साल 2010 में आए भयावह चक्रवात टॉमस ने हैती के गोनाइव के रहने वाले रेनाल्ड लुइमा की आजीविका पूरी तरह खत्म कर दी थी। भूकंप और सुखाड़ के चलते वह पहले ही काफी नुकसान सह चुके थे। साल 2010 की शुरुआत में ही भूकंप ने भारी तबाही मचाई थी जिसमें एक लाख लोगों की मौत हो गई थी। फिर चक्रवात ने उनकी फसल बर्बाद कर दी। इसके बावजूद उन्होंने परिवार के खेतों में और दूसरों के खेत में बतौर मजदूर तीन साल तक काम किया। इसी दरम्यान हैती में लगातार सूखा पड़ा। सात सदस्यों के परिवार में सबसे बड़े लुइमा के लिए अब परिवार को सहयोग दे पाना असम्भव हो गया था।
आखिरकार 2013 में उन्होंने परिवार को बचाने के लिए आजीविका के बेहतर इंतजाम में विदेश जाने का फैसला किया। मगर इसके लिए पैसे चाहिए थे, तो उन्होंने दादी का हट्टा-कट्टा बैल बेच दिया। पड़ोसियों ने भी आर्थिक मदद दी और इस तरह वह ब्राजील की जोखिम भरी यात्रा पर निकल गए।
अगले एक महीने तक वह डोमिनिकन गणराज्य, एक्वाडोर की यात्रा पर रहे और इस दौरान पेरू उनका ठिकाना रहा। इसके बाद वह ब्राजील के एकरे शहर पहुंचे जहां लैटिन अमेरिका और अफ्रीका से आए हजारों प्रवासी रहते हैं और उनमें से अधिकांश लोगों के यहां आने की वजह वही थी, जो लुइमा की है। वह कहते हैं, “मैं जानता था कि हैती में मौसमी आपदाएं झेलने के बाद बेहतर भविष्य के लिए मेरे पास विदेश जाना ही एकमात्र विकल्प था।”
वहां उन्होंने छोटा-मोटा काम ढूंढ़ लिया और फिर एयर कंडीशनर और रेफ्रिजरेटर की मरम्मत करना सीखा। वर्ष 2016 में उन्होंने एक ब्राजीलियाई महिला से शादी कर ली और साल 2020 में उन्होंने ब्राजील की नागरिकता ले ली। फिलहाल वह ब्राजील में डेंटल सर्जन हैं और कूलिंग सामान उपलब्ध कराने वाली एक कंपनी के मालिक भी।
इसके साथ ही वह बच्चों के लिए एक गैर-लाभकारी संगठन भी चलाते हैं। उन्होंने कहा, “साल 2022 में मैं अपने एक भाई वुडी को भी ब्राजील ले आया। पिछले कुछ वर्षों से हैती में स्थितियां और बिगड़ जाने से मेरा एक और भाई डोमिनिकन गणराज्य में पलायन कर चुका है।”
नवम्बर 2023 में यूनिसेफ की ओर से किए गए एक अध्ययन के मुताबिक, हैती में बाढ़ और सुखाड़ की घटनाएं बढ़ गई हैं जिससे मौतें और मजबूरन विस्थापन में इजाफा हुआ है। रिपोर्ट कहती है कि वहां फल देने वाले पेड़ों के धीरे-धीरे गायब होने और खेतों में फसलों का उत्पादन घटने के चलते बहुत सारे परिवारों के लिए पेड़ों की कटाई जीने का एकलौता जरिया बन चुका है, जो हैती में जलवायु परिवर्तन का प्रमुख कारक है।
वुडी को वीजा दिलाने में मदद करने वाले वकील थाइस एल्वेस पिंटो कहते हैं कि अगर जलवायु शरणार्थी की कानूनी परिभाषा होती तो लुइमा को इतनी लंबी जद्दोजहद से नहीं गुजरना पड़ता। 1951 का जिनेवा कन्वेंशन शरणार्थी को परिभाषित करते हुए कहता है कि जिन्हें “जाति, धर्म, राष्ट्रीयता, किसी विशेष सामाजिक समूह की सदस्यता या राजनीतिक राय के कारण सताए जाने का उचित भय है” वे शरणार्थी हैं। इसमें यह भी कहा गया है कि शरणार्थी को जो अधिकार दिए जाते हैं, वे सभी अधिकार परिवार को भी मिलना चाहिए। लेकिन शरणार्थी की इस परिभाषा में जलवायु परिवर्तन को शरण मांगने के आधार के तौर पर शामिल नहीं किया गया है।
शरणार्थियों पर संयुक्त राष्ट्र के उच्चायुक्त ने 2019 के एक दस्तावेज में कहा है कि जिनेवा कन्वेंशन को जलवायु परिवर्तन से प्रभावित व्यक्तियों पर लागू किया जा सकता है, अगर वे पहले से ही हाशिए पर हैं और उत्पीड़न का सामना कर रहे हैं या उन पर इसका खतरा है। हालांकि ऐसा कहना आसान है मगर इसको अमल में लाना बहुत मुश्किल।
टापू पर बसे किरिबाती के योइन टेसियोटा जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव और खास कर समुद्री जलस्तर में इजाफे के चलते वर्ष 2013 से ही न्यूजीलैंड में शरण लेने की कोशिश कर रहे हैं। वर्ष 2015 में उन्होंने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार समिति का दरवाजा खटखटाते हुए आरोप लगाया कि उन्हें शरण देने से इनकार कर न्यूजीलैंड ने संयुक्त राष्ट्र द्वारा 1966 में अपनाए गए “नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय नियम” के तहत मिले जीने के अधिकार का उल्लंघन किया है।
उन्होंने तर्क दिया कि किरिबाती में बढ़ते समुद्री जलस्तर के चलते टकराव बढ़ा है और ताजे पानी की किल्लत बढ़ी है, जिससे उनकी जिंदगी पर खतरा है। साल 2020 में संयुक्त राष्ट्र की समिति ने न्यूजीलैंड के फैसले को सही ठहराया, जिसमें उसने कहा था कि टेसियोटा के जीवन पर सीधे खतरे के सबूत नाकाफी हैं।
लोइमा और टेसियोटा की जद्दोजहद जलवायु जनित विस्थापन की जटिलता और इन चुनौतियों से निपटने के लिए उपलब्ध तंत्र की सीमा को उजागर करता है। अफ्रीका के थिंक टैंक रिसर्च एंड प्रमोशन ऑफ अल्टरनेटिव्स इन डेवलपमेंट के कार्यकारी निदेशक मामाडुओ गोइता जलवायु परिवर्तन और जलवायु परिवर्तनशीलता में अंतर स्पष्ट करने की वकालत करते हैं। इस पर उन्होंने कहा, “माली में वर्ष 2017 से तेजी से मरुस्थलीकरण बढ़ा है जिसके चलते बहुत सारे लोग फ्रांस जाने को विवश हो गए। लेकिन, बहुतों को लगता है कि जलवायु परिवर्तनशीलता के चलते मरुस्थलीकरण हुआ है और भविष्य में यह बदल जाएगा। ऐसे में जलवायु परिवर्तनशीलता और जलवायु परिवर्तन में अंतर स्पष्ट करना बहुत जरूरी है।”
उदासीनता
वैध परिभाषा और जलवायु शरणार्थियों के सवालों का स्पष्ट समाधान निकाले बिना अंतरराष्ट्रीय प्रयासों ने मानव गतिशीलता में जलवायु परिवर्तन को उत्प्रेरक के रूप में स्थापित करने पर फोकस किया। गोइता ने कहा, साल 2018 में हुआ अंतर-सरकारी समझौता ग्लोबल कॉम्पैक्ट फॉर माइग्रेशन मानता है कि लोगों के स्थानांतरण के पीछे जलवायु परिवर्तन एक मजबूत कारण है, लेकिन प्रभावित समुदायों को लेकर समझौते में चुप्पी है।
इस समझौते में संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देश शामिल हैं और यह गैर-बाध्यकारी है। इसी तरह, जलवायु परिवर्तन और मानव के स्थानांतरण के बीच संबंध को स्पष्ट करने के लिए 2022 की कम्पाला घोषणा को 48 अफ्रीकी मुल्कों ने अगस्त 2023 में अपनाया था, मगर इसमें जलवायु शरणार्थी का कोई जिक्र नहीं है। जिनेवा के एक गैर-लाभकारी संगठन इंटरनल डिस्प्लेसमेंट मॉनिटरिंग सेंटर (आईडीएमसी) व नॉर्वेजियन रिफ्यूजी कौंसिल के नीति सलाहकार एलिस बैलेट ने कहा,“यह सारे उपाय लोगों को कुछ हद तक सुरक्षा दे सकते हैं, लेकिन यह वैध परिभाषा नहीं देते हैं।”
जलवायु शरणार्थी के मुद्दे क्षेत्रीय समझौतों तक ही सीमित हैं। अंतरराष्ट्रीय जलवायु समझौतों में शायद ही इस मुद्दे को जगह मिल पाती है। साल 2023 के यूएन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (कॉप 28) में अपनाए गए अनुकूलन पर वैश्विक लक्ष्य में जलवायु पलायन, स्थानांतरण और शरणार्थी जैसे शब्दों का जिक्र नहीं है।
साल 2015 के पेरिस समझौते का अनुच्छेद 7.1 “अनुकूलन क्षमता (दुनिया में) बढ़ाने, लचीलापन मजबूत करने और जलवायु परिवर्तन के खतरों को कम करने” की प्रतिज्ञा करता है। कॉप 28 में नुकसान व क्षति कोष स्थापित करने का भी फैसला लिया गया था, जिसमें देश के भीतर जलवायु-जनित पलायन को स्वीकार किया गया है लेकिन इसमें भी जलवायु शरणार्थी का जिक्र नहीं है।
गोइता कहते हैं, “अगर वैश्विक समझौतों में ही जलवायु के खतरों से लोगों के पलायन का जिक्र नहीं होता है, तो ये समझौते अधूरे ही रहेंगे। इन दस्तावेजों में ज्यादातर परिभाषाएं, जिन्हें अपना लिया गया है और जिन्हें अपनाने की प्रक्रिया चल रही हैं, वे अस्पष्ट हैं।”
अमेरिका की न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में शोधकर्ता क्रिस्टीना ड्रोगोमिर कहते हैं कि दिक्कत यह है कि अंतरराष्ट्रीय संगठनों को लगता है कि जलवायु शरणार्थियों पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों का समय अभी नहीं आया है। वह कहते हैं कि स्थानीय स्तर पर काम किया जाना चाहिए, लेकिन दोनों स्तर पर काम किया जाना चाहिए।
बैलिएट कहते हैं कि यह जरूरी भी है क्योंकि एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन कर देने भर से जलवायु परिवर्तन के चलते उपज रही अलग-अलग स्थितियों का समाधान नहीं निकल सकता है। साथ ही वह यह भी जोड़ते हैं कि जलवायु परिवर्तन से प्रभावित लोगों की अलग-अलग जरूरतों को पूरा करने के लिए अलग-अलग तरीकों और शरणार्थी नीतियों की जरूरत है।
तैयारी में ढिलाई
जलवायु शरणार्थी की कानूनी परिभाषा पर आम सहमति पहला कदम है, मगर ऐसे लोगों की पहचान करना बड़ी चुनौती होगी। गोइता कहते हैं, “वर्तमान में जलवायु शरणार्थी को लेकर कोई पुख्ता आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। हालांकि, जलवायु परिवर्तन के चलते आंतरिक विस्थापन के कुछ अनुमानित आंकड़े मौजूद हैं लेकिन वे आंकड़े यह नहीं बताते कि यह चुनौती कितनी बड़ी है।”
वर्ष 2021 में विश्व बैंक ने अपनी ग्राउंड्सवेल रिपोर्ट में वर्ष 2050 तक जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से लगभग 2,160 लाख लोगों के आंतरिक विस्थापन का अनुमान लगाया है। आईडीएफसी का अनुमान है कि सिर्फ 2023 में ही प्राकृतिक आपदाओं से 320 लाख लोग विस्थापित हुए।
दूसरी चुनौती यह है कि दुनिया के तमाम देश फिलहाल सिर्फ व्यक्तिगत स्तर पर शरणार्थी का दर्जा देते हैं, जबकि जलवायु परिवर्तन पूरे समुदायों और देशों को प्रभावित करता है। बैलिएट कहते हैं, “भविष्य में हम यह भी देख सकते हैं कि पूरा का पूरा द्वीप ही बढ़ते समुद्री जलस्तर में समा गया। ऐसी स्थिति में बड़े स्तर पर होने वाले पलायन से निपटने के लिए दुनिया तैयार नहीं है।”
इस संभावित स्थिति के भय से ही नवम्बर 2023 में टुवालू ने ऑस्ट्रेलिया के साथ जलवायु पलायन समझौता किया। यह दुनिया का पहला समझौता है। इस समझौते के प्रावधानों के तहत ऑस्ट्रेलिया ने हर साल 280 टुवालू नागरिकों को अपने यहां नागरिकता देने की प्रतिज्ञा की है।
अमेरिका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के विलियम क्लार्क कहते हैं, “अभी बहुत सारे देश शरणार्थियों को अपने नागरिकों की सुरक्षा और अर्थव्यवस्था के लिए खतरा मानते हैं। हम जानते हैं कि आने वाले दिनों में जलवायु परिवर्तन के चलते पलायन बढ़ेगा। अगर हम सही कानूनी प्रावधानों और योजना के साथ आगे बढ़े तो जलवायु पलायन एक प्रभावशाली अनुकूलन टूल हो सकता है, जिसका इस्तेमाल इस तरीके से किया जा सकता है कि इससे प्रभावित देशों और जो शरणार्थियों को शरण दे रहे हैं, दोनों के लिए फायदेमंद हो।”
इसका एक उदाहरण प्रशांत द्वीप जलवायु गतिशीलता रूपरेखा है। नवम्बर 2023 में अस्तित्व में आई इस रूपरेखा के तहत प्रशांत क्षेत्र में नागरिक द्वीपीय देशों के बीच कानूनी रूप से स्थानांतरित हो सकते हैं। यह रूपरेखा इन देशों में जलवायु परिवर्तन से प्रभावित लोगों के लिए अनुकूलन उपायों के तहत लेबर माइग्रेशन स्कीम को भी बढ़ावा देता है। यह रूपरेखा यद्यपि कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं है, तथापि जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में प्रशांत क्षेत्र के लोगों को सुरक्षित तरीके से एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए एक राह अवश्य बनाता है।
अधूरे मन से काम
दुनिया ने सात दशक पहले ही शरणार्थी को परिभाषित कर दिया लेकिन जलवायु शरणार्थी की परिभाषा अब तक नहीं दी जा सकी है 1951: जिनेवा कन्वेंशन में शरणार्थी की कानूनी परिभाषा दी गई। इसमें जलवायु आपदाओं के आधार पर शरण लेना शामिल नहीं है
- 1985: संयुक्त राष्ट्र जलवायु कार्यक्रम ने पहली बार विस्तृत तौर पर पर्यावरण शरणार्थी को परिभाषित किया। इसके मुताबिक, वे लोग पर्यावरणीय शरणार्थी हैं, जिन्हें “पर्यावरणीय संकटों” के चलते स्थायी या अस्थायी तौर पर अपना पारंपरिक ठिकाना बदलना पड़ता है
- 2011: नॉर्वे में जलवायु परिवर्तन और विस्थापन पर हुए ननसेन कॉन्फ्रेंस में जलवायु परिवर्तन और सीमा पार के विस्थापन पर 10 सिद्धांत तैयार किए गए
- 2013: यूरोपीय आयोग, यूरोप में जलवायु जनित पलायन को कम कर बताता है
- 2015: पेरिस समझौते में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को रोकने, कम करने और जलवायु परिवर्तन से संबंधित विस्थापन की समस्या के हल के लिए टास्क फोर्स के गठन का आह्वान किया गया
- 2018: संयुक्त राष्ट्र ग्लोबल कॉम्पैक्ट ऑन रिफ्यूजी में जलवायु शरणार्थी का संदर्भ दिया गया है लेकिन देशों की तरफ से कार्रवाई के लिए वादे का अभाव है
- 2022: कम्पाला मिनिस्टीरियल डिक्लेरेशन ऑन माइग्रेशन, एनवायरमेंट एंड क्लाइमेट चेंज मौसमी गतिविधियों से प्रभावित लोगों को अफ्रीकी क्षेत्र के पूर्वी हिस्से और हॉर्न में सुरक्षित तरीके से सीमा पार जाने का अधिकार देता है
- 2023: प्रशांत द्वीपीय देश, जलवायु परिवर्तन से प्रभावित लोगों को सीमा पार जाने की अनुमति देने के लिए रूपरेखा बनाने पर राजी हुए। ऑस्ट्रेलिया और टुवालू ने एक संधि की है, जिसमें ऑस्ट्रेलिया ने टुवालू के जलवायु परिवर्तन प्रभावित कुछ लोगों को अपने देश आने और काम करने की अनुमति देता है
स्रोत: खबरों और रपटों में उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर