किसानों की लूट, एमएसपी की झूठ…औचित्च पर सवाल

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अर्जुन प्रसाद सिंह

भारत जैसे ‘लोकतान्त्रिक’ एवं ‘कल्याणकारी’ राज्य व्यवस्था में, देश के सबसे बड़े उत्पादक समूह किसान के हितों की रक्षा के लिए योजनाएं बनाना, यहां के शासक वर्गों का काफी पुराना एजेण्डा रहा है. इसी क्रम में भारत सरकार ने बाजारों में कृषि उत्पादों (खासकर अनाजों) के गिरते दामों की मार से किसानों को बचाने के उद्देश्य से ‘मूल्य सहायता नीति’ बनाई.

1970 के दशक के मध्य तक इस नीति के तहत दो तरह के प्रशासित मूल्य घोषित किए गए- न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) एवं खरीद मूल्य. एमएसपी केन्द्र सरकार द्वारा बाजार हस्तक्षेप का ऐसा रूप है जो किसानों को आश्वासन देता है कि उबकी फसलों का मूल्य एमएसपी से नीचे गिरने नहीं दिया जायेगा. अगर किसी साल शानादार फसल (बम्पर क्रॉप) होने पर फसलों के बाजार मूल्य घटते हैं तो सरकार निर्धारित एमएसपी पर उन्हें खरीदने की पूरी व्यवस्था करेगी.

हालांकि, सच्चाई यह है कि आज भी हमारे देश के करीब 93 प्रतिशत किसानों को अपनी फसलों को एमएसपी से कम मूल्यों पर व्यापारियों के हाथों बेचना पड़ता है. कभी-कभी तो आलू, टमाटर, प्याज जैसी फसलों का कोई खरीदार नहीं मिलता और किसानों को इन्हें गड्ढों में फेंकना पड़ता है. खरीद मूल्य खरीफ और रब्बी फसलों के ऐसे मूल्य थे, जिस पर भारत का खाद्य निगम जैसी सार्वजनिक संस्था जन वितरण प्रणाली में अनाज उपलब्ध कराने हेतु, किसानों से अनाज खरीदती थी. खरीद मूल्य की घोषणा फसलों की कटाई शुरू होते ही की जाती थी और वह खुले बाजार मूल्य से कम और एमएसपी से ज्यादा होता था.

फसलों के खरीद का संक्षिप्त इतिहास

धान खरीद के मामले में उपर्युक्त दोनों तरह के मूल्यों को घोषित करने का काम, थोड़े-बहुत परिवर्तनों के साथ, 1973-74 तक जारी रहा. गेहूं के मामले में ऐसी घोषणा 1969 में बंद कर दी गई और फिर इसे 1973-74 में केवल एक साल के लिए पुनर्जीवित किया गया. इसके बाद देश में किसान आन्दोलन का एक दौर हुआ, जिसमें एमएसपी बढ़ाने और सभी फसलों का एमएसपी तय करने की मांग प्रमुखता से उठाई गई. इस आन्दोलन के दबाव में सरकार ने फसलों के मूल्य निर्धारण के लिए बनाये गए आयोग को पुनर्गठित किया और एमएसपी के निर्धारण के मापदंडों में भी बदलाव किया.

ज्ञात हो कि सरकार ने इसके लिए 1965 में एक ‘कृषि मूल्य आयोग’ की स्थापना की थी, जो एक विकेन्द्रित केन्द्रीय संस्था थी. लेकिन 1985 मंे इसने नये मापदंडों के साथ एमएसपी के निर्धारण के लिए ‘कमीशन फॉर एग्रीकल्चरल कॉस्ट्स एंड प्राइसेस’ (सीएसीपी) की स्थापना की.

सीएसीपी किसी कृषि फसल के एमएसपी को तय करने में निम्नलिखित कारकों को ध्यान में रखता है –

  1. उत्पादन लागत,
  2. आगत (इनपुट) मूल्यों में परिवर्तन,
  3. आगत-उत्पादन मूल्य समता,
  4. बाजार मूल्यों की प्रवृतियां,
  5. मांग एवं पूर्त्ति,
  6. अंतर फसल मूल्य समता,
  7. औद्योगिक लागत ढांचा पर प्रभाव,
  8. जीवन यापन की लागत पर प्रभाव,
  9. सामान्य मूल्य स्तर पर प्रभाव
  10. अंतर्राष्ट्रीय मूल्य परिस्थिति,
  11. किसानों द्वारा भुगतान एवं प्राप्त किए गए मूल्यों के बीच समता और
  12. निर्गत मूल्य और सब्सिडी के निहितार्थों पर प्रभाव.

इन कारकों के मद्देनजर सीएसीपी जिला, राज्य एवं देश स्तर पर उलपब्ध सूक्ष्म स्तरीय और औसत आंकड़ों का इस्तेमाल करते हुए कृषि फसलों का एमएसपी तय करता है. सीएसीपी अभी गन्ना को शामिल कर कुल मिलाकर 25 फसलों का एमएसपी, हर साल तय करता है, जिनमें धान, गेहूं, ज्वार, बाजरा, मक्का, रागी, जौ, चना, अरहर, मूंग, उरद, मसूर, मूंगफली, सरसों, तोरिया, सोयाबीन, सूरजमुखी, तिल, कुसुम, कलौंजी, नारियल, कपास, जूट, तम्बाकू एवं गन्ना शामिल हैं.

हालांकि, गन्ना का मूल्य तय करने के लिए एक अलग प्रक्रिया अपनायी जाती रही है. 2009-10 के पहले केन्द्र सरकार गन्ना का वैधानिक न्यूनतम मूल्य (एसएमपी) तय करती थी और किसान किसी चीनी मिल के मुनाफा का 50 प्रतिशत पाने के हकदार थे.

लेकिन सरकार किसानों को इस मुनाफा को दिलवाने में पूरी तरह विफल रही और चीनी मिलों पर गन्ना किसानों का बकाया बढ़ता गया. इसके बाद गन्ना (नियंत्रण) आदेश, 1966 (जिसके तहत गन्ना का मूल्य तय किया जाता था) को अक्टूबर 2009 में संशोधित किया गया और गन्ना की ‘उचित और लाभकारी मूल्य’ (एफआरपी) की आवधारणा के तहत गन्ना का मूल्य निर्धारित किया जाता है. मोदी सरकार ने 2018-19 के चीनी सीजन के लिए गन्ना का एफआरपी (10 प्रतिशत की मूल रिकवरी रेट के लिए) 275 रू. प्रति क्विंटल तय किया है.

एमएसपी निर्धारण के बावजूद जब किसानों की उपजों को सरकार द्वारा नहीं खरीदा गया और उपजों की लागत बढ़ती गई तो उनकी हालत बद से बदतर हो गई. बहुसंख्यक किसान कर्जजाल में फंस गये और उनकी खेती घाटे का व्यवसाय में तब्दील हो गई. किसानों का अच्छा-खासा हिस्सा खेती छोड़ने का मन बनाने लगा और कर्ज जाल से मुक्ति पाने के लिए हर साल हजारों किसान आत्महत्या तक करने लगे. 2003-04 तक आते-आते देश भर में सैकड़ों वैसे किसान संगठन उभर कर सामने आये, जिन्होंने कर्जा मुक्ति, एमएसपी में बढ़ोतरी और कृषि उत्पादन लागतों में कमी जैसी मांगों को लेकर जुझारू आन्दोलन शुरू कर दिया.

स्वामीनाथन कमीशन की सिफारिशें

किसानों के उभरते आन्दोलन को देखते हुए मनमोहन सरकार ने नवम्बर 2004 में एम. एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता में एक ‘नेशनल कमीशन ऑन फॉमर्स’ का गठन किया, जिसने 2006 तक अपनी सारी रिपोर्टें सरकार को सुपूर्द कर दीं. इस कमीशन ने कृषि संकट के निम्नलिखित प्रमुख कारणों का पता लगाया –

  1. भूमि सुधार का अधूरा कार्यक्रम,
  2. पानी की गुणवत्ता एवं मात्रा में कमी,
  3. तकनीकि थकान,
  4. संस्थागत साख की अपर्याप्तता एवं पहुंच की समस्या,
  5. सुनिश्चित एवं लाभकारी विपणन का अभाव और
  6. मौसमी कारक.

इस कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में देश के कृषि संकट को हल करने के लिए भूमि सुधार करने, सिंचाई की सुविधाओं एवं कृषि उत्पादकता को बढ़ाने, जरूरतमंद किसानों को साख एवं बीमा की सुविधा मुहैय्या कराने, खाद्य सुरक्षा बढ़ाने एवं किसानों की आत्महत्याओं को रोकने, जैव विविधता को संरक्षित करने, कृषि क्षेत्र पर आबादी के बोझ को घटाने हेतु गैर कृषि क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों को पैदा करने और छोटी जोत के किसानों की प्रतियोगी क्षमता को बढ़ाने हेतु कई महत्वपूर्ण सिफारिशें कीं. इसी सन्दर्भ में इसने कृषि उपजों के एमएसपी को उनकी भारित औसत लागत से कम से कम 50 प्रतिशत अधिक तय करने की सिफारिश की. लागत के सही मूल्यांकन के लिए इस आयोग ने सरकार से सी2 फार्मूला अपनाने की गुजारिश की.

गौरतलब है कि सीएसीपी कृषि फसलों की लागतों का मूल्यांकन ए2 $ एफएल फॉर्मूले के आधार पर करती है और उसी के अनुरूप उनके एमएसपी तय करती है. ए2 लागत में वे सारे भुगतान किये गए खर्चे शामिल हैं, जो नगद और वस्तु के रूप में किसानों द्वारा खादों, बीजों, ईधनों, सिंचाई, किराये पर लिए गए मजदूर, खेती के मशीन, पट्टे पर ली गई जमीन, कार्यशील पूंजी के सूद आदि पर किये जाते हैं.

एफएल लागत में किसान एवं उनके परिवार द्वारा किए गये अवैतनिक श्रम के अध्यारोपित मूल्य को शामिल किया जाता है. स्वामीनाथन कमीशन द्वारा सुझाई गई सी2 लागतें काफी ज्यादा व्यापक/बहुग्राही होती हैं, जिनमें ए2 और एफएल के साथ-साथ किसानों की अपनी जमीन का किराया मूल्य और अचल सम्पत्तियों पर सूद को भी शामिल किया जाता है।.

मनमोहन सरकार ने स्वामीनाथन कमीशन की सिफारिशों को लागू करने का कोई ठोस प्रयास नहीं किया. इस बीच फसलों के लागत को सी 2 फॉर्मूले के तहत निकालने और उनकी एमएसपी को तदनुसार बढ़ाने की मांग को लेकर देश के विभिन्न राज्यों में किसान आन्दोलन होते रहे हैं. कुछ कृषि विशेषज्ञों ने तो लागत मूल्यांकन के लिए सुझाये गए सी2 फार्मूले को भी दोषपूर्ण माना.

इसके बाद मनमोहन सरकार ने एमएसपी को तय करने में कार्यप्रणाली सम्बंधी मुद्दों की जांच के लिए 1 अप्रैल, 2013 को डॉ. रमेश चंद की अध्यक्षता में एक कमिटी का गठन किया. डॉ. रमेश चंद ‘नेशनल इन्सटीट्युट फॉर एग्रीकल्चरल इकॉनामिक्स एंड पॉलिसी रिसर्च, दिल्ली’ के निदेशक रहे हैं और अभी ‘नेशनल इन्टीट्यूशन फॉर ट्रांसफॉरमिंग इंडिया’ (नीति) के एक सदस्य के रूप में कार्यरत हैं.

रमेश चंद कमिटी के सुझाव

रमेश चंद कमिटी ने अपनी रिपोर्ट को मार्च 2015 में ही प्रस्तुत कर दी, लेकिन इसकी सिफारिशों को भी दबा दिया गया. इस कमिटी ने सी2 लागत फॉर्मूला को अपर्याप्त माना और फसलों की लागतों के मूल्यांकन में निम्न बातों पर भी ध्यान देने की सिफारिश की –

  1. कृषि कार्य को ‘कुशल श्रम’ मानकर फसलों की लागत में मेहनत का आकलन करना चाहिए;
  2. फसलों की लागत में किसान के जोखिम और प्रबंधकीय कौशल के लिए 10 प्रतिशत अलग से जोड़ा जाना चाहिए;
  3. अभी मवेशियों पर खर्च केवल खेती के सीजन के समय का जोड़ा जाता है, जिसे बढ़ाकर पूरे साल का खर्च कर देना चहिए;
  4. कार्यशील पूंजी का आकलन बढ़ती महंगाई के अनुकूल बढ़ाना चाहिए और इस पूंजी पर सूद को पूरे सीजन के लिए जोड़ना चाहिए, न कि आधे सीजन के लिए;
  5. स्थायी पूंजी का आकलन निर्माण उद्योग के वर्तमान मूल्यों के हिसाब से किया जाना चाहिए;
  6. भूमि का मूल्य, लगान मूल्य से तय नहीं कर, वास्तविक मूल्यों से करना चाहिए;
  7. फसल कटाई के बाद के सभी कामों (साफ करना, सुखना, परिवहन आदि) का भी आकलन किया जाना चाहिए और इनसे सम्बंधित जोखिम के लिए अनुमानित राशि जोड़ना चाहिए (अभी कटाई के बाद के खर्च नहीं जोड़े जाते हैं);
  8. मूल्यों का आकलन कम से कम हर प्रखंड के दो गांव की वास्तविक स्थिति के आधार पर किया जाना चाहिए और इसके लिए तेजी से अपडेट होने वाले साफ्टवेयर तैयार करना चाहिए एवं फील्ड स्टॉफ बढ़ाना चाहिए.

इनके अलावा इस कमिटी ने सिफारिश की कि सीएसीपी के काम को केवल एमएसपी तय करने तय सीमित नहीं रखना चाहिए और इसे एक नीति निकाय के रूप में बनाने का प्रावधान करना चाहिए. इसका नाम भी बदलकर ‘कमीशन फॉर एग्रीकल्चरल कॉस्ट्स, प्राइसेस एंड पालिसिस’ (कृषि लागत, मूल्य एवं नीति आयोग) कर देना चाहिए. अभी फसलों की लागत के मूल्यांकन में कोई पारदर्शिता नहीं है, इसलिए इस कमिटी ने सुझाव दिया कि इस मूल्यांकन के सारे हिसाब-किताब को सार्वजनिक किया जाये.

इसके अलावा इसने फसलों की लागतों के मूल्यांकन में किसान संगठनों से भी राय-विचार करने की सिफारिश की. इसने यह भी सुझाव दिया कि अगर सरकार तय एमएसपी पर किसानों की फसलों को खरीद नहीं पाती है और मजबूरन उन्हें एमएसपी से कम दाम पर अपनी फसलों को बेचना पड़ता है, तो वह ‘डेफिसिएन्सी प्राइस पेमेंट’ के तौर पर किसानों के घाटे की भरपाई करने का प्रावधान करे.

इस प्रकार रमेश चंद कमिटी की सिफारिशें कई मायनों में स्वामीनाथन कमीशन की सिफारिशों को उन्नत बनाती हैं. हालांकि, आज के किसान आन्दोलन में मुख्य तौर पर फसलों की लागत का मूल्यांकन स्वामीनाथन कमीशन द्वारा सुझाये गए सी2 फॉर्मूले के आधार पर करने की मांग उठ रही है. वैसे अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (एआईकेएससीसी) ने एमएसपी की गारंटी से सम्बन्धित संसद में पेश करने के लिए जो बिल तैयार किया है, उसमें रमेश चंद कमिटी की सिफारिशों को भी शामिल किया गया है.

भाजपा का वादा एवं एमएसपी में वृद्धि की घोषणा

संप्रग की मनमोहन सरकार ने न तो स्वामीनाथन कमीशन और न ही रमेश चंद कमिटी की सिफारिशों को लागू करने का प्रयास किया. 2014 की लोकसभा चुनाव की जब घोषणा हुई तो भाजपा ने इन्हें एक मुद्दा बनाया. नरेन्द्र मोदी ने अपने चुनावी भाषणों में वादा किया कि अगर उनकी सरकार सत्ता में आती है तो वह स्वमीनाथन कमीशन के सुझाव के मुताबिक फसलों का एमएसपी उनकी लागतों से डेढ़ गुना तय करेगी.

हालांकि, जब उनके नेतृत्व में राजग सरकार केन्द्र में सत्तासीन हुई, तो वह इस वादा को भूल गई. यहां तक कि उसने सुप्रीम कोर्ट में फरवरी 2018 में एक शपथ पत्र देकर कहा कि वह सी2 लागत के आधार पर एमएसपी तय नहीं कर सकती, क्योंकि इससे कृषि बाजार पर नकारात्मक असर पड़ेगा.

मोदी सरकार के इस शपथपत्र पर देश भर के किसान संगठनों ने तीखी नाराजगी दिखाई. एआईकेएससीसी (जो करीब 200 संगठनों का साझा मंच है) तो अपने गठन से ही सी 2 फार्मूला के आधार पर फसलों का लागत मूल्य निकालने और उनकी एमएसपी को इस मूल्य से डेढ़ गुना तय करने की मांग करती रही है. इसने गत साल की अपनी पदयात्राओं के दौरान इस मांग के साथ-साथ कर्जा मुक्ति की मांग को करीब डेढ़ दर्जन राज्यों के किसानों के बीच पहुंचायी. फिर दिल्ली में ‘किसान संसद’ आयोजित कर न केवल विभिन्न विपक्षी दलों के बीच, बल्कि संसद के पिछले शीतकालीन सत्र तक पहुंचाने की कोशिश की गई.

इस बीच कई विधानसभाओं और आगामी लोकसभा के चुनावों की तैयारियां शुरू हो र्गइं और ऐसे मौके पर देश भर के किसानों का दिल जीतना भाजपा और मोदी सरकार की फौरी जरूरत हो गई. इसलिए नरेन्द्र मोदी ने 4 जुलाई, 2018 को मत्रिमंडल की एक विशेष बैठक बुलाकर 14 खरीफ फसलों का एमएसपी घोषित कर दिया. उन्होंने दावा किया कि यह एमएसपी उनकी लागत से डेढ़ गुना तय किया गया है, जिसका लोकसभा के चुनाव घोषणा पत्र में वादा किया गया था.

एमएसपी वृद्धि की असलियत और विरोध के स्वर

इस दावा के बाद देश भर के किसान संगठनों, कृषि विशेषज्ञों, अर्थशास्त्रियों और विपक्षी राजनैतिक दलों की आर से तीखी प्रतिक्रियायें आनी शुरू हो र्गइं. एआईकेएससीसी ने आंकड़ों की एक तालिका जारी कर देश के किसानों को बताया कि मोदी सरकार का एमएसपी एक धोखा है और इसे तय करने में स्वामीनाथन कमीशन द्वारा सुझाए गए सी2 लागत फॉर्मूला का सहारा नहीं लिया गया है. उनके द्वारा जारी तालिका इस प्रकार है –

किसानों की लूट, एमएसपी की झूठ

Source : Frontline

इसने 13-14 जुलाई को दिल्ली में अपनी वार्किंग कमिटी और सामान्य परिषद की विशेष बैठक भी आयोजित की, जिसमें मोदी सरकार की इस फर्जी घोषणा को देश स्तर पर बेनकाब करने का निर्णय लिया गया. इस निर्णय के तहत 20 जुलाई, 2018 को मंडी हाउस से संसद मार्ग थाना तक एक ‘किसान मार्च’ और थाना के पास ‘किसान अविश्वास प्रस्ताव सभा’ अयोजित किया गया. इस सभा में करीब 3,500 किसान शामिल हुए, जिसे किसान संगठनों के नेताओं के साथ-साथ कई राजनैतिक दलों के पदाधिकारियों ने भी सम्बोधित किया.

ज्ञात हो कि इसी दिन लोकसभा में एआईकेएससीसी द्वारा तैयार दो बिलों को भी पेश किया जाना था. पहला बिल एमएसपी की गारंटी एवं दूसरा किसानों के सभी प्रकार के कर्जों से मुक्ति से सम्बन्धित था. चूंकि उस दिन लोकसभा में विपक्षी दलों द्वारा मोदी सरकार के खिलाफ लाये गए अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा होती रही, इसलिए ये बिल पेश नहीं किए जा सके. लोकसभा में विपक्षी दलों का अविश्वास प्रस्ताव तो गिर गया, लेकिन किसानों की इस सभा में यह सर्वसम्मति से पारित हो गया. मालूम हो कि अब तक 22 विपक्षी दलों ने एआईकेएससीसी के दोनों बिलों का समर्थन किया है और इन्हें संसद के इसी सत्र में 3 अगस्त को पेश कर दिया गया है.

इस अविश्वास प्रस्ताव सभा को जिन नेताओं ने सम्बोधित किया उनमें राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन के नेता वी. एम. सिंह, जय किसान आन्दोलन के योगेन्द्र यादव, स्वाभिमानी शेतकारी संगठन के राजू सेट्ठी, एनएपीएम की मेधा पाटकर, बीकयू (दाकौंदा) पंजाब के डॉ. दर्शन पाल, अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा के आशीष मित्तल, लोकतान्त्रिक जनता दल के शरद यादव, सीपीएम के सीताराम येचुरी, सीपीआई के अतुल कुमार अंजान, सीपीआई (एमएल) के दीपंकर भट्टाचार्य, राष्ट्रीय लोकदल के त्रिलोक सिंह आदि शामिल थे. सभी ने कहा कि मोदी सरकार द्वारा घोषित एमएसपी एक धोखा है; वह सी2 लागत पर आधारित नहीं है.

कुछ वक्ताओं ने यह भी बताया कि मोदी सरकार के 4 साल के दौरान एमएसपी में जो औसत वृद्धि हुई है वह मनमोहन काल की 10 साल की वृद्धि की तुलना में कम है. सीपीएम, सीपीआई, राष्ट्रीय लोक दल एवं लोकतान्त्रिक जनता दल के वक्ताओं ने किसानों का आह्वान किया कि वे आगामी लोकसभा चुनाव में मोदी सरकार को हराकर सबक सिखायें.

इस ‘अविश्वास सभा’ को देश के प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया ने अच्छा कवरेज दिया. कुछ कृषि विशेषज्ञों एवं अर्थशास्त्रियों ने विभिन्न अखबारों में कई लेख लिखे. उनमें से कुछ ने लिखा कि एक ऐसे समय में जब अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों में अनाजों के दाम घट रहे हैं और देश के गोदामों में निर्धारित मात्रा से काफी अधिक अनाज भरे पड़े हैं, एमएसपी को एक सीमा से ज्यादा बढ़ाया नहीं जा सकता है. इसी तरह कुछ अन्य ने कृषि उत्पादन की लागतों को कम करने और खेती में किसान के निवेश में सीधे सहयोग करने पर जोर दिया.

एमएसपी के औचित्च पर सवाल

हमारे देश में पूंजीवादी एवं समाजवादी-दोनों तरह के विचारकों की ओर से एमएसपी के औचित्य और इसमें होती उतरोत्तर वृद्धि पर कई तरह के सवाल उठाये जाते रहे हैं. यहां तक कि स्वामीनाथन कमीशन भी जब सी2 लागत के आधार पर एमएसपी तय करने का सुझाव देता है तो यह नहीं कहता कि सी2 लागत से डेढ़ गुणा एमएसपी तय हो जाने से किसानों की आत्महत्यायें रूक जायेंगी या कृषि संकट हल हो जायेगा.

हाल के वर्षों में एमएस स्वामीनाथन ने प्रेस को दिये गए अपने साक्षात्कारों में साफ तौर पर कहा है कि जब तक उनके कमीशन की सारी सिफारिशों पर एक साथ अमल नहीं किया जायेगा, तब कृषि संकट को हल करना मुश्किल है. उन्होंने 4 जुलाई (जिस दिन मोदी सरकार ने खरीफ फसलों की एमएसपी घोषित की) को ‘द हिन्दू’ को साक्षात्कार देते हुए कहा कि ‘ऊंचा समर्थन मूल्य’ यद्यपि कृषि संकट का निदान नहीं है लेकिन यह किसानों की आर्थिक समस्याओं को मान्यता प्रदान करता है.

साथ में, उन्होंने यह भी कहा कि केन्द्रीय मंत्रिमंडल द्वारा एमएसपी को बढ़ाने की घोषणा करना ‘एक स्वागत योग्य कदम’ है, लेकिन यह सी2 $ 50 प्रतिशत से काफी कम है. इसके अलावा उन्होंने सरकार से अपील की कि वह अपनी खरीद नीति को दुरूस्त करे, उपभोग बढ़ाने के उपाय करे एवं खाद्य सुरक्षा कानून को ठीक से लागू करे.

रमेश चन्द्र ने दो कारणों से मोदी सरकार द्वारा की गई एमएसपी वृद्धि को सही ठहराया –

  1. चूंकि अन्तर्राष्ट्रीय एवं देश के बजारों में अनाजों के दाम कम है, इसलिए ‘क्रियाशील एमएसपी’ जरूरी है और
  2. चूंकि 85 प्रतिशत किसानों की जोत 2 हेक्टेअर से कम है और वे खेती में उचित निवेश करने में सक्षम नहीं है, इसलिए उनके निवेश पर ऊच्च मार्जिन देना न्याय संगत है.

हालांकि, अपने प्रेस बयान में उन्होंने सी 2 के ऊपर मार्जिन देने की बात को यह कहकर नकार दिया कि इसका कोई ‘आर्थिक औचित्य’ नहीं है. उन्होंने यह भी कहा कि कृषि संकट का सम्बन्ध केवल कृषि क्षेत्र से नहीं, बल्कि दूसरे क्षेत्रों से भी है, जिसका सीधा असर कृषि पर पड़ता है. अभी भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था का दो-तिहाई हिस्सा गैर-कृषि हो गया है और एनएसएसओ के अध्ययन के मुताबिक किसानों की 40 प्रतिशत आय गैर कृषि क्षेत्र से प्राप्त होती है.

इसलिए डॉ. रमेश चन्द ने सुझाव दिया कि भारत के किसानों को चीन और जापान के किसानों की तरह पार्ट-टाईम किसान बन जाना चाहिए और दूसरे गैर कृषि क्षेत्रों से कमाने के लिए समय निकालना चाहिए. सच्चाई यह है कि प्रायः सभी राज्यों के किसान आज फुल टाईम किसान नहीं रह गए हैं।.

देश के पूंजीवादी अर्थशास्त्री या कृषि विशेषज्ञ मूलतः 5 कारणों से एमएसपी में उतरोत्तर वृद्धि की आलोचना करते हैं. पहला, वे मानते हैं कि एमएसपी बढ़ने से न केवल अनाजों या खाद्य पदार्थों, बल्कि अन्य चीजों के दामों में भी वृद्धि होती है. आंकड़े बताते हैं कि एमएसपी वृद्धि एवं खाद्य मुद्रास्फीति के बीच प्रत्यक्ष अनुपालिक सम्बंध होता है और अनाजों के बाजार मूल्य एमएसपी निदेशित होते हैं.

दूसरा, वे कहते हैं कि एमएसपी बढ़ने से सरकारी खरीद की मात्रा में भी वृद्धि होती है और सरकारी गोदामों में अनाज रखने की जगह नहीं होती है. 1997-98 में जब धान का एमएसपी 415-445 रू. प्रति क्विंटल था, तो सरकार ने 155.91 लाख टन धान खरीदा था. 2017-18 में जब धान का एमएससी 1550-1590 रू. प्रति क्विंटल हो गया तो उसे 361.80 लाख टन धान खरीदना पड़ा. इसी तरह 1997-98 में जब गेहूं का एमएसपी 510 रू. प्रति क्ंिवटल था तो सरकार ने 126.52 लाख टन गेहूं खरीदा था. 2017-18 में जब गेहूं का एमएसपी 1735 रू. प्रति क्विंटल हो गया तो उसे 355.12 लाख टन गेहूं खरीदना पड़ा.

1 जुलाई, 2018 को एफसीआई के गोदामों में कुल 65 मिलियन मैट्रिक टन अनाज थे जो वर्तमान बफर स्टॉक मानदंड से 58 प्रतिशत ज्यादा है. इसके अलावा हजारों टन गेहूं-धान खुले आसमान के नीचे रखे जाते हैं, जिनका एक बड़ा हिस्सा बर्बाद हो जाता है. कई दशक पूर्व यूरोपीय यूनियन के कुछ देशों में दूध के खरीद मूल्य को उसके बाजार मूल्य से ज्यादा तय किया गया था, जिसका नतीजा दूध एवं मक्खन के अत्यधिक भंडारण में निकला था.

चीन ने भी धान, गेहूं एवं मक्का के एमएसपी की बाजार मूल्य से उपर रखा था, जिससे उसके गोदामों में 2016-17 तक 3000 लाख मैट्रिक टन जमा हो गया था. इसके बाद चीन सरकार ने एमएसपी कम किया और किसानों को प्रत्यक्ष आय सहायता देनी शुरू की.

तीसरा, वे कहते हैं कि एमएसपी की वृद्धि मोनो-क्रॉप उत्पादन को बढ़ावा देता है और कुल मिलाकर कृषि उत्पादन को विरूपित करता है. एनएसएसओ के आंकड़े बताते हैं कि खाद्य पदार्थों के उपयोग के स्वरूप में काफी बदलाव आये हैं और लोग चावल-गेहूं के बनिस्पत प्रोटीन से भरपूर खाद्य पदार्थों को खाना ज्यादा पसंद करते हैं. लेकिन विडम्बना यह है कि किसान गेहूं एवं धान की ऊपज पर ज्यादा जोर देते हैं, क्योंकि बढ़े हुए एमएसपी पर उन्हें इन फसलों के अच्छे दाम मिल जाते हैं. यही कारण है कि देश की कुल खपत का 25 प्रतिशत दालों का विदेशों से आयात करना पड़ता है.

चौथा, वे बढ़ते एमएसपी को भारत से होने वाले अनाजों के निर्यात के लिए घातक मानते हैं. खासकर, गैर बासमती चावल के निर्यात (जिसमें भारत का स्थान प्रथम है) पर इसका काफी बुरा असर पड़ेगा. अगर कोई चावल मिल मालिक 1750 रू. प्रति क्विंटल के हिसाब से गैर-बासमती धान खरीदेगा तो उसका कुल निर्यात मूल्य प्रति किलो चावल 30 रू. से अधिक बैठेगा.

थाईलैंड चावल के निर्यात में भारत का नजदकी प्रतियोगी है और उसका प्रति किलो चावल का मूल्य अंतर्राष्ट्रीय बाजार में 27-28 रू. प्रति किलो बैठेगा. ऐसी स्थिति में गैर बासमती चावल के निर्यात में कमी आना स्वाभाविक है. मालूम हो कि भारत से 2010-11 में गैर बासमती चावल का निर्यात 231.29 करोड़ रू. का हुआ था, जो बढ़कर 2017-18 में 22,927.06 करोड़ रू. हो गया.

पांचवां, वे कहते हैं कि मोदी सरकार द्वारा की गई एमएसपी की बढ़ोत्तरी विश्व व्यापार संगठन द्वारा ‘डि मिनमिस‘ प्रावधान के तहत भारत जैसे विकासशील देशों को दी गई छूट का उल्लंघन करेगा. गौरतलब है कि विश्व व्यापार संगठन (जिसका भारत भी एक सदस्य है) के कृषि सम्बन्धी समझौते के तहत किसानों को दी जाने वाली विभिन्न प्राकर की सहायाताओं के लिए प्रावधान बनाये गए हैं.

इनमें घरेलू समर्थन देने के लिए ग्रीन बॉक्स, ब्लू बॉक्स एंव अम्बर बॉक्स की व्यवस्था की गई है. ग्रीन बॉक्स के अन्दर वैसी सहायतायें आती हैं जो किसानों को सीधे आय समर्थन भुगतान, सुरक्षा तंत्र कार्यक्रम, पर्यावरण सुरक्षा कार्यक्रम और कृषि अन्वेशन एवं विकास कार्यक्रम के रूप में किसानों को उपलब्ध कराई जाती हैं. ये सहायतायें भारत की तरह उत्पाद विशिष्ट नहीं होती हैं.

अमेरिका अपने देश के किसानों को दी जाने वाली कुल सहायताओं का 90 प्रतिशत ग्रीन बॉक्स के तहत ही देता है. ब्लू बॉक्स के तहत केवल उत्पादन को सीमित करने वाली सहायतायें ही आती हैं जो किसी आधार वर्ष में जमीन और उपज की मात्रा एवं पशुधन की संख्या के आधार पर दी जाती हैं. पहले अमेरिका में भी ऐसी सहायतायें दी जाती थीं, लेकिन अभी यूरोपीय यूनियन के देशों में इसका प्रचलन है.

इन दोनों बॉक्सों के तहत दी जाने वाली सहायताओं को ‘बाजार को विकृत करने वाला’ नहीं माना जाता है लेकिन अम्बर बॉक्स की सहायता को बाजार को विकृत करने वाला माना जाता है, जिस पर विश्व व्यापार संगठन ने कई प्रकार की पाबन्दियां लगा रखी हैं. 1990 के दशक तक इस तरह की सहायतायें पश्चिमी देशों में किसानों को भारी मात्रा में दी जाती थीं, लेकिन 1995 में विश्व व्यापार संगठन के अस्तित्व में आने के बाद ऐसा नहीं होता है.

हाल के वर्षों में भारत जैसे विकासशील देशों देशों में, जहां एमएसपी एवं बाजार मूल्य में अंतर होता है, वहां किसानों को दी जाने वाली ऐसी सहायताओं की मात्रा में वृद्धि होती है. इस वृद्धि को नियन्त्रित करने के लिए विश्व व्यापार संगठन ने ‘डि मिनमिस‘ प्रावधान बनाया है. इस प्रावधान के तहत विकसित देशों को उनकी कुल कृषि उत्पादन मूल्य के 5 प्रतिशत तक ‘अम्बर बॉक्स सब्सिडी’ देने की अनुमति है, जबकि भारत जैसे विकासशील देशों को 10 प्रतिशत तक की अनुमति.

अभी तक भारत के किसानों को दी जाने वाली यह सब्सिडी इसके कुल कृषि उत्पादन मूल्य के 10 प्रतिशत में कम है, लेकिन मोदी सरकार द्वारा घोषित नये एमएसपी के बाद यह इस सीमा से उपर चले जाने की संभावना है. अमेरिका एवं कई अन्य विकसित देश पहले से ही भारत पर कृषि सब्सिडी कम करने का दबाव डाल रहे थे, अब विश्व व्यापार संगठन के जरिये अपना दबाव और बढ़ायेंगे.

क्रान्तिकारी संगठनों के सवाल

देश के कम्युनिस्ट धारा के कई क्रान्तिकारी दल एवं संगठन एमएसपी की बढ़ोतरी के साथ-साथ इसकी मूल अवधारणा पर ही सवाल खड़ा करते हैं. वे कहते हैं कि एमएसपी बढ़ाने की मांग मुख्यतः धनी किसानों की मांग है, जो आमतौर पर बाजार के लिए उत्पादन करते हैं. गरीब एवं मध्यम किसानों का काफी बड़ा हिस्सा है, जो बाजार में अपने कृषि उत्पाद बेचता कम है और बाजार से खरीदता ज्यादा है.

इस ‘पूंजीवादी व्यवस्था’ में गरीब और छोटे किसानों का कोई भविष्य नहीं है और उनका उजड़ना ही उनकी स्वाभाविक गति है. इसलिए इन मेहनतकश किसानों को एमएसपी वृद्धि की मांग का समर्थन नहीं करना चाहिए. जहां तक खेत मजदूरों एवं ग्रामीण दस्तकारों का सवाल है, उनकी माली हालत इतनी खराब है कि उन्हें भी कर्जजाल से अपने को मुक्त करने के लिए आत्महत्या तक करना पड़ रहा है. इससे सम्बन्धित हाल के 3 सालों के आंकड़ों पर गौर करें –

वर्ष              किसानों की खेत          मजदूरों की
                  आत्महत्यायें               आत्महत्यायें

2014          5,650                     6,710
2015          8,007                     4,595
2016          6,351                     5,019

स्रोतः नेशनल क्राइम रेकॉर्डस ब्यूरो

ये आंकड़े दर्शाते हैं कि 2015 की तुलना में 2016 में किसानों की आत्महत्याओं में 20 प्रतिशत की कमी आई है, जबकि खेत मजदूरों की आत्महत्याओं में 10 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. 2014 में किसानों से ज्यादा खेत मजदूरों ने आत्महत्यायें की हैं. क्रान्तिकारी संगठन यह सवाल उठाते हैं कि एमएसपी बढ़ने से क्या खेत मजदूरों की माली हालत सुधर जायेगी और वे आत्महत्या करना बंद कर देंगे ?

वे यह भी पूछते हैं कि पंजाब में तो करीब सौ प्रतिशत गेहूं एवं धन की खरीद एमएसपी पर हो जाती है और वहां के किसानों को खेती के लिए बिजली-पानी भी मुफ्त में दी जाती है, फिर भी उनकी खेती घाटे में क्यों है और वहां के किसानों को भी आत्महत्या क्यों करना पड़ रहा है ?

इस तरह स्पष्ट है कि एमएसपी की वृद्धि कृषि संकट एवं किसानों की समस्याओं का कोई ठोस समाधान नहीं है. इसीलिए क्रान्तिकारी धारा के संगठन एमएसपी में बढ़ोतरी की मांग करने की बजाय कृषि उत्पादन की लागतों को कम करने की मांग करते हैं. उनमें से कुछ किसानों को सीधे कृषि निवेश सहायता देने की वकालत करते हैं. उनमें से अधिकांश लोग मानते हैं कि कृषि फसलों को उचित एवं लाभकारी मूल्य मिलना इस पूंजीवादी व्यवस्था में संभव नहीं है.