संवेदनशील मसलों पर बुनियादी बातों का रहे ध्यान

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रामस्वरूप मंत्री

अठारहवीं लोक सभा का पहला सत्र आज शुरू हो रहा है और यह इस बात के लिए सटीक अवसर है कि भारतीय संसद के संचालन की कमियों को दूर किया जाए। नई लोक सभा को पिछली दो लोक सभाओं से अलग माना जा रहा है क्योंकि उन अवसरों पर भारतीय जनता पार्टी (BJP) के पास पूर्ण बहुमत था।

हालांकि इस बार भी भाजपानीत केंद्र सरकार को बहुमत हासिल है लेकिन उसे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सहयोगी दलों का समर्थन लेना पड़ा है। विधायी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए भी उसे उनकी मदद की आवश्यकता होगी।

इसके अलावा विपक्ष के पास भी इस बार अच्छी खासी सीटें हैं। अगर विपक्ष चुनाव पूर्व हुए गठबंधन को बरकरार रखने में कामयाब रहता है तो वह सरकारी नीतियों को लेकर महत्त्वपूर्ण सवाल खड़े करने की स्थिति में होगा। जाहिर है यह संसदीय लोकतंत्र के लिए बेहतर होगा। 10 वर्ष बाद सदन में विपक्ष का औपचारिक नेता भी मौजूद होगा।

अनुमानों को रेखांकित करने के लिए यह उपयोगी होगा कि हम इस बात पर नजर डालें कि हाल के वर्षों में संसद का कामकाज किस प्रकार चला है। पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च द्वारा जुटाए गए आंकड़ों के मुताबिक 17वीं लोक सभा ने अपने निर्धारित समय में से 88 फीसदी काम किया।

बहरहाल, सदन की बैठकों के औसत वार्षिक दिवसों की संख्या में अहम कमी आई। लोक सभा की औसतन हर वर्ष 55 दिन कार्यवाही चली जबकि 16वीं लोकसभा में यह औसत 66 दिन था। तुलनात्मक रूप से देखें तो पहली लोक सभा में यह अवधि 135 दिन की थी। हालांकि महामारी ने इन सालाना औसत दिनों की तादाद कम की है लेकिन 15 सत्रों में से 11 को जल्दी समाप्त करना पड़ा। कार्य दिवसों की इस कमी ने सदन के कामकाज पर गहरा असर डाला।

करीब 35 फीसदी विधेयक एक घंटे से भी कम अवधि में पारित कर दिए गए। ध्यान देने वाली बात है कि 17वीं लोक सभा के दौरान दोनों सदनों के सदस्यों को निलंबित करने की 206 घटनाएं घटीं। 2023 के शीतकालीन सत्र में 146 सदस्यों को कदाचरण के कारण निलंबित किया गया।

हालिया प्रदर्शन को देखते हुए यह उम्मीद करना उचित ही है कि 18वीं लोक सभा में मौजूदा रुझान बदलेगा। सदन के सुचारु संचालन की जिम्मेदारी जहां सत्ताधारी पक्ष की है, वहीं विपक्ष से भी उम्मीद की जाती है कि वह सकारात्मक भूमिका निभाएगा। कुल मिलाकर देखा जाए तो सत्ताधारी पक्ष को भी कम से कम दो मोर्चों पर सुधार करने की आवश्यकता है।

पहला लोक सभा या दोनों सदनों में एक वर्ष के कार्य दिवसों की संख्या बढ़ानी होगी। इससे सदस्यों को प्रासंगिक मसले उठाने का अवसर मिलेगा और सरकार का ध्यान आकृष्ट किया जा सकेगा।दूसरा, विधेयकों को बिना समुचित चर्चा के पारित नहीं किया जाना चाहिए। संसदीय व्यवस्था में सरकार हमेशा बहुमत रखती है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं होना चाहिए कि विधेयक बिना चर्चा के पारित हो जाएं। सरकार को विपक्ष को यह अवसर देना ही चाहिए कि वह हर मुद्दे पर अपनी राय रखे।

इसके अलावा 17वीं लोक सभा में 20 फीसदी से भी कम विधेयकों को समितियों के पास भेजा गया जबकि 15वीं लोक सभा में 71 फीसदी विधेयक समितियों को सौंपे गए थे। संसदीय समितियां विधेयकों के आकलन की सटीक व्यवस्था हैं जो सभी संबद्ध पक्षों के बीच के मतभेद समाप्त करने का काम करती हैं। यह व्यवस्था अधिक प्रभावी ढंग से इस्तेमाल की जानी चाहिए। इससे सरकार को व्यापक चर्चा का अवसर मिलेगा।

खासतौर पर संवेदनशील मसलों पर। चर्चा और सहमति बनाना किसी विचार की राजनीतिक स्वीकार्यता के लिए आवश्यक है। ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि नए लोक सभा अध्यक्ष, सरकार और विपक्ष मिलकर सदन में व्यवधान और स्थगन को कम करने का प्रयास करेंगे।