दो दशक पहले वॉरेन बफे ने चेतावनी दी थी कि डेरिवेटिव्स कुछ और नहीं बल्कि टाइम बम हैं. यह दोनों ही साइड के लिए खतरनाक है, जो उनमें डील करते हैं. अब सेबी के आंकड़ों ने एक बार फिर वॉरेन बफे को सही साबित कर दिया है.
भारतीय शेयर मार्केट में पिछले कुछ सालों में F&O ट्रेडर्स की संख्या लगातार बढ़ी है. इसके बावजूद कि सेबी ने लगातार कहा कि F&O ट्रेडिंग सबसे रिस्की है और 10 में से 9 ट्रेडर्स इसमें पैसा गंवा रहे हैं, ट्रेडर्स की संख्या लगातार बढ़ी है. अब सेबी ने F&O ट्रेडिंग पर अंकुश लगाने के लिए कुछ नए सुझाव दिये हैं.
दो दशक पहले वॉरेन बफे ने चेतावनी दी थी कि डेरिवेटिव्स कुछ और नहीं बल्कि टाइम बम हैं. यह दोनों ही साइड के लिए खतरनाक है, जो उनमें डील करते हैं. अब सेबी के आंकड़ों ने एक बार फिर वॉरेन बफे को सही साबित कर दिया है.
वित्त वर्ष 24 में, 92.50 लाख व्यक्तियों और प्रोपराइटरशिप फर्मों ने एनएसई के एनएसई के इंडेक्स डेरिवेटिव सेगमेंट में कारोबार किया और कुल मिलाकर 51,689 करोड़ रुपये का ट्रेडिंग घाटा उठाया. सेबी के आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि 92.5 लाख ट्रेडर्स में से 85% या 78.28 लाख को घाटा हुआ.
यह घाटा इतना बड़ा है कि सेबी प्रमुख माधबी पुरी बुच ने मंगलवार को एक कार्यक्रम में इसे “मैक्रो इश्यू” बताया. बुच ने कहा, “मेरे हिसाब से 50,000-60,000 करोड़ रुपये का घाटा काफी बड़ा है. यह 200-600 करोड़ रुपये के आसपास नहीं है.”अगर हम ट्रान्जेक्शन की कॉस्ट पर विचार करें तो घाटा और भी बढ़ जाएगा.
सेबी की स्टडी में पाया गया कि ट्रेडिंग घाटे के अलावा घाटे में चलने वालों ने ट्रान्जेक्शन कॉस्ट के रूप में अतिरिक्त 23% ट्रेडिंग घाटे को खर्च किया, जबकि प्रॉफिट कमाने वालों ने वित्त वर्ष 22 के दौरान अपने ट्रेडिंग लाभ का अतिरिक्त 15% लेनदेन लागत के रूप में खर्च किया.
सेबी ने कहा,
“ट्रान्जेक्शन कॉस्ट पर विचार करने के बाद वित्त वर्ष 24 के नतीजे वित्त वर्ष 22 की स्टडी से काफी हद तक तुलनीय होंगे, जिसमें पाया गया कि 10 में से 9 लोग पैसे खो रहे हैं. दूसरी तरफ यह देखा गया है कि बड़े नॉन इंडिव्यूजुअल प्लेयर्स हाई फ्रीक्वेंसी वाले एल्गो-आधारित ट्रेडर्स और/या विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक (FPI) हैं, आम तौर पर ऑफसेटिंग प्रॉफिट कमा रहे हैं.”
ऑप्शन में 51,689 करोड़ रुपये का घाटा बहुत बड़ा है. यह वित्त वर्ष 24 के दौरान सभी म्यूचुअल फंड की ग्रोथ और इक्विटी ओरिएंटेड स्कीम में नेट फ्लो का 32% से अधिक है. सेबी ने कहा कि यह पिछले पांच वर्षों में सभी स्कीमों में सभी म्यूचुअल फंड में एवरेज एन्यूअल फ्लो का 25% से अधिक है.
नियामक अब सात चरणों में इस डेरिवेटिव टाइम बम को डिफ्यूज करना चाहता है – वीकली एक्सपायरी की संख्या को प्रति स्टॉक एक्सचेंज एक तक सीमित करना, कॉन्ट्रैक्ट साइज़ को 2-3 गुना बढ़ाना और मार्जिन रिक्वायरमेंट को बढ़ाना.IIFL सिक्योरिटीज के अनुमान से पता चलता है कि इसके परिणामस्वरूप लगभग 30-40% मार्केट वॉल्यूम प्रभावित हो सकता है.
आईआईएफएल ने कहा,
“हमारा मानना है कि 7 उपायों में से वीकली एक्सपायरी को प्रति एक्सचेंज 1 कॉन्ट्रैक्ट तक सीमित करने से बाजार की क्वांटिटी पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ने की संभावना है. कॉन्ट्रैक्ट के साइज़ को शुरू में 2-3 गुना बढ़ाने (और 6 महीने बाद 3-4 गुना) से रिटेल पार्टिसिपेशन प्रभावित होगी और एक्टिव ट्रेडर्स की संख्या कम हो सकती है. जबकि स्ट्राइक प्राइस को युक्तिसंगत बनाने, ईएलएम में बढ़ोतरी और एक्सपायरी डे कॉन्ट्रैक्ट पर कैलेंडर स्प्रेड मार्जिन प्रॉफिट पर प्रतिबंध जैसे अन्य उपायों से भी वॉल्यूम में कुछ नरमी आनी चाहिए.”
कैपिटल मार्केट एंड कमोडिटी मार्केट कमिटी, पीएचडीसीसीआई प्रेसिडेंड बीके सभरवाल ने कहा कि बाजार के अंदरूनी सूत्रों को याद है कि 2014 में कोरिया ने भी इसी तरह की चिंताओं की पृष्ठभूमि में इसी तरह के उपायों को लागू किया था. हालांकि, नियामकों द्वारा बिज़नेस एक्टिविटी को रिवाइव करने के कई प्रयासों के बावजूद वहां बाजार कभी नहीं उबर पाया और 10 साल बाद भी वॉल्यूम 2014 की तुलना में कम है, इसलिए सेबी के लिए केवल फेज़ वाइस तरीके से परिवर्तनों को लागू करना महत्वपूर्ण होगा ताकि बाजार की जीवंतता एक समय में बहुत अधिक कठोर उपायों से प्रभावित न हो.