा ही था.

चूँकि,हमारे देश में कोई गांधी,कोई विनोबा,या कोई जयप्रकाश सितारे की तरह पूरे देश में या कुरियन की तरह किसी क्षेत्र विशेष में उगते हैं,और क्रांति घट भी जाती हैं.

लेकिन हम ही,बगैर उनका  इंतज़ार किये अपने खाने के तेल के उपभोग के मामले में अपनी आदतें नहीं बदल सकते ? बात मानिये आदतें जरूर बदलती हैं,तभी तो विज्ञापनों के जरिये बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने साबुन,मंजन,जूते-चप्पल,खाने और नाश्ते सहित कई चीजों,यहाँ तक कि हमारे रिश्तों तक की आदतें बदली हैं.

तो खाने के तेल पर सब कुछ जानते-समझते हुए,हम खुद ही कुछ क्यों नहीं कर सकते  ?