राजकुमार सिन्हा
देश आजादी के बाद समाजवादी आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था की स्थापना के लिए संकल्प लिया था। इस संकल्प को पूरा करने के लिए संविधान निर्माता भीमराव आंबेडकर ने इसे संविधान के प्रस्तावना में स्थान दिया। परन्तु पिछले तीन दशकों के दौर में आर्थिक गैर-बराबरी तेजी से बढ़ी है और बढ़ती जा रही है। आजादी के शुरुआती दौर में इस गैर-बराबरी को खत्म करने की बात को हल्के ढंग से लिया गया।
तर्क यह दिया गया कि पहले विकास तो हो, उसके बाद उसके लाभ के बंटवारे में न्याय होने की बात आसानी से हल की जाएगी। इसी तर्क को अवारा पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज्म) ने गैर-बराबरी को खारिज कर नियोजित विकास की दिशा में बढ़ गया और गैर-बराबरी को विकास की अनिवार्य शर्त मान लिया गया। विकास के नाम पर स्थानीय समुदायों को प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल किए गए कृत्य को “विकास की प्रसव पीड़ा” कह कर टाल दिया गया। पूंजीवादी प्रणाली में उत्पादन और वितरण सामाजिक समानता, न्याय और पर्यावरण की सुरक्षा की बजाय निजी मुनाफे से संचालित होती है। निरंतर विकास इसकी चालक शक्ति है।
प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और विनाश पर आधारित विकास के कारण उन समुदायों को विस्थापित होना पड़ता है जो इस संसाधनों पर निर्भर हैं। भूमि सुधार की बात अधूरी छोड़ दी गई। हरित क्रांति के नाम पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के रासायनिक खाद, बीज और जुताई-बुवाई की मशीनों के लिए देश का बाजार खोल दिया गया। देशी-विदेशी पूंजीवादी ताकतों की ओर से गैर-बराबरी को जानबूझकर भारी समर्थन मिला है।
विकास को टिकाऊ बनाने के लिए समावेशी होना आवश्यक है। जब तक विकास का लाभ देश के सभी वर्गों, जातियों और क्षेत्रों को नहीं मिलेगा तब तक ऐसे विकास का महत्व नहीं है।
हमारे लिए गर्व की बात है कि भारत की जीडीपी 2003 में 51 लाख करोड़ की थी जो 2023 में 312 लाख करोड़ रुपए पहुंच गई है। लेकिन चिंता की बात है कि इन 20 वर्षों में अमीरों की दौलत 16 गुना और गरीबों की महज 1.4 प्रतिशत बढ़ी है। यानी तरक्की के मामले में गरीब वहीं के वहीं हैं।
अमेरिकी मार्केटिंग एनालिसिस फर्म मर्सेल्स इंवेस्टमेंट मैनेजर्स के रिपोर्ट अनुसार भारत की 80 प्रतिशत दौलत सिर्फ दो लाख परिवारों के पास है। “विनर टेक ऑल इन इंडियाज न्यू इकोनॉमी” के अनुसार आर्थिक विकास से आया 80 प्रतिशत धन सिर्फ 20 कंपनियों के खाते में जा रहा है। कोरोना काल में जब सभी अर्थव्यवस्था डगमगा रही थी तब विश्व के अरबपतियों की आमदनी पांच खरब से बढ़कर तेरह खरब डॉलर हो गई।
वर्ष 2014 से 2021 के बीच गौतम अडानी की पूंजी 432 प्रतिशत और मुकेश अंबानी की 267 प्रतिशत बढ़ी। गौतम अडानी की पूंजी 2020 में 1.4 लाख करोड़ थी जो 2021 में बढ़कर 2.34 लाख करोड़ रुपये हो गई। यह चमत्कार कैसे हुआ? हम जानते हैं कि जब सारा देश बंद था, अस्पतालों और दवाओं की दुकानों के अलावा केवल स्टॉक मार्केट खुले थे। इन्वेस्टमेंट करने-करवाने वाली फर्में और दफ्तरों में नियमित काम हो रहा था। इससे साफ होता है कि अमीरों की पूंजी में इजाफा उनकी उत्पादन गतिविधियों के कारण नहीं हुआ था, यह पूंजी के सट्टे की करामात है।
औद्योगिक क्रांति से पहले जो पूंजी लोगों के आर्थिक जीवन को संचालित करती थी, वह मुख्य तौर पर व्यापारिक पूंजी थी। 18वीं सदी के बाद जिस पूंजी ने नियंत्रणकारी भूमिका प्राप्त कर ली, वह औद्योगिक पूंजी थी। लेकिन 1990 में जो भूमंडलीकरण की शुरुआत हुआ, उसने आर्थिक दुनिया में एक नई व्यवस्था का जन्म दिया। जिसे वित्तीय पूंजी या फाइनेंस कैपिटल की अदृश्य ताकत के रूप में जाना जाता है। जिसका न कोई देश है न कोई सरकार है। इस वित्तीय पूंजी के लिए भारत एक बड़ा बाजार है।
धारणा यह बनाई गई है कि अमीरों से टैक्स लेकर आम लोगों को सुविधाएं दी जाती हैं। जबकि ऑक्सफैम की रिपोर्ट 2022 के अनुसार जीएसटी का 64 प्रतिशत हिस्सा निम्न आय वाले 50 प्रतिशत लोगों से आया है। सबसे ऊंची आय वाले 10 प्रतिशत लोगों से केवल 4 प्रतिशत टैक्स वसूला गया है। इसका मतलब 96 प्रतिशत जीएसटी निम्न और मध्य वर्ग चुका रहा है। पेट्रोल और डीजल पर टैक्स की दर राज्यों में 15 से 35 प्रतिशत तक है, जबकि इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटोमोबाइल आदि उत्पादों पर 28 प्रतिशत की दर से टैक्स लगता है। प्रोपर्टी रजिस्ट्रेशन, हाउस टैक्स, वाटर टैक्स, टोल टैक्स आदि मिलाकर भारतीयों के खपत खर्च पर समग्र औसत टैक्स दुनिया में सबसे ज्यादा है। इसलिए एक दशक में सरकार के राजस्व में 303 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई है। जबकि राहुल गांधी के अनुसार वर्तमान सत्ता ने कॉर्पोरेट का 16 लाख करोड़ रुपये का टैक्स माफ किया है। दूसरी ओर भारत में प्रति व्यक्ति की आय के फेहरिस्त में 143 वें नंबर पर है। भारतीय अर्थव्यवस्था का सिर बड़ा है और बाकी शरीर छोटा और कमजोर है। यानी कुपोषण का शिकार है।
(राज कुमार सिन्हा बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ से जुड़े हुए हैं।)