वन संरक्षण अधिनियम पर सवालिया निशान

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जलवायु परिवर्तन के बढ़ते खतरों के उलट खबर है कि 1980 में वन संरक्षण अधिनियम बनने के बाद से देश में यह आंकड़ा सवा 10 लाख हेक्टेयर को पार कर गया है। यानी 1980 के बाद से अब तक सवा दस लाख हेक्टेयर से भी ज्यादा वन भूमि का गैर वनीय उपयोग के लिए डायवर्जन हुआ है।पिछले 5 साल में देश भर में करीब 90 हजार हेक्टेयर वन भूमि, गैर वनीय उपयोग के लिए परिवर्तित कर दी गई है।

जंगलों के बेहतर संरक्षण के लिए साल 1980 में वन संरक्षण अधिनियम बना था। उसके बाद से अब तक देशभर में लगभग 10 लाख 26 हजार हेक्टेयर वन भूमि का गैर वनीय उपयोग के लिए डायवर्जन हुआ है। डाउन टू अर्थ की एक रिपोर्ट के अनुसार, यह भूमि दिल्ली के भौगोलिक क्षेत्रफल से लगभग 7 गुना अधिक है। उदारीकरण से ठीक पहले साल 1990 में सर्वाधिक 1 लाख 27 हजार से अधिक वन भूमि का डायवर्जन हुआ था। दूसरा सबसे बड़ा डायवर्जन साल 2000 में हुआ। जबकि इस साल 1 लाख 16 हजार से अधिक वन भूमि गैर वनीय उपयोग के लिए डायवर्ट की गई है।

7 अगस्त 2023 को लोकसभा में पूछे गए एक प्रश्न के जवाब में सरकार ने बताया कि पिछले 15 वर्षों (2008-09 से 2022-23) में 3,05,756 हेक्टेयर वन भूमि का डायवर्जन हुआ है। वहीं अगर पिछले 5 वर्षों के आंकड़ों को देखें तो करीब 90 हजार हेक्टेयर वन भूमि का डायवर्जन हुआ है। अप्रैल 2018 से मार्च 2023 के बीच देशभर के 33 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों की सबसे अधिक वन भूमि सड़क और खनन के लिए ली गई है।

पिछले 5 सालों की बात करें तो इन सालों में 90 हजार हेक्टेयर वन भूमि का गैर वनीय उपयोग के लिए डायवर्जन हुआ है। इसमें से सड़क (19,497 हेक्टेयर) और खनन (18,790 हेक्टेयर) के लिए 38,767 हेक्टेयर (43 प्रतिशत) भूमि का डायवर्जन हुआ है। ट्रांसमिशन लाइन व सिंचाई के लिए 10 हजार हेक्टेयर से अधिक वन भूमि का उपयोग किया गया है। रक्षा से जुड़ी परियोजनों के लिए 7,631 हेक्टेयर, हाइड्रो परियोजनों के लिए 6,218 हेक्टेयर और रेलवे के लिए 4,770 हेक्टेयर भूमि का डायवर्जन किया गया है। इनके अतिरिक्त नहरों, अस्पताल/डिस्पेंसरी, पेयजल, वनग्रामों के कन्वर्जन, उद्योग, ऑप्टिकल फाइबर केबल, पाइपलाइन, पुनर्वास, स्कूल, सौर ऊर्जा, ताप ऊर्जा, पवन ऊर्जा, गांवों में विद्युतीकरण की परियोजनाओं के लिए भी वन भूिम का बड़े पैमाने पर डायवर्जन हुआ है।

दुनिया भर के जंगल खतरे में!

देखा जाए तो दुनिया भर के जंगल खतरे में है। साल 2022 में ही करीब 66 लाख हेक्टेयर में फैले जंगल इंसानी फितरत की भेंट चढ़ गए। यानी हर मिनट में दुनिया भर में करीब 13 हेक्टेयर में फैले जंगल काटे जा रहे हैं। इसके लिए कृषि, पशुपालन, सोया की खेती, ताड़ के तेल का उत्पादन और छोटी जोत वाली खेती प्रमुख रूप से जिम्मेदार है। इनके साथ ही सड़कों का बिछता जाल, पेड़ों की व्यावसायिक रूप से हो रही कटाई भी इनको गंभीर नुकसान पहुंचा रही है।

अमर उजाला की इसी साल अक्टूबर की एक रिपोर्ट के अनुसार, यह खुलासा दुनिया भर के पर्यावरण संगठनों के गठबंधन द्वारा जारी नई रिपोर्ट ‘2023 फारेस्ट डिक्लेरेशन असेसमेंट : ऑफ ट्रैक एंड फॉलिंग बिहाइंड’ में हुआ है। रिपोर्ट में इस बात का मूल्यांकन किया गया है कि देश, कंपनियां और निवेशक 2030 तक वनों की कटाई को समाप्त करने और 35 करोड़ हेक्टेयर क्षतिग्रस्त भूमि की बहाली के अपने वादों को पूरा करने के लिए कितना बेहतर कर रहे हैं।

ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच के 2022 के आंकड़ों से पता चला है कि आग से हर मिनट करीब 16 फुटबॉल मैदानों के बराबर जंगल स्वाहा हो रहे हैं। 2021 में वैश्विक स्तर पर करीब 93 लाख हेक्टेयर जंगल आग की भेंट चढ़ गए थे। रिपोर्ट के अनुसार उष्णकटिबंधीय एशियाई देशों में बेसलाइन की तुलना में वनों की कटाई में 18 फीसदी की कमी आई है। मलेशिया और इंडोनेशिया ने 2022 के लिए तय अपने अंतरिम लक्ष्यों को हासिल कर लिया है।

विशेषज्ञों का कहना है कि 2023 तक दुनिया में जंगलों की इस कटाई को 27.8 फीसदी तक कम करने की जरूरत है। क्लाइमेट फोकस के वरिष्ठ सलाहकार एरिन मैट्सन का कहना है कि दुिनया भर के जंगल खतरे में हैं। यदि तापमान में हो रही वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस के नीचे रखना है तो इन जंगलों को बरकरार रखना बेहद जरूरी है। जंगलों की हो रही कटाई को रोकने के लिए व्यवस्था में व्यापक बदलाव की आवश्यकता है। 2021 की तुलना में  2022 के दौरान वैश्विक स्तर पर चार फीसदी ज्यादा तेजी से वनों को सफाया किया गया है।

जलवायु परिवर्तन से बचने के लिए एशियाई वन विविधता बेहद जरूरी: अध्ययन

एशिया के उष्णकटिबंधीय वन पहले की तुलना में जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक लचीले हो सकते हैं, बशर्ते कि उनकी विविधता बरकरार रखी जाए। एक अध्ययन में कहा गया है कि जंगल जलवायु परिवर्तन को रोकने में अहम भूमिका निभाते हैं, जबकि पेड़ों में विविधता जंगल के महत्व को और भी बढ़ा देती है।

डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट के अनुसार, सिडनी विश्वविद्यालय की डॉ. रेबेका हैमिल्टन के नेतृत्व में अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों की एक टीम ने पाया है कि 19,000 साल के दौरान दक्षिण पूर्व एशिया में शुष्क सवाना की अधिकता के बजाय, अलग-अलग तरह के ढके और खुले जंगल थे। अध्ययन के निष्कर्षों से पता चलता है कि एशिया के उष्णकटिबंधीय वन पहले की तुलना में जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक लचीले हो सकते हैं, बशर्ते कि उनकी विविधता बरकरार रखी जाए। वे आगे बताते हैं कि पूरे क्षेत्र में रहने वाले लोगों और जानवरों के पास पहले की तुलना में अधिक विविध प्राकृतिक संसाधन रहे होंगे। यह अध्ययन प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज में प्रकाशित हुआ है।

सिडनी विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ जियोसाइंसेज के डॉ. हैमिल्टन ने कहा कि जलवायु परिवर्तन में तेजी आने के साथ, वैज्ञानिक और पारिस्थितिकी विज्ञानी इस बात को लेकर चिंतित हैं कि इसका दक्षिण पूर्व एशिया जैसे क्षेत्रों के उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों पर क्या प्रभाव पड़ेगा। उन्होंने कहा कि लचीलेपन की सुविधा प्रदान करने वाले वनों को बनाए रखना क्षेत्र के लिए एक अहम संरक्षण उद्देश्य होना चाहिए। अध्ययन में सुझाव दिया गया है कि मौसम के अनुसार शुष्क वनों के प्रकारों के साथ-साथ 1000 मीटर से ऊपर के जंगलों, जिन्हें ‘पर्वतीय वन’ भी कहा जाता है, इनकी सुरक्षा को प्राथमिकता देना एशिया के वर्षावनों के भविष्य के ‘सवनीकरण’ को रोकने के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है।

सावनीकरण से तात्पर्य एक ऐसे परिदृश्य से है जो आमतौर पर एक वन क्षेत्र, के सवाना पारिस्थितिकी तंत्र में बदलाव से है, जिसमें आम तौर पर खुले जंगली मैदान शामिल होते हैं। यह परिवर्तन आम तौर पर जलवायु परिवर्तन, मानवीय हस्तक्षेप या प्राकृतिक पारिस्थितिक बदलाव के कारण होता है। शोधकर्ताओं ने सवाना मॉडल का परीक्षण करने के लिए उष्णकटिबंधीय दक्षिण पूर्व एशिया में 59 पुरापर्यावरण स्थलों के रिकॉर्ड का विश्लेषण किया, जिसमें लास्ट ग्लेशियल मैक्सिमम या अंतिम ग्लैशियल के दौरान पूरे क्षेत्र में एक बड़े, समान घास के मैदान का विस्तार माना गया था। उन्होंने पाया कि झीलों में संरक्षित पराग कणों के रिकॉर्ड से पता चलता है कि इस अवधि के दौरान घास के मैदानों के विस्तार के साथ-साथ जंगल भी मौजूद थे।

साभार : सबरंग