भारत में बजट को लेकर इतनी उत्सुकता और उम्मीदें क्यों होती हैं? सामान्यतया तो दुनिया के अन्य देशों की तरह इसे भी सालाना लेखा कवायद ही होना चाहिए। परंतु भारत में यह अलग इसलिए है कि 1990 के दशक के सुधार के दौरान बजट न केवल व्यापक नीतिगत सुधार की घोषणा का माध्यम बना था बल्कि उसमें ही मध्यम से लंबी अवधि की प्राथमिकताओं का ब्योरा भी दिया गया था।
इस बजट में नीतियों से अधिक कार्यक्रमों पर जोर दिया गया। यह बजट रोजगार को लेकर खासकर युवा बेरोजगारी को लेकर सरकार की चिंताओं को जाहिर करता है। सरकार ने जो प्राथमिकताएं सामने रखी हैं वे कई तरह से इस क्षेत्र की समस्याओं को दूर करना चाहती हैं। संतोषजनक बात यह थी किस सरकार राजकोषीय विवेक को लेकर अपनी प्रतिबद्धता पर टिकी रही और चालू वर्ष में राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के 4.9 फीसदी पर लाने का लक्ष्य तय किया।
अंतरिम बजट में इसके 5.1 फीसदी रहने का अनुमान जताया गया था। यह वादा भी किया गया कि अगले वर्ष इसे 4.5 फीसदी तक लाया जाएगा। कराधान के मोर्चे पर अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष दोनों करों की प्रक्रिया को सहज बनाने तथा योजनाओं और रियायतों की बहुलता को धीरे-धीरे चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने की बात कही गई है। प्राथमिकता वाले अन्य क्षेत्रों में कर विवादों में कमी लाना शामिल है।
इस प्रयास में, अप्रत्यक्ष कर जैसे उत्पाद शुल्क और सेवा करों से संबंधित विरासती कर मामलों में अपील दायर करने की मूल्य सीमा बढ़ा दी गई है। करदाताओं को दी जाने वाली सेवाओं के डिजिटलीकरण को भी प्राथमिकता देने की बात कही गई है ताकि कर भुगतान के अनुभव को कम तनावपूर्ण बनाया जा सके। वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू होने से बजट में इससे संबंधित नीतिगत घोषणाएं नहीं हो पाई हैं, क्योंकि इनका निर्णय केंद्र और राज्यों की संयुक्त जीएसटी परिषद द्वारा किया जाता है।
वित्त मंत्री ने यह अवश्य कहा कि आगे चलकर दरों को युक्तिसंगत बनाया जाएगा और प्रक्रियाओं को सहज बनाया जाएगा ताकि कारोबारी सुगमता में इजाफा किया जा सके। सीमा शुल्क के मोर्चे पर कुछ विशिष्ट प्रस्ताव अवश्य दिए गए जहां सरकार ने एक बार फिर 18 प्रतिशत की औसत सीमा शुल्क दर को कम करके 10 फीसदी से कम करने का अवसर गंवा दिया।
बजट में एक तीन स्तरीय शुल्क ढांचा पेश किया जा सकता था जहां न्यूनतम दर कच्चे माल और घटकों पर होती, उससे कुछ ऊंची दर मध्यवर्ती वस्तुओं पर और सबसे ऊंची दर तैयार वस्तुओं पर लागू होती। यदि ऐसा किया जाता तो इनवर्टेड ड्यूटी ढांचे की दिक्कत भी दूर हो जाती। इसके बजाय सरकार ने क्षेत्रवार रुख अपनाने का तय किया।
उसने ऐसे कई उद्योगों के कच्चे माल और घटकों बुनियादी सीमा शुल्क दर कम कर दी जिन्होंने निर्यात में अच्छा प्रदर्शन किया है। इनमें समुद्री निर्यात, सोने के आभूषण, प्लैटिनम (सोने और प्लैटिनम के आभूषणों पर लगने वाले सीमा शुल्क में उल्लेखनीय कमी की गई है), मोबाइल फोन और चार्जर तथा कुछ इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों में इस्तेमाल होने वाले कलपुर्जे शामिल हैं।
बजट में सोलर सेल और पैनल के निर्माण में काम आने वाले पूंजीगत उपकरणों पर आयात शुल्क में भारी कमी की गई। इसके अलावा अंतरिक्ष और परमाणु ऊर्जा जैसे रणनीतिक रूप से अहम क्षेत्रों में इस्तेमाल होने वाले महत्त्वपूर्ण खनिजों के आयात पर भी शुल्क कम किया गया है। श्रम के गहन इस्तेमाल वाले क्षेत्रों मसलन चमड़ा और वस्त्र आदि में भी चुनिंदा कच्चे माल पर राहत प्रदान की गई है। वस्त्र क्षेत्र में ड्यूटी इनवर्जन (जहां कच्चे माल पर अंतिम उत्पाद से अधिक कर लगता है) की समस्या को हल करने के लिए सरकार ने मेथिलीन डाइफिनाइल डिसोसाइनेट (एमडीआई) जैसे कच्चे माल पर आधारभूत सीमा शुल्क में कमी कर दी है। उसे स्पॉन्डेक्स यार्न (सिंथेटिक लचीला धागा) बनाने में इस्तेमाल किया जाता है।
देश के जलवायु लक्ष्य के अनुरूप ही सरकार ने पीवीसी फ्लेक्स बैनरों जैसे प्लास्टिक पर बुनियादी सीमा शुल्क बढ़ा दिया है। इस प्रकार का प्लास्टिक जैविक रूप से अपघटित नहीं होता है और पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह है। ऐसा इसका आयात कम करने के लिए किया गया है। बहरहाल, इन उद्योगों के लिए और भी काफी कुछ किया जा सकता था ताकि कच्चे माल और घटकों पर व्यापक रियायत के साथ रोजगार के लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में और कदम बढ़ाए जा सकें।
बजट भाषण का एक दिलचस्प पहलू यह था कि सरकार कारक बाजार सुधार के लिए वृहद आर्थिक ढांचा तैयार करेगी। उदाहरण के लिए भूमि बाजार जो कृषि और शहरीकरण पर असर डालता है, स्वास्थ्य और शिक्षा को प्रभावित करने वाला श्रम बाजार और कुल कारक उत्पादकता वृद्धि के लिए जरूरी उद्यमिता को ध्यान में रखकर ढांचा बनाया जाएगा।
यह बात महत्त्वपूर्ण है क्योंकि सन 1990 के दशक के सुधार उत्पाद बाजार पर केंद्रित थे और शुल्क नीति से संबंधित सुधार किए गए थे। नया ढांचा सुधार को लेकर दिलचस्प विचार पेश कर सकता है, खासकर नियामकीय ढांचे को ध्यान में रखते हुए। बहरहाल, इसके लिए केंद्र, राज्यों और स्थानीय सरकारों के बीच साझेदारी की आवश्यकता होगी। केंद्र सरकार अपने दम पर जिन सुधार को लागू कर सकती थी वे पूरे हो चुके हैं और कारक बाजार सुधार के लिए राज्यों और स्थानीय सरकारों के साथ सक्रिय सहयोग और मशविरे की आवश्यकता होगी। शायद यह अवसर है कि जीएसटी परिषद जैसा ढांचा बनाया जाए जो भूमि और श्रम बाजार सुधार को अंजाम दे सके। ऐसा संस्थान इन सुधार को लेकर सहमति तैयार कर सकता है।
सरकार वैट सुधार को लागू करने वाली पहले बनी मुख्यमंत्रियों की अधिकार प्राप्त समिति से भी विचार ग्रहण कर सकती है और इन संस्थानों का नेतृत्व विपक्ष शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों या वित्त मंत्रियों को सौंप सकती है। ऐसा करने से सुधार के लिए बेहतर माहौल बन सकता है। यह बात प्रधानमंत्री के उस हालिया पर्यवेक्षण के अनुरूप है जिसमें उन्होंने कहा था कि देश दल से अधिक महत्त्वपूर्ण है। ऐसे में विकसित भारत की ओर बढ़ने का आह्वान सहकारी संघवाद के प्रति जयघोष के साथ होना चाहिए।