भारत में बढ़ी कटहल की लोकप्रियता, जानें खेती की पूरी विधी

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 कटहल (आर्टोकार्पस हेटरोफिलस) एक उष्णकटिबंधीय फल है, जो भारतीय उपमहाद्वीप का मूल निवासी है. यह एक पेड़ पर उगने वाला सबसे बड़ा फल है, इसका एक विशिष्ट स्वाद और बनावट है. भारत में कटहल की खेती का एक लंबा इतिहास रहा है और देश के कई राज्यों में इसे व्यापक रूप से उगाया जाता है. हमारे देश में इस समय लगभग 11 प्रतिशत जनसंख्या डायबिटीज एवं लगभग 15 प्रतिशत जनसंख्या प्री डायबिटीज से त्रस्त है. कटहल के अंदर डायबिटीज रोग को प्रबंधित करने की क्षमता होती है. बात दें, काफी तेजी से कटहल से बने प्रोडक्ट्स का उपयोग डायबिटीज प्रबंधन में किया जा रहा है. ऐसे में आगामी वर्षों में कटहल की मांग कई गुणा बढ़ने वाली है. इसलिए किसानों को इस मानसून में कटहल की फसल जरूर लगानी चाहिए.

जलवायु और मिट्टी

कटहल उष्णकटिबंधीय जलवायु में 25-35°C (77-95°F) की तापमान सीमा के साथ पनपता है. इसके लिए प्रति वर्ष 1500 से 2500 मिमी की अच्छी तरह से वितरित वर्षा की आवश्यकता होती है. इसे तटीय क्षेत्रों, मैदानों और पहाड़ी क्षेत्रों सहित विविध कृषि-जलवायु क्षेत्रों में उगाया जा सकता है. कटहल के पेड़ों को अच्छी जल निकासी वाली अच्छी कार्बनिक सामग्री के साथ मिट्टी की आवश्यकता होती है. वे तटस्थ मिट्टी (पीएच 6.0-7.5) के लिए थोड़ा अम्लीय पसंद करते हैं.

प्रमुख कटहल उत्पादक राज्य

भारत में केरल कटहल का सबसे बड़ा उत्पादक है, इसके बाद कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश,बिहार और पश्चिम बंगाल आता हैं. इन राज्यों में अनुकूल जलवायु परिस्थितियां और कटहल की खेती के लिए उपयुक्त भूमि है. इसका रोपण आमतौर पर मानसून के मौसम की शुरुआत में किया जाता है. कटहल के पेड़ों को नियमित रूप से पानी देने की आवश्यकता होती है, खासकर शुष्क अवधि के दौरान. किसानों को इसकी खेती से अच्छी वृद्धि और विकास के लिए पेड़ों के बीच उचित दूरी रखनी चाहिए. कटहल के वृक्ष की छाया में जिमीकंद हल्दी, अदरक इत्यादि की खेती भी सफलता के साथ की जा सकती है.

कटहल की उन्नत किस्में

कटहल एक परपरागित फल वृक्ष होने तथा प्रमुखत: बीज द्वारा प्रसारित होने के कारण इसमें प्रचुर जैव विविधता है. अभी तक कटहल की कोई मानक प्रजाति का विकास नहीं हुआ था परन्तु फलन एवं गुणवत्ता का आधार पर विभिन्न शोध केन्द्रों द्वारा कटहल की कुछ उन्नतशील चयनित प्रजातियां इस प्रकार हैं – खजवा, स्वर्ण मनोहर, स्वर्ण पूर्ति (सब्जी के लिए),एन.जे.-1, एन.जे.-2, एन.जे.-15, एन.जे.-3 और मत्तमवक्का.

कटहल की कुछ प्रमुख प्रजातियों का विस्तृत विवरण निम्नवत है:-

खजवा – इस किस्म के फल जल्दी पक जाते हैं, ताजे पके फलों के लिए एक उपयुक्त किस्म है.

स्वर्ण मनोहर – छोटे आकार के पेड़ में बड़े-बड़े एवं अधिक संख्या में फल देने वाली यह एक उम्दा किस्म हैं. इसके लगभग 15 वर्ष के पेड़ की ऊंचाई 5.5 मीटर, तने की मोटाई 86 सें.मी., क्षत्रक  फैलाव 25.4 वर्ग मी. तथा पेड़ का आयतन 71.2 घन मी. होता है. मध्यम घने क्षत्रक वाले इस किस्म में फरवरी के प्रथम सप्ताह में फल लग जाते हैं जिनको छोटी अवस्था में बेचकर अच्छी आमदनी प्राप्त की जा सकती है. फल लगने के 20 से 25 दिन बाद इसके एक पेड़ से 45 से 50 कि.ग्रा. फल सब्जी के लिए प्राप्त किया जा सकता है. इस किस्म के पूर्ण रूप से विकसित फल की लम्बाई 45.2 सें.मी., परिधि 70 से.मी. तथा वजन 10-25 कि.ग्रा. होता है. इसके कोये (फलैक्स) का आकार बड़ा (6.0 x 3.9 सें.मी.), संख्या अधिक (250-350 कोये/फल) तथा मिठास ज्यादा (20 डि. ब्रिक्स) होता है. यह किस्म छोटानागपुर एवं संथाल परगना तथा आस-पास के क्षेत्र के लिए अधिक उपयुक्त पाई गई है. इसकी प्रति वृक्ष औसत उपज 300-550 कि.ग्रा. (पकने के बाद) है.

स्वर्ण पूर्ति – यह सब्जी के लिए एक उपयुक्त किस्म है. इसका फल छोटा (3-4 कि.ग्रा.), रंग गहरा हरा, रेशा कम, बीज छोटा एवं पतले आवरण वाला तथा बीच का भाग मुलायम होता है. इस किस्म के फल देर से पकने के कारण लंबे समय तक सब्जी के रूप में उपयोग किये जा सकते हैं. इसके वृक्ष छोटे तथा मध्यम फैलावदार होते हैं, जिसमें 70 से 90 फल प्रति वर्ष लगते हैं. फलों का आकार गोल एवं कोये की मात्रा अधिक होती है.

पौधा प्रसारण

कटहल मुख्य रूप से बीच द्वारा प्रसारित किया जाता है एक समान पेड़ तैयार करने के लिए वानस्पतिक विधि द्वारा पौधा तैयार करना चाहिए. वानस्पतिक विधि में कलिकायन तथा ग्रैफ्टिंग अधिक सफल पायी गयी है. इस विधि से पौध तैयार करने के लिए मूल वृंत की आवश्यकता होती है जिसके लिए कटहल के बीज या पौधों का प्रयोग किया जाता है. मूल वृंत को तैयार करने के लिए ताजे पके कटहल से बीज निकाल कर 400 गेज की 25x 12x 12 सें.मी. आकार वाली काली पॉलीथीन को थैलियों में बुआई करना चाहिए. थैलियों को बालू, चिकनी मिट्टी या बागीचे की मिट्टी और गोबर की सड़ी खाद को बराबर मात्रा में मिलाकर बुवाई से पहले ही भर देना चाहिए. चूँकि कटहल का बीज जल्दी ही सूख जाता है अत: उसे फल से निकालने के तुरन्त बाद थैलियों में 4-5 सें.मी. गहराई पर बुआई कर देना चाहिए. उचित देख-रेख करने से मूलवृंत लगभग 8-10 माह में बंडिंग/ग्रैफ्टिंग योग्य तैयार हो जाते है.

कटहल के पौधे को पैच बडिंग या क्लेफ्ट ग्राफ्टिंग विधि द्वारा तैयार किया जा सकता है. पैच बडिंग के लिए मातृ वृक्ष से सांकुर डाली काटकर ले आते हैं जिससे 2-3 सें.मी. लम्बी कली निकाल कर मूलवृंत पर उचित ऊँचाई पर उसी आकार की छाल हटाकर बडिंग कर देते हैं. बडिंग के बाद कली को सफेद पालीथीन की पट्टी (100 गेज) से अच्छी तरह बांध देते हैं तथा मूलवृंत का ऊपरी भाग काट देते हैं. ग्रैफ्टिंग विधि से पौधा तैयार करने के लिए मातृ वृक्ष पर ही सांकुर डाली की पत्तियों को लगभग एक सप्ताह पहले पर्णवृंत छोड़कर काट देते हैं. जब पत्ती का पर्णवृंत गिरने लगे तब सांकुर डाली को काटकर ले आते हैं. मूलवृंत को उचित ऊंचाई पर काट देते हैं और उसके बीचो-बीच 3-4 सें.मी. लम्बा चीरा लगा देते हैं. सांकुर डाली के निचले भाग को दोनों तरफ से 3-4 सें.मी. लगा कलम बनाते हैं जिसे मूलवृंत के चीरे में घुसाकर 100 गेज मोटाई की सफेद पालीथीन की पट्टी से बांध देते है. छोटानागपुर क्षेत्र में बडिंग के लिए फरवरी-मार्च तथा ग्राफ्टिंग के लिए अक्टूबर-नवंबर का महीना उचित पाया गया है.

पौधा रोपण

कटहल का पौधा आकार में बड़ा तथा अधिक फैलावदार होता है अत: इसे 10x 10 मी. की दूरी पर लगाया जाता है. पौध रोपण के लिए समुचित रेखांकन के बाद निर्धारित स्थान पर मई-जून के महीने में 1x 1x 1 मीटर आकार के गड्ढे तैयार किये जाते हैं. गड्ढा तैयार करते समय ऊपर की आधी मिट्टी एक तरफ तथा आधी मिट्टी दूसरी तरफ रख देते हैं. इन गड्ढों को 15 दिन खुला रखने के बाद ऊपरी मिट्टी दूसरी तरफ रख देते हैं. इन गड्ढों को 15 दिन खुला रखने के बाद ऊपरी मिट्टी में 20-30 कि.ग्रा. गोबर की सड़ी हुई खाद, 1-2 कि.ग्रा. करंज की खली तथा 100 ग्रा.एन.पी. के मिश्रण अच्छी तरह मिलाकर भर देना चाहिए. जब गड्ढे की मिट्टी अच्छी तरह दब जाये तब उसके बीचो-बीच में पौधे के पिण्डी के आकार का गड्ढा बनाकर पौधा लगा दें. पौधा लगाने के बाद चारों तरफ से अच्छी तरह दबा दें और उसेक चारों तरफ थाला बनाकर पानी दें. यदि वर्षा न हो रही हो तो पौधों को हर तीसरे दिन एक बाल्टी (15 लीटर) पानी देने से पौध स्थापना अच्छी होती है.

देखरेख

पौधा लगाने के बाद से एक वर्ष तक पौधों की अच्छी देख-रेख करनी चाहिए. पौधों के थालों में समय-समय पर खरपतवार निकाल कर निराई-गुड़ाई करते रहना चाहिए. पौधों को जुलाई-अगस्त में खाद एवं उर्वरक तथा आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना चाहिए. इसके नए पौधों में 3 वर्ष तक उचित ढांचा देने के लिए काट-छांट करना चाहिए ढांचा देते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि तने पर 1.5-2.0 मी. ऊंचाई तक किसी भी शाखा को नहीं निकलने दें. उसके ऊपर 3-4 अच्छी शाखाओं को चारों तरफ बढ़ाने देना चाहिए जो पौधों का मुख्य ढांचा बनाती हैं. कटहल के पौधों के मुख्य तनों एवं शाखाओं से निकलने वाले उसी वर्ष के कल्लों पर फल लगता है. अत: इसके पौधों में किसी विशेष काट-छांट की आवश्यकता नहीं होती है. फल तोड़ाई के बाद फल से जुड़े पुष्पवृंत टहनी को काट दें जिससे अगले वर्ष अच्छी फलत हो सके.

कीट और रोग प्रबंधन

भारत में कटहल के पेड़ों को प्रभावित करने वाले आम कीटों में फल मक्खियाँ, एफिड्स और मीलीबग शामिल हैं. नियमित निरीक्षण और उपयुक्त कीटनाशक का प्रयोग इन कीटों को नियंत्रित करने में मदद कर सकता है. कटहल झुलसा, पत्ती धब्बा और तना सड़न जैसे रोग भी पेड़ों को प्रभावित कर सकते हैं. उचित स्वच्छता और रोग प्रतिरोधी किस्मों के उपयोग सहित अच्छी बाग प्रबंधन इन समस्याओं को रोकने और प्रबंधित करने में मदद कर सकती हैं.

कटहल के पेड़ आमतौर पर रोपण के 3-4 साल के भीतर फल देना शुरू कर देते हैं. प्रति पेड़ औसत उपज विभिन्न कारकों जैसे किस्म, पेड़ की उम्र और प्रबंधन प्रथाओं के आधार पर भिन्न हो सकती है. एक परिपक्व कटहल का पेड़ प्रति वर्ष 50-250 फल पैदा कर सकता है, प्रत्येक फल का वजन 5 से 30 किलोग्राम या इससे भी अधिक होता है.

उपयोग

कटहल एक बहुमुखी फल है जिसके कई उपयोग हैं. पके फल को ताजा खाया जा सकता है या विभिन्न पाक तैयारियों में इस्तेमाल किया जा सकता है, जैसे डेसर्ट, करी और जैम. कच्चे या हरे कटहल का उपयोग अक्सर स्वादिष्ट व्यंजनों में सब्जी के रूप में किया जाता है और इसकी बनावट के कारण यह मांस के विकल्प के रूप में लोकप्रियता प्राप्त कर रहा है. कटहल के बीज भी खाने योग्य होते हैं और इन्हें भूना या उबाला जा सकता है.

भारत में कटहल की खेती कई किसानों के लिए आजीविका के अवसर प्रदान करती है और देश की कृषि विविधता में योगदान करती है. फल का पोषण मूल्य और बहुमुखी प्रतिभा इसे घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दोनों बाजारों में बढ़ती मांग के साथ एक मूल्यवान फसल बनाती है.