भारत विश्व में दालों का सबसे बड़ा उत्पादक और उपभोक्ता है। अत्यन्त प्राचीनकाल से प्रोटीन नामक पोषक तत्त्व की आपूर्ति के लिये दालें हमारी जनसंख्या के अधिकांश भाग का महत्त्वपूर्ण और सर्वाधिक सुलभ व सस्ता स्रोत रही हैं। अन्य खाद्यान्नों के साथ इनकी खेती भी सदा से यहां होती आई है। भोजन के लिये दाल-रोटी का मुहावरा हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है।
विचित्र विडम्बना यह है कि हरित क्रान्ति की सफलता के बावजूद दालों का उत्पादन इनकी मांग की अपेक्षा सतत कम रहा है। परिणामत: देश की आन्तरिक मांग को पूरा करने हेतु बहुमूल्य विदेशी मुद्रा व्यय करके प्रतिवर्ष काफी बड़ी मात्रा में विदेशों से दालों का आयात करना पड़ता है, जिसका प्रतिकूल प्रभाव हमारे विदेश व्यापार खाते के घाटे में वृद्धि के रूप में पड़ना स्वाभाविक है।
दालों के अभाव के कारण इनके मूल्यों में भी प्राय: अवांछित बढ़ोतरी होती है, जिसके कारण समाज के मध्यम और निम्न आय वर्ग के लोगों के ऊपर अनावश्यक आर्थिक बोझ पड़ता है। सर्वाधिक आश्चर्य की बात है कि न केवल यह सारा उत्पादन देश में हो सकता है, बल्कि अपनी आवश्यकता पूर्ति से अधिक उत्पादन कर हम दालों और उनसे बने प्रसंस्कृत उत्पादों का निर्यात भी कर सकते हैं। यह दावा हमारे नीति निर्माता, प्रशासक और कृषि वैज्ञानिक भी कई दशकों से करते आ रहे हैं। तथापि क्या कारण है कि हम ऐसा नहीं कर पा रहे हैं?
वास्तविकता यह है कि विगत लगभग चार दशकों से भारत के कृषि उत्पादन का स्वरूप एक असाध्य से असंतुलन से जूझ रहा है। दो मुख्य खाद्यान्न गेहूं और धान तो लगातार आवश्यकता से अधिक पैदा हो रहे हैं, जबकि दाल और तिलहन का उत्पादन मांग की अपेक्षा काफी कम रहता है।
इसका केवल एक कारण है कि धान, गेहूं और गन्ने की अधिक पानी मांगने वाली फसलों को छोड़कर दालों सहित किसी भी फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदे जाने की व्यवस्था ही नहीं है। नतीजा है कि एक तो इनकी खरीद, भण्डारण और खुले बाजार में बिक्री पर सरकार को प्रतिवर्ष भारी घाटा उठाना पड़ता है।
दूसरे, अधिक सिंचाई की वजह से भूमिगत जल का अतिदोहन और पर्यावरण को हानि होती है। तीसरे, दालों व तिलहन सहित कम पानी चाहने वाले तथा अन्य अधिक पौष्टिक अनाजों के उत्पादन और कृषि के वांछित विविधीकरण की प्रक्रिया सम्पन्न नहीं हो पा रही है।
यह सब सरकार की परस्पर विरोधी अनमनी नीतियों का परिणाम है और सरकार ही इन मुद्दों का रोना रोती रहती है तथा इनकी दुरुस्ती के उपदेश देती रहती है। अपने उत्तरदायित्व को टालने की इस कला व प्रवृत्ति में सब सरकारों में अद्भुत समानता रही है।
देश के पूरे कृषि इतिहास में दालों का रिकार्ड उत्पादन 25.42 मिलियन टन वर्ष 2018 में हुआ। परन्तु तब भी यह उस वर्ष के लिये निर्धारित लक्ष्य 26.3 मिलियन टन से कम ही था, जबकि देश की कुल अनुमानित मांग लगभग 30-31 मिलियन टन है। उसके बाद के दो वर्षों 2019 और 2020 में यह पुन: घटकर क्रमश: 22 और 23 मिलियन टन रहा।
अत: प्रतिवर्ष लगभग 3 से 6 मिलियन टन दालों का आयात करना पड़ता है तथा फसल व आयात के अन्तराल में दालों के दाम असाधारण रूप से बढ़ने से आम जनता को कष्ट होता है। ऐसी स्थिति बार-बार क्यों होती है? उसका स्थायी समाधान क्या है? यह विचारणीय है।
सरकारी तन्त्र के सारे लिखित दस्तावेजों एवं मौखिक वक्तव्यों में भी इस विषय की स्वीकारोक्ति, चिन्ता, प्राथमिकता और सुधार की अपेक्षा बिना नागाह के नजर आती है। इस असंतुलन का मुख्य कारण है, सरकार की आधी-अधूरी और तदर्थ मूल्य नीति, जिसका निर्धारण करने के लिये कृषि मंत्रालय के अन्तर्गत कृषि लागत एवं मूल्य आयोग स्थापित है, जो दालों सहित सभी कृषि उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारण निम्नलिखित बातों के आधार पर करता है: 1. उत्पादन लागत, 2. घरेलू और वैश्विक बाजार में आपूर्ति, मांग तथा मूल्यों की स्थिति, 3. अन्य जिंसों के सापेक्ष मूल्यों की स्थिति, 4. भूमि, जल आदि प्राकृतिक संसाधनों का समुचित उपयोग, 5. देश की अर्थव्यवस्था, विशेषकर उपभोक्ताओं पर होने वाले संभावित प्रभाव और 6. उत्पादन लागत पर 50 प्रतिशत लाभ।
इस व्यवस्था में कई स्पष्ट विसंगतियां हैं। प्रथम- नाम से तो यह आयोग है, परन्तु इसकी हैसियत एक विभाग की है, जिसका अध्यक्ष एक संयुक्त सचिव स्तर का अधिकारी होता है। दूसरे, इसमें किसानों का प्रतिनिधित्व नाममात्र का है। किसान के नाम पर प्राय: कोई गैर-किसान सदस्य रहता है या यह पद खाली रहता है।
तीसरा, इसकी सिफारिशें मात्र परामर्शात्मक होती हैं, जिन्हें मानना न मानना सरकार की मर्जी पर निर्भर है। चौथे, किसान को मिलने वाला तथाकथित 50 प्रतिशत लाभ समग्र यानि सी-2 लागत पर नहीं बल्कि ए-2+ एफ.एल. स्तर के ऊपर जोड़ा जाता है, जो अपेक्षाकृत काफी कम होता है।
पांचवें, जो न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किये जाते हैं, वे भी किसान को नहीं मिलते। खासकर दालों के मूल्य तो कभी नहीं, क्योंकि सरकार द्वारा इनकी खरीद की वैसी व्यवस्था भी नहीं है जैसी गेहूं, चावल, कपास और गन्ने आदि की है। फसल के समय खुले बाजार में दालों के मूल्य अक्सर सरकार द्वारा घोषित किये ए-2+एफ.एल.+50 प्रतिशत मूल्यों से भी कम रहते हैं। सरकारी खरीद का प्रबन्ध न होने से किसान को उन्हें नीचे दामों पर बेचकर घाटा उठाना पड़ता है। इसलिये किसानों को इन फसलों को उगाने का कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता। यह बात स्वयं कृषि लागत और मूल्य आयोग की रिपोर्टों में बार-बार दोहरायी जाती है।
कृषि लागत एवं मूल्य आयोग द्वारा अनुमानित लागत ए-2+एफ. एल. तथा सी-2 लागत स्तरों का अन्तर इस प्रकार है: अरहर रु. 3,796 (5,464), मूंग रु. 4,797 (6,289), उड़द रु. 3,660 (5,570), चना रु. 2,866 (4,012), मसूर रु. 2,864 (4,204)। कोष्ठकों के बाहर ए-2+एफ एल और अन्दर सी-2 लागत का आंकड़ा है। तदनुसार ए-2+एफ एल के ऊपर 50 प्रतिशत मुनाफा जोड़कर सरकार द्वारा घोषित मूल्यों के आंकड़े कोष्ठक के बाहर तथा सी-2+50 प्रतिशत जुड़कर होने वाले मूल्यों के आंकड़े कोष्ठक के अन्दर हैं: अरहर रु. 6,000 (7,0996), मूंग रु. 7,196 (9,435), उड़द रु. 6,000 (9,000), चना रु. 5,100 (6,018), मसूर रु. 5,100 (6,306)।
सर्वाधिक विचित्र विडम्बना यह है कि उपभोक्ताओं को न्यूनतम समर्थन मूल्य के मुकाबले ढाई-तीन गुणा यानि 150 प्रतिशत से 200 प्रतिशत दाम पर दालें खरीदनी पड़ती हैं। इससे मुद्रा स्फीति बढ़ती है और साधारण कमजोर वर्ग के ऊपर असह्य बोझ पड़ता है। इससे भी ज्यादा आश्चर्यजनक है कि दाल का आयात घरेलू से भी नीचे दामों पर होता है। सारा नाजायज मुनाफा व्यापारी खा जाते हैं।
उपभोक्ता मूल्यों पर लगाम लगाने के लिये सरकार आवश्यक वस्तु अधिनियम के अंतर्गत दाल के भण्डारण की सीमा कम करने जैसे लंगड़े लूले अधमने निष्प्रभावी उपाय करने का दिखावा करती है। उनका लाभ नागरिक आपूर्ति और पुलिस प्रशासन के कर्मियों और अधिकारियों को ही होता है।
सदा का अनुभव है कि इन आधे-अधूरे उपायों से न कभी उपभोक्ता मूल्य कम होते और न व्यापारी की मुनाफाखोरी। बस केवल भ्रष्टाचार पनपता है। जनसाधारण को इन सब विषयों का विशद ज्ञान न होने से वे इसे एक जीर्ण और असाध्य रोग मानकर किंकर्त्त्व्य विमूढ़ हुए राज्य की निरर्थक तथा थोथी प्रियंवदा घोषणाओं का मुंह ताकते रहते हैं।
सरकार किसान को नयी तकनीक अपनाने, अच्छे महंगे बीज प्रयोग करने, पर्याप्त मात्रा में उर्वरकों, कीट नियन्त्रण और मशीनरी का उपयोग करने का उपदेश तो देती है। परन्तु इनके ऊपर आने वाली लागत और पूंजी व्यय को जोड़कर मूल्य देना नहीं चाहती। जो दाम घोषित करती है, वह देने की भी गारंटी नहीं करती। कैसा दुमुहापन है यह समझ के बाहर है।
महत्वपूर्ण सवाल है कि इस ला-इलाज दिखने वाली बीमारी का व्यावहारिक निदान क्या है? इस सम्बन्ध में कुछ ठोस व्यावहारिक सुझाव ये हैं। प्रथम तो न्यूनतम समर्थन मूल्यों को अपने वादे के अनुसार वर्तमान सरकार द्वारा सी-2+50 प्रतिशत के आधार पर घोषित किया जाए।
दूसरे, पूरे देश में प्रत्येक फसल की उस घोषित मूल्य पर खरीद सुनिश्चित की जाय। तीसरे, कृषि लागत मूल्य आयोग का पुनर्गठन करके उसे संवैधानिक दर्जा दिया जाय, ताकि उसकी संस्तुतियां सरकार के ऊपर बाध्यकारी हों।
चौथे, न्यूनतम समर्थन मूल्य को किसान का वैधानिक अधिकार और सरकार का संवैधानिक उत्तरदायित्व बनाया जाए।
पांचवें, दालों के उपभोक्ताओं के लिये एक अधिकतम खुदरा मूल्य, जो किसान को मिलने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य के ऊपर एक उचित मुनाफा 50 प्रतिशत या अधिकतम 60 प्रतिशत जोड़कर तय किया जाय। इसे हर वर्ष न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा के साथ ही घोषित किया जाए और प्रत्येक खुदरा व्यापारी अनिवार्यत: उसे अपनी दुकान पर लिखकर प्रकाशित रखे। अधिक दाम वसूली पर सजा का प्रावधान हो।
कृषि संबंधित संसदीय समिति के समक्ष दाल मिल मालिकों की अखिल भारतीय समिति का लिखित साक्षी है कि अनाज को दाल बनाने में 8 से 10 प्रतिशत लागत आती है। उसके ऊपर यातायात, पैकिंग, भण्डारण, विपणन, पूंजी निवेश व्यय और वाजिफ मुनाफा जोड़ें तो 50-60 प्रतिशत का सकल मुनाफा कोई कम राशि नहीं है।
छठा, दालों सहित सब कृषि उत्पादों के यातायात, भण्डारण, व्यापार, प्रसंस्करण और निर्यात पर लगे सब प्रतिबन्ध समाप्त कर दिये जाएं। घरेलू उत्पादन कम होने की दशा में आयात और आयात कर की राशि का निर्णय फसल आने के बाद किया जाय। ये सभी सुझाव वाक्य भी मूल्य आयोग के प्रतिवेदनों में सतत हर छठे माह दोहराये जाते हैं।
यही नीति यदि सब फसलों के लिये अपनायी जाय तो खाद्यान्न तथा पोषक तत्त्वों की आत्मनिर्भरता, उपभोक्ता का उचित संरक्षण, कृषक का न्यायोचित आय अधिकार, मुद्रास्फीति का व्यावहारिक निदान, विदेश व्यापार घाटे की समस्या, कृषि का वांछित विविधीकरण, जल और पर्यावरण की रक्षा आदि सब उद्देश्य निश्चित रूपेण प्राप्तव्य हैं। इस समग्र उद्देश्य की प्राप्ति हेतु केवल राजनैतिक इच्छाशक्ति की अपेक्षा है।
किसान को दोहरी मार पड़ती है। पैदावार कम होती है तो खर्च की भरपायी नहीं हो पाती। अधिक पैदा करता है तो दाम गिर जाते हैं। दोनों दशाओं में बस घाटा ही घाटा। यदि सरकार समग्र लागत आधारित न्यूनतम समर्थन मूल्य को सुनिश्चित करने का उत्तरदायित्व भी नहीं लेना चाहती, तो कम से कम इस जबानी जमा खर्च और उबाऊ प्रवचनोपदेश के दण्डात्मक ढोंग को तो बन्द कर सकती है।
–सोमपाल शास्त्री, राष्ट्रीय किसान आयोग के पूर्वत: अध्यक्ष, पूर्व केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री एवं केंद्रीय योजना आयोग एवं बारहवाँ वित्त आयोग के पूर्व सदस्य हैं