क्या आपके बच्चे का भी पढ़ने में मन नहीं लगता; ना ही वो बाहर खेलने जाता है? बस मोबाइल देखने में उसका मन लगता है। ये गंभीर समस्या हो सकती है, गाँव कनेक्शन की ग्राउंड रिपोर्ट में पढ़िए कैसे ग्रामीण भारत में बढ़ते मोबाइल के इस्तेमाल से बच्चों के अभिभावक परेशान हैं वही दूसरी तरफ़ शिक्षकों का कहना हैं मोबाइल फ़ोन बच्चों को मानसिक और शारीरिक तौर पर कमजोर कर रहा हैं ।
41 वर्षीय अब्दुल हकीम आगे कहते हैं, “पहले वाला जो बचपना था बच्चों का, वो मोबाइल ने ख़त्म कर दिया है; पहले हम जब खेलने जाते थे, तो घर वाले बुलाते थे, लेकिन आज का बच्चा ऐसा हो गया है कि मोबाइल की वजह से घर से बाहर ही नहीं निकलता; मोबाइल की वजह से बच्चों का ध्यान न तो काम में रहता है न ही पढ़ाई में, वे जल्दी भूल रहे हैं और अकेले रहना पसंद करते हैं।” लखनऊ के मॉल ब्लॉक के ऊँचा खेड़ा गाँव के नीरज लता कहती हैं , “गलती हमारी है, हमने बच्चों को बचपन से बात -बात पर फोन देखने की लत डाल दी है,मेरे 5 साल के बेटे को बिना मोबाइल के नींद नहीं आती है।” कोरोना काल में शिक्षा का हथियार बना मोबाइल फोन कोरोना काल के दौरान मोबाइल फ़ोन बच्चों की पढ़ाई के लिए बेहद ज़रूरी हो गया था और मोबाइल ही एक ज़रिया था, जिसकी मदद से बच्चों को घर पर ही शिक्षा दी जा रही थी। कई अभिभावकों ने क़र्ज़ पर स्मार्टफोन लेकर अपने बच्चों को दिया। इसका असर ये हुआ स्मार्टफोन लगभग हर घर का हिस्सा बन गया और खासकर छोटे बच्चों को अपना खुद का निजी स्मार्टफोन मिल गया। ‘प्रथम’ की असर 2020 की रिपोर्ट के मुताबिक जहाँ पहले गाँवों में 36.5 प्रतिशत घरों में स्मार्टफोन था; वहीं दो सालों के अंदर-अंदर 61.8 प्रतिशत घरों में स्मार्टफोन पहुँच चुका है। राजगढ़ के शासकीय उत्कृष्ट उच्य माध्यमिक विद्यालय की विज्ञान की शिक्षिका पायल सोनी जो पिछले सात सालों से टीचिंग कर रही हैं; उन्होंने गाँव कनेक्शन से बताया, “कोरोना काल में मैंने बच्चों को गाँव जाकर भी पढ़ाया था, वहाँ भी मैंने देखा की बच्चे अपने पेरेंट्स पर मोबाइल दिलाने का दबाव डाल रहे थे; माता पिता ने भी बच्चों को दस हज़ार-पंद्रह हज़ार के मोबाइल दिला रखे है, जिसके लिए उन्होंने कर्ज़ा लिया हैं।”
“बच्चों ने ऐसा माहौल बनाया है जैसे मोबाइल के बिना वो पढ़ ही नहीं सकते और मोबाइल से बच्चे न के बराबर ही पढ़ते हैं; जबकि सरकार ने बच्चों को किताबे दे दी थीं; चाहते तो वो हर सवाल का जवाब किताब से पढ़कर भी पता कर सकते थे, लेकिन बच्चों ने मोबाइल को चुना; क्योंकि उस बहाने उनके पास मोबाइल भी आ गया जिसका प्रयोग उन्होंने पढ़ने में कम और दूसरे कामों में ज़्यादा करते हैं। ” शिक्षिका ने आगे कहा। इस बात से नकारा नहीं जा सकता की मोबाइल का सही तरह से प्रयोग किया जाए तो ये बच्चों की पढ़ाई के लिए वरदान साबित हो सकता है; लेकिन मोबाइल पर आने वाले तमाम सोशल मीडिया एप्लीकेशन और गेम्स इस तरह तैयार किए जाते हैं कि लोग उनमे अपना ज़्यादा से ज़्यादा समय दें और इसी आधार पर अटेंशन इकोनॉमी चलती हैं। इसी पर सामाजिक अध्येयता विभांशु कल्ला का कहते हैं, “स्क्रीन टाइम, अटेंशन इकोनॉमी का हिस्सा है, पूरे विश्व में स्क्रीन पर रुकने का समय बड़ी टेक कंपनियों के मुनाफे का आधार बन चुका है; ये आज के पूँजीवाद का नया स्वरूप है, जिसमें उपभोक्ताओं को किसी सुविधा के लिए एडिक्ट बनाया जाता है, धीरे- धीरे लोग अपनी मानसिक संतुष्टि के लिए इन सुविधाओं पर निर्भर हो जाते हैं, इसे लिम्बिक कैपिटलिज्म (Limbic Capitalism)कहते हैं। “टीनएजर्स लिम्बिक कैपिटलिज्म के सबसे आसान शिकार हैं , इस आयु वर्ग के किशोर इन्टरनेट पर नए-नए आते हैं, इन पर भौतिक दुनिया में परिजनों और शिक्षकों की ढ़ेर सारी पाबंदियाँ होती हैं, जबकि इंटरनेट पर खुद को को आज़ाद पाते हैं, लेकिन जल्द ही ये स्वच्छंदता एडिक्शन में तब्दील हो जाती है। ” विभांशु ने आगे समझाते हुए कहा। नेल्सन 2022 की रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण भारत 352 मिलियन उपयोगकर्ताओं के साथ इंटरनेट इस्तेमाल करने के मामले में शहरों से 20% आगे है। वही इस रिपोर्ट के अनुसार इंटरनेट को इस्तेमाल करने के लिए मुख्यत: स्मार्टफोन का प्रयोग किया जाता है। मोबाइल से पढ़ाई के नुकसान मोबाइल से पढ़ाई के कई नुकसान हैं, जिसमें ध्यान का भटकना भी शामिल है। इसी बात की पुष्टि करते हुए पोखरण के एक निजी स्कूल के 17 वर्षीय छात्र हिमांशु व्यास जो 12वीं कक्षा में पढ़ते हैं; कहते हैं, “मोबाइल या लैपटॉप की बजाए किताबों से पढ़ना पढ़ना अच्छा लगता है; लेकिन पढ़ाई के दौरान सोशल मीडिया की नोटिफिकेशन उसके पढ़ाई से ध्यान को भ्रमित करते हैं, एक किसी ऐप पर जाने पर शॉर्ट वीडियो, रील्स और स्टेटस में कब घंटों बीत जाते हैं पता ही नहीं चलता।
आस पड़ोस के दोस्तों से मिलने और उनके साथ खेलने के सवाल पर वो कहते हैं, “दोस्तों से मिलना तो होता ही है; लेकिन अब साथ खेलना नहीं होता ,जब दोस्तों के साथ नहीं होता तो सोशल मीडिया से उनसे जुड़ा हुआ रहता हूँ।” एक समय था जब बोर्ड परीक्षा के महीनों पहले से बच्चों के बाहर जाने पर पाबंदी लग जाती थी, लेकिन हिमांशु का सबसे ज़्यादा समय इंस्टाग्राम और स्नैपचैट जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जाता है। वो अपना मोबाइल दिखाते हुए कहते हैं कि उनका पिछले सप्ताह का औसत स्क्रीन टाइम 6 घंटा 18 मिनट रहा है; वो भी तब, जब कुछ दिनों के भीतर उनकी बोर्ड परीक्षा है। मोबाइल और बीमारियाँ ज़्यादा फ़ोन चलाने से कई मानसिक और शारीरिक बीमारियाँ हाल के दिनों में सामने आ रही हैं; जिसमे से एक हैं गेमिंग डिसऑर्डर है। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन ने ऑनलाइन गेमिंग को गेमिंग डिसऑर्डर का नाम दिया है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार, ‘गेमिंग डिसऑर्डर’ गेमिंग को लेकर बिगड़ा नियंत्रण है, जिसका दूसरी दैनिक गतिविधियों पर भी असर पड़ता है। डब्ल्यूएचओ ने इंटरनेशनल क्लासिफिकेशन ऑफ डिजीज गेमिंग डिसऑर्डर को इंटरनेशनल क्लासिफिकेशन ऑफ डिजीज (ICD-11) के 11 वें संशोधन में गेमिंग व्यवहार (“डिजिटल-गेमिंग” या “वीडियो-गेमिंग”) के एक पैटर्न के रूप में परिभाषित किया गया है। 17 साल के शशांक सिंह को भी मोबाइल गेम की लत लग गई है। शशांक कहते हैं, “मेरी भी गेम खेलने की आदत है तो जब भी फ्री होता हूँ बस गेम ही खेलता हूँ; इसकी वजह से मेरे पास फ्री टाइम ही नहीं बचता और गेम खेलने के दौरान मुझे कोई बोलता है तो भी और कुछ करने की इच्छा ही नहीं होती।”
वो आगे कहते हैं, “अभी कुछ हफ़्ते पहले की ही बात है मेरी माँ मुझे टोका करती थी, मतलब एक होता है की गेम खेलते रहो तो लेवल्स आते हैं; हम लेवल्स क्रॉस करते रहते है तो बार-बार उसको और खेलने का मन करता है, जिस समय में गेम खेल रहा होता हूँ उस समय मुझे कोई बुलाये या टोके तो मुझे इरिटेशन होती है।” उत्तर प्रदेश जुवेनाइल जस्टिस के असेसमेंट पैनल की सदस्य और मनोवैज्ञानिक डॉ नेहा आनंद गाँव कनेक्शन से बताती हैं, “मोबाइल एडिक्शन की तीन स्टेज होती हैं, पहली स्टेज होती है जहाँ हमें सिर्फ मोबाइल का अट्रैक्शन होता है, धीरे-धीरे हम मोबाइल इस्तेमाल करना शुरू करते हैं उसके फीचर जानना शुरू करते हैं, इसके बाद और आगे बढ़ते जाते हैं।” परिवार जहाँ माता पिता और उनके बच्चे एक साथ रहते हैं ऐसे में अगर माता पिता दोनों काम पर जाते है और बच्चे अकेले घर पर रहते है ऐसे परिवार के बच्चों में मोबाइल का आदी बन जाने की संभावना ज़्यादा बढ़ जाती है, बजाए उन बच्चों के जो संयुक्त परिवार में रहते है जहाँ माता पिता के साथ-साथ दादा- दादी, चाचा-चाची, जैसे परिवार के अन्य लोग भी एक साथ रहते हैं। नोमोफोबिआ भी ऐसी ही मानसिक बीमारी हैं जहाँ जब कोई व्यक्ति इस बीमारी से पीड़ित होता है; तो उसके फ़ोन से दूर जाने के बाद उसे पैनिक और घबराहट होने लगती है और व्यक्ति परेशान होने लगता है। इसी विषय पर मनोविज्ञानिक नेहा आनंद गाँव कनेक्शन से कहती हैं, “नोमोफोबिया एक नया मेन्टल डिसऑर्डर आया है, नोमोफोबिया इस स्टेज तक आ जाता है, अब ये फोबिया क्या है? नोमोफोबिया एक ऐसा डर है जो मोबाइल न होने के कारण होता है यानी मोबाइल से हम दूर हो गए तो क्या होगा? या मोबाइल न मिलने पर व्यवहार में बदलाव आना चिड़चिड़ापन होना, टेम्पर खो देना इस हद तक गुस्सा आना की चीज़े तोड़ फोड़ देना, मार पीट कर लेना, ये सब एडिक्शन के लक्षण हो जाते हैं, जिसके बाद हमारा खान पान, हमारे दोस्त, हमारी नींद सब कुछ पीछे रह जाता है।” बच्चों में मोबाइल एडिक्शन के संकेत लखनऊ के मानसिक रोग चिकित्सक डॉ देवाशीष शुक्ला मोबाइल एडिक्शन के बारे में बताते हैं , “मोबाइल एडिक्शन के संकेत बड़े कॉमन हैं जैसे बच्चे की याददाश्त में कमी होने लगती है, बच्चे के व्यवहार में चिड़चिड़ापन आने लगता है, उलझन, घबराहट बढ़ने लगती है, लोगों से बच्चे बातचीत कम करने लगते हैं , बच्चा अकेले रहने की कोशिश करने लगता है, सब घुमा फिरा के एंजायटी, डिप्रेशन के जो लक्षण होते हैं सब होना शुरू हो जाते हैं।” डॉ देवाशीष अभिभावकों को सलाह देते हुए कहते हैं, “सबसे पहला काम है बच्चों पर नज़र रखें, बच्चा किस गेम में इंट्रेस्ट ले रहा है उसके बारे में पता करें और बच्चे का टाइम निश्चित कर दें कि बच्चा गेमिंग या अन्य मोबाइल संबंधित चीज़ो पर इन्वॉल्व नहीं होगा।” “दूसरा अगर गेम खेलने से बच्चे के व्यवहार में कोई बदलाव आ रहा तो बहुत सक्रिय होने की ज़रुरत है, परिवार और घर के लोग बता ही देंगे की इसका व्यवहार बदल रहा है। ” डॉ शुक्ला ने आगे कहा। बच्चों को मोबाइल से ऐसे रखें दूर मध्य प्रदेश के साइबर एक्सपर्ट शकील अंजुम गाँव कनेक्शन से बताते हैं, “मोबाइल चलाते चलाते बच्चे गेम खेलने लगते हैं और कितने ही मामलों में देखा गया है कि गेम की लत उन्हें लग जाती है फिर वो माँ बाप के बैंक अकाउंट से उन गेम्स पर खर्च भी कर देते हैं, जो भी वेबसाइट जिसकी शुरुआत https से हो और पढ़ाई की वेबसाइट हो वही बच्चों को खोल कर दें और मोबाइल दिलाने से अच्छा उनको ऐसा टैबलेट दिला दें जिसमें सिर्फ पढ़ाई के ही एप्लीकेशन हो।” “आज कल यूट्यूब पर भी किड्स वाला ऑप्शन आता हैं, जोकि सिर्फ बच्चों के लिए ही होता हैं; पेरेंट्स को मैं यही सलाह दूँगा वो बच्चों की ब्राउज़िंग हिस्ट्री समय समय पर चेक करते रहें और वो इंटरनेट पर क्या कर रहा इस पर अपनी नज़र बनाये रखें। ” शकील अंजुम ने आगे कहा।