सवा करोड़ हेक्टेयर भूमि बंजर हो जाती है हर वर्ष

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— डॉ. विवेक एस. अग्रवाल

यह तथ्य सभी के लिए चिंता की बात है कि पूरे विश्व में बंजर भूमि का निरंतर विस्तार हो रहा है। पारिस्थितिकी को पुनस्र्थापित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र के प्रयासों के बावजूद यह सिलसिला रुकता हुआ प्रतीत नहीं होता है। इसके कई दुष्परिणाम सामने आए हैं। तथ्य यह है कि हर वर्ष लगभग दो करोड़ टन खाद्यान्न पैदा करने वाली सवा करोड़ हेक्टेयर भूमि बंजर हो जाती है जो सीधे-सीधे समूचे विश्व में खाद्य एवं जल की कमी का कारण बन जाती है। साथ ही हर वर्ष लगभग साढ़े पांच करोड़ लोग सूखे की चपेट में होते हैं जिससे समस्त प्राणी और वानस्पतिकी प्रभावित हो जाती है।

हालात गंभीर हैं और लगातार बदतर होते जा रहे हंै। यदि यही क्रम चलता रहा तो अगले पच्चीस वर्षों में पारिस्थितिकीजन्य कारणों से दस ट्रिलियन अमरीकी डॉलर के बराबर वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद की हानि हो जाएगी। धरती को मां का स्वरूप मान कर उसकी पूजा करने वाले भारत में भी इसकी रक्षा करने की बजाय इसका निरंतर दोहन किया जा रहा है। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से उर्वरा भूमि बंजर होती जा रही है।

परिणामस्वरूप जीवन के लिए आवश्यक वानस्पतिकी का भी क्षरण हो रहा है। पर्यावरण के नाम पर मात्र वृक्षारोपण कर इतिश्री कर दी जाती है, जबकि समस्या अत्यंत विकट है और यह एक मात्र समाधान नहीं है। इसी कारण इस वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस ५ जून के आयोजनों का ध्येय भूमि पुनस्र्थापना, बढ़ते रेगिस्तान को रोकना तथा सूखे की परिस्थितियों पर विवेक सम्मत दृष्टिकोण अपनाना रखा गया है। इस बार ध्येय के केंद्र में धरती को बचाए रखने के लिए वर्तमान पीढ़ी को जनरेशन रेस्टोरेशन यानी पुनस्र्थापना की पीढ़ी के रूप में कार्य करने का आह्वान किया गया है।

विश्व की 40 प्रतिशत यानी करीब 320 करोड़ आबादी जो मूलत: गांवों में रहने वाले किसान या आर्थिक रूप से वंचित हैं, भूमि के निम्नीकरण या बंजर होने से प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित होते हैं। प्रभाव तो संपूर्ण मानवता, जीवों एवं जैव पारिस्थितिकी पर होता है लेकिन बंजर होती भूमि के कारण खाद्यान्न की कमी, फसलों का खराब होना, बढ़ती महंगाई और बदले वातावरण के कारण उत्सर्जित कार्बन के कारण वंचित वर्ग भीषण रूप से प्रभावित हो जाता है।

एक अनुमान के अनुसार भूमि के स्वरूप में निम्नता आने के कारण खाद्यान्न उत्पादन में हर वर्ष लगभग 12 प्रतिशत की कमी होगी और वर्ष 2040 तक महंगाई 30 प्रतिशत से भी अधिक तक बढ़ जाएगी। साथ ही वर्ष 2030 तक वातावरण की विभीषिका के मद्देनजर करीब साढ़े तेरह करोड़ लोगों के विस्थापित होने का अनुमान भी है। इस नई श्रेणी को पर्यावरण की दृष्टि से जुड़े विस्थापनों की नई श्रेणी में रखा जाएगा। संभवतया इनमें युवा पीढ़ी की संख्या बहुतायत में होगी जो संसाधनों एवं अवसरों के अभाव में विस्थापन के लिए विवश होंगे। विस्थापन से जुड़ी अनेकानेक समस्याओं के मध्य स्वास्थ्य, खाद्य, जल और स्वच्छ वातावरण भी अपने आप में चुनौती बन कर खड़े होंगे। इससे सामाजिक, आर्थिक एवं पर्यावरण असंतुलन का एक नया चक्र प्रारंभ होगा, जिसमें स्वयं के अस्तित्व को कायम रखना नए वैश्विक क्रम को जन्म देगा।

बीते वर्षों में पारिस्थितिकी संतुलन के लिए क्षेत्रीय विकास की महत्ता को प्रतिपादित किया जाता रहा है किंतु व्यावहारिक रूप में आमजन इस पर अमल करने से स्वयं को अलग करता रहा है। वास्तविकता यह है कि हमारी मिट्टी में 60 प्रतिशत तक जैव प्रजातियां रहती हैं जिनमे जैविक प्रक्रिया को सुगम बनाने वाले सूक्ष्मजीव, औषधीय, फंगस और स्तनधारी जीव भी होते हैं। इस मिट्टी से ही 95 प्रतिशत भोजन उत्पन्न होता है और यह बहुतायत में कार्बन उत्सर्जन को समाहित करने की क्षमता भी रखती है। माना जाता है कि एक चम्मच स्वस्थ मिट्टी में उतने जीव होते हैं, जितने पृथ्वी पर इंसान। संभवतया यही कारण है कि मिट्टी को पवित्रता की दृष्टि से उच्च स्थान पर रखा जाता है एवं शुद्धि के लिए भी इसका उपयोग किया जाता है। मुश्किल यह है कि जलवायु परिवर्तन, घटते वन क्षेत्रों और उपज की चाह में भूमि का क्षरण होता जा रहा है। पर्यावरण दिवस के आयोजनों में पौधरोपण की बहुतायत रहती है किंतु यथार्थ में इससे कहीं भिन्न करने की आवश्यकता है और उसमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान आहार परिवर्तन का है।

भोजन में दाल एवं अन्य पारिस्थितिकी सम्मत खाद्य सामग्री के उपयोग से भूमि को उर्वरा बनाए रखने में सहायता मिलती है। साथ ही, रसोई में उत्पन्न कूड़े से खाद निर्माण करना भी बेहतर वातावरण एवं उपजाऊ भूमि को बनाए रखने में मददगार साबित होता है। भूमि के बंजर बनने या बढ़ते रेगिस्तान के लिए सर्वाधिक दोषी हंै भौतिक जीवन की आवश्यकता पूर्ति के लिए किया जा रहा निरंतर कटाव। वर्तमान की आरामदायक जिंदगी की प्रत्याशा में भविष्य के लिए शूल की नींव रखी जा रही है। आवश्यकताओं पर अंकुश और भविष्य की आशंकाओं के मद्देनजर ही सार्थक जीवनयापन किया जा सकता है। धरती पर चोट से पहले उसके दूरगामी प्रभाव का चित्रण संभवतया उत्तरदायी व्यवहार के प्रति जागरूक करे।

हमारा गैर उत्तरदायी व्यवहार आने वाली पीढ़ी के लिए विकट परिस्थितियां विरासत में छोड़ जाएगा। अतएव धरती मां को खुशहाल, जीवनदायनी और उर्वरा बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि हम सभी अपने आहार, व्यवहार, जीवनशैली को पारिस्थितिकी अनुकूल ढालें और अपने सुखद, हरित एवं समृद्ध भविष्य का निर्माण करें। बेहतर जीवन के लिए परिवर्तन की प्रथम कड़ी स्वयं से ही प्रारंभ होगी।