वैज्ञानिक विधि से कैसे करें लहसुन की उन्नत खेती ?

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लहसुन की खेती

वानस्पतिक नाम : एलियम सैताइवम 

कुल : Liliaceae अथवा Alliaceae

गुणसूत्रों की संख्या : 16

उद्भव स्थान : लहसुन का उद्भव स्थान मध्य एशिया माना जाता है,

लहसुन में गंधक युक्त यौगिक अलाइल  प्रोपाइल डाई सल्फाइड तथा डाई अलाइल डाई सल्फाइड पाया जाता है, लहसुन में रंगहीन,गंधहीन व जल में घुलनशील एलिन नामक एमिनो अम्ल भी पाया जाता है,

जलवायु व तापमान

यह ठंडी जलवायु की फसल है,साथ ही पाले के लिए सहनशील भी है,इसके विकास के लिए आवश्यक है कि न तो बहुत अधिक सर्दी हो और न ही बहुत अधिक गर्मी,इसके उचित वृद्धि व विकास के लिए 13 से 24०C तापमान उपयुक्त है,इससे अधिक तापमान होने पर इसकी गांठो का निर्माण अवरुद्ध हो जाता है,

लहसुन की उन्नत किस्में :

किसान भाइयों लहसुन की उन्नत किस्में बहुत ही कम हैं,लहसुन की अधिक पैदावार वाले क्षेत्रों में स्थानीय किस्में ही उगाई जाती है,इस कारण लहसुन की उन्नत किस्मों के विकास पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता,

देश में दो प्रकार का लहसुन उगाया जाता है –

लाल और सफ़ेद

सफ़ेद लहसुन का उपयोग खाने के लिए किया जाता है जबकि लाल लहसुन का प्रयोग औधाधियों के निर्माण में किया जाता है,लाल लहसुन बहुत ही अधिक कडवा होता है,

सफ़ेद लहसुन के भी बनावट व आकार के अनुसार दो भेद की किस्में हैं –

छोटी गाँठ वाली उन्नत किस्में : गोदावरी सेलेक्शन 1,तहीती,G1,G4,G41,G50,G282,टाइप 56-4,

बड़ी गाँठ वाली उन्नत किस्में : जीवन,रजाली-गद्दी,पूना मदुराई मैदानी,फवारी,सोलन,

अनेक पुतियों वाली लहसुन की उन्नत किस्में : पूना लहसुन,नासिक लहसुन,मदुराई पर्वतीय,मदुराई मैदानी लहसुन,जामनगर लहसुन,

लहसुन नवीनतम उन्नत किस्में : एग्रीफाउंड पार्वती,यमुना सफ़ेद(G 1,व G 50) कैलीफोर्निया अर्ली,कोयम्बटूर – 2,

लहसुन की खेती के लिए भूमि

लहसुन की खेती के उचित जल प्रबन्धन वाली दोमट व समतल भूमि उपयुक्त होती है,वैसे लहसुन की खेती लगभग सभी प्रकार की मिटटी में कर सकते हैं,किन्तु भारी भूमि में खेती करने से लहसुन के कंद विकृत हो जाते हैं,जिससे लहसुन की गुणवत्ता पर बड़ा विपरीत असर पड़ता है,लहसुन हेतु चुनी गयी भूमि का पीएच मान 5.5 से 7.5 के बीच होना चाहिये,

भूमि की तैयारी ;

चूँकि लहसुन एक उथली जड़ वाला पौधा है अत : इसके लिए गहरी जुताई की आवश्यकता नही पडती,फिर भी देशी हल से 4 से 5 जुताई कर देना चाहिए,हर जुताई के बाद पाटा अवश्य चलाना चाहिए,जिससे ढेले टूटकर खेत भुरभुरा बन जाए,कार्बनिक खाद जैसे कम्पोस्ट,सड़ी गली गोबर की खाद 200 कुंतल प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में फैलाकर खेत में मिला देना चाहिए,;लहसुन के कंदों के समुचित विकास के लिए भूमि को ढेलेरहित होना अति आवश्यक है,

बीज की मात्रा ;

6 से 7 कुंतल प्रति हेक्टेयर की दर से बीज की मात्रा पर्याप्त होती है,

लहसुन के बीज उपचारित करना :

बीजों को बोने से पहले डायथेन एम 45 की 2 से 3 ग्राम दवा को प्रति लीटर पानी में मिलाकर बीज को उपचारित कर लेना चाहिए,

बुवाई का समय

लहसुन की बुवाई का सबसे उपयुक्त समय सितम्बर के तीसरे सप्ताह से अक्टूबर के पहले सप्ताह का समय बेहद उपयुक्त होता है फिर उत्तरी भारत में मैदानी भागों में लहसुन की बुवाई आप सितम्बर से अक्टूबर माह तक कर सकते हैं,वहीं पर्वतीय क्षेत्रों में लहसुन की बुवाई मार्च से अप्रैल माह में की जाती है,

लहसुन बीज बोने की दूरी,अंतरण :

पंक्ति से पंक्ति की दूरी : 15 सेंटीमीटर

पौध से पौध की दूरी : 7.5 सेंटीमीटर

बीजों की गहराई : 5 से 6 सेंटीमीटर

लहसुन की बुवाई की विधि

किसान भाई लहसुन के बीजों की बुवाई तीन विधियों के कर सकते हैं :

छिटकवां अथवा हाथ द्वारा बुवाई करना : लहसुन के लिए तैयार खेत में क्यारियाँ बना लेते हैं,मेड से 15 सेंटीमीटर की दूरी पर कतारें बनाकर बीज से बीज की दूरी 7.5 सेंटीमीटर लहसुन की पुत्तियों को जड़ का वाला सिरा नीचे तथा नुकीला वाला भाग को ऊपर रखकर 5 से 6 सेंटीमीटर की गहराई पर बुवाई करते हैं,

डबलिंग द्वारा बुवाई करना : डबलिंग से बने 5 से 6 सेंटीमीटर निशान पर लहसुन की पुत्तियों की बुवाई करते हैं,

हल के पीछे कूंड में बुवाई करना : इस विधि से देशी हल से 15 सेंटीमीटर दूरी पर 7 से 8 सेंटीमीटर गहरे कूंड बनते जाते हैं तथा लहसुन को कूंडों में बोते जाते हैं,बुवाई के बाद पाटा चलाकर खेत को समतल बना लिया जाता है,इस विधि से बड़े पैमाने पर लहसुन की बुवाई की जा सकती है,

खाद तथा उर्वरक की मात्राखेत में रोपाई के पहले 200 से 250 कुंतल/हेक्टेयर की दर से गोबर की खाद मिला देनी चाहिए ।खेत में उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण से प्राप्त परिणाम के अनुसार करना चाहिए । यदि मृदा परीक्षण समय से न हुआ हो तो क्रमशः –
नाइट्रोजन : 100 किलोग्राम/
फॉस्फोरस : 60 किलोग्राम
पोटाश : 100 किलोग्राम ति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करनी चाहिए ।
जिसमें नाइट्रोजन की आधी मात्रा यानी 50 किलोग्राम मात्रा व फॉस्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा क्रमशः 50 व 100 किलोग्राम, जुताई से समय ही खेत में अच्छे से मिला देना चाहिए । शेष नाइट्रोजन की आधी मात्रा रोपाई के एक माह बाद खड़ी फसल में टॉप ड्रेसिंग द्वारा दें ।
लहसुन की खेती में सिंचाई व जल प्रबंधन :
लहसुन की खेती से अधिकतम पैदावर प्राप्त करने के लिए खेत में पर्याप्त नमी बनाए रखना बेहद आवश्यक है ।
आमतौर पर प्याज की खेती में 10 से 15 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है ।
जाड़े के मौसम में : 12 – 15 दिन के अंतराल पर
गर्मी के मौसम में : 7 – 10 दिन के अंतराल पर
लहसुन की फसल पर सदैव हल्की सिंचाई ही करनी चाहिए । आवश्यकता से अधिक पानी को जल निकासी द्वारा खेत से बाहर निकाल दें अन्यथा प्याज की गुणवत्ता पर बुरा असर पड़ता है ।
लहसुन की खेती में खरपतवार नियंत्रण
लहसुन को फसल पर उगने वाले खरपतवार :
● सत्यानाशी (कटेली)
● चौलाई
● दूब
● मोथा
● मकड़ा
● खरतुवा
लहसुन की फसल से खरपतवारों को निराई कर निकाल दें अन्यथा ये खरपतवार खेत से खाद व उर्वरकों का पोषण अवशोषित कर लेते हैं जिससे पौधों की बढ़वार कम हो जाती है ।
लहसुन के खेत में खरपतवारों के नियंत्रण के लिए टोक ई 25 को 6 लीटर/हेक्टेयर मात्रा को 1000 लीटर पानी में घोलकर रोपाई के तुरंत बाद छिड़काव करें । ऐसा करने से खरपतवार नही उग पाते,
अथवा रोपाई से पहले ही बेसालिन 1 किलोग्राम सक्रिय अवयव को पूरे खेत में बिखेरकर मिट्टी में मिला देना चाहिए । जिससे खरपतवार नहीं उगते,इसके बावजूद भी यदि खरपतवार उग आए तो उन्हें निराई कर नष्ट कर देना चाहिए ।
लहसुन की फसल पर लगने वाले रोग व बचाव तथा नियंत्रण :
प्याज की फसल पर प्याज का कण्ड, बैंगनी धब्बा,ग्रीवा विगलन,जीवाणु मृदु विगलन,मृदु रोमिल आसिता,प्याज किट्ट, मूल विगलन,श्वेत विगलन,आर्दपतन,पौध अंगमारी जैसे रोगों का प्रकोप होता है जिसके प्रभाव का लक्षण,बचाव,तथा रोकथाम विवरण इस प्रकार है :-
ग्रीवा विगलन –
‎● कारण व लक्षण :
 यह फंफूदजनित रोग है । इसके प्रभाव से प्याज के शल्क पत्र सड़ जाते हैं तथा कन्दो के ऊतक सिकुड़ जाते हैं । जिससे कंद सूखे से हो जाते हैं ।
बचाव व रोकथाम : यह रोग लाल प्याज की किस्म में नहीं लगता इसलिए सम्भव तो तो सफेद प्याज की खेती न करके लाल अथवा पीली प्याज की खेती करनी चाहिए ।
प्याज का झुलसा रोग : यह एक फफूंदजनित रोग है जो स्टेमफिलियम बेसिकंरियम नामक फंगस के कारण होता है इस रोग के प्रभाव से पत्तियों का ऊपरी भाग झुलस जाता है,
बचाव व रोकथाम : इस रोग से बचाव हेतु खड़ी फसल में डायथेन एम 45 का छिड़काव करें,
जीवाणु मृदु विगलन –
कारण व लक्षण :
 यह एक जीवाणुजनित रोग है । यह रोग इर्विनिया कैरोटोवोरा नामक जीवाणु के द्वारा होता है, जिसके प्रभाव से कंद सड़ जाते हैं तथा पौधे मुरझा जाते हैं । कंद खोदने पर चिपचिपे ,बदबूदार व सड़े-गले निकलने हैं ।
बचाव व रोकथाम :
● भण्डारण से पूर्व कन्दों की ऊपरी पत्तियों की कटाई करके अच्छी प्रकार सुखाकर ही भंडारित करना चहिये ।
● भंडारण के लिए कम पानी वाले,तथा हवादार भंडार गृहों का चयन कर भंडारित करना चाहिए ।
प्याज का कण्ड :
कारण व लक्षण :
 यह एक फफूंदी जनित रोग है,यह यूरोसिस्टिस सेपूले नामक फफूंद के कारण होता है,अंकुरण के शुरुआत में बीजपत्र पर काले धब्बों अथवा स्पॉट के रूप में इसके लक्षण दिखाई देने लगते हैं । स्पॉट के फट जाने पर अनगिनत जीवाणु काले चूर्ण सदृश पूरे पौधे को संक्रमित करता है । परिणाम स्वरूप महीने भर में ही पौधा मर जाता है ।
बचाव का रोकथाम :
इस रोग से बचाव हेतु बुआई के पूर्व ही बीज को फंफूदनाशक यथा केप्टान अथवा थायराम की 2.5 ग्राम मात्रा को प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर लेना चाहिए ।
अथवा
रोपाई के पहले ही पौध को मेथिल ब्रोमाइड की 1 किलोग्राम प्रति 25 वर्गमीटर की दर से तैयार घोल से उपचारित कर लेना चाहिए ।
बैंगनी धब्बा :
कारण व लक्षण : यह फफूंदजनित रोग है जो आल्टरनरिया पोराई नामक कवक के कारण होता है,जिसका प्रकोप पौधे की पत्तियों,बीज स्तम्भों तथा प्याज की गांठों पर होता है । पौधे के रोगी भाग पर धंसे हुए सफेद धब्बे बनते हैं,जिसके धब्बे के किनारे लाल या बंगनी रंग व मध्य भाग बैंगनी रंग का होता है । इस रोग से प्रभावित कंद सड़ गल जाते हैं तथा पौधे के तने व पत्तियाँ सूखकर गिर जाती हैं ।

काली फफूंदी :
कारण व लक्षण : यह एक फफूंदजनित रोग है जो एस्पर्जिलस नामक फफूंदी से होता है,यह रोग भंडार में रखे लहसुन के बल्बों में होता है,इस रोग के बचाव हेतु बल्बों का संचयन व परिवहन व उसके भंडारण बहुत अधिक सावधानी बरतनी चाहिए,
बचाव व रोकथाम :
● रोगग्रस्त खेत में 2-3 साल तक बल्ब वर्गीय पौधे यथा प्याज व लहसुन न लगाएं ।
● इस रोग से बचाव हेतु बुआई के पूर्व ही बीज को फंफूदनाशक यथा केप्टान अथवा थायराम की 2.5 ग्राम मात्रा को प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर लेना चाहिए ।
● इस रोग के प्रकोप से बचाव हेतु इंडोफिल एम 45 की 2.5 किलोग्राम/हेक्टेयर मात्रा को 1000 लीटर पानी में घोलकर फसल पर छिड़काव करें ।
मृदु रोमिल आसिता :
कारण व लक्षण : यह रोग भी फफूंदजनित रोग है । रोग से प्रभावित पौधों की पत्तियों पर पीले रंग के अंडाकार से आयताकार आकार में धब्बे पड़ जाते हैं । जिसके कारण पौधे में हरे रंग की कमी के कारण क्लोरोफिल का अभाव हो जाता है । परिणामस्वरूप पौधा का रोगग्रस्त भाग सूख जाता है । लहसुन की पैदावार पर विपरीत असर पड़ता है । कंद छोटे हो जाते हैं । ऐसे कन्दो की भंडारण क्षमता भी कम होती है ।
◆ बचाव व रोकथाम :
● इस रोग से बचाव हेतु बुआई के पूर्व ही बीज को फंफूदनाशक यथा केप्टान अथवा थायराम की 2.5 ग्राम मात्रा को प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर लेना चाहिए ।
इस रोग के प्रकोप से बचाव हेतु इंडोफिल एम 45 की 2.5 किलोग्राम/हेक्टेयर मात्रा को 1000 लीटर पानी में घोलकर फसल पर एक सप्ताह के अंतर पर छिड़काव करें । साथ ही खेत में जल निकासी की उचित व्यवस्था करें ।
कीट नियंत्रण :
कीटों के प्रकोप के कारण लहसुन की उपज पर बड़ा विपरीत प्रभाव पड़ता है । उपज कम हो जाती है । आइये जानते हैं कीटों व उनके रोकथाम के बारे में,
प्याज की फसल पर लगने वाले कीट व उनकी रोकथाम :
लहसुन की फसल पर ओनियन थ्रिप्स(प्याज का भुनगा),ओनियन मैगट(प्याज की मक्खी),रिजका की सूंडी,तम्बाकू की सूंडी,आदि कीडों का बड़ा प्रकोप होता है ।
प्याज का भुनगा या थ्रिप्स : पीले रंग के करीब से 1 मिलीलीटर लम्बे बेलनाकार कीट अपने खरोचने व चूसने वाले मुखांग से पत्तियों को खुरचकर उसका रस चूसते हैं,पौधे पर अधिक प्रकोप से पत्तियों पर चमकीले धब्बे व धीरे – धीरे नोक कत्थई हो जाती है,इस कीट के अधिक प्रकोप के प्रभाव से पत्तियाँ सूख जाती है,पौधे की बढ़वार रुक जाती है,प्याज की गांठों में विकृति उत्पन्न हो जाती है,
प्याज की मक्खी – मैगट : इस कीट के लार्वा प्याज के तने व गाँठ में छेदकर मुलायम वाले भाग को खाकर पौधे को नुक्सान पहुचाते हैं,व्यस्क मक्खी 6 व लार्वा 8 मिलीलीटर लम्बी होती है,ये पौधे के गांठ के भाग का मांसल भाग खाकर खोखला बना देते हैं,
रिजका की सुंडी : यह कीट लहसुन के अलावा बैंगन,मिर्च,मूली की फसल को भी हानि पहुंचाता है,भूरे-हरे रंग के ऊपर की तरह टेढ़ी-मेढ़ी धारियों वाली इस कीट की सूंडी प्याज की फसल को बहुत हानि पहुंचाती है,जिससे प्याज की पैदावार कम हो जाती है,तथा गुणवत्ता पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है,
तम्बाकू की सूंडी : इस कीट की छोटी-छोटी सूंडी पौधों की मुलायम पत्तियों को खाकर ठूंठ बना देती हैं,यह सब कुछ भक्षण करने वाला खतरनाक कीट प्याज के अलावा टमाटर लहसुन व तम्बाकू की फसल को भी काफी हानि पहुंचाता है,
उपरोक्त कीटों की रोकथान हेतु उपाय :
सबसे पहले कीटों के अण्डों व सूडियों को निकालकर नष्ट कर देना चाहिए,
साइपरमेंथ्रिन 0.15% के घोल का प्रति हेक्टेयर की दर 600 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए,

लहसुन की फसल की खुदाई :

अच्छी गुणवत्ता वाली लहसुन की उपज हेतु समय खुदाई करना अति आवश्यक है,खुदाई में विलम्ब करने से जड़ों में नई गांठे निकलने लगती है जिससे प्याज की क्वालिटी पर बुरा असर पड़ता है,प्याज प्रतिरोपण के 5 से 6 महीने बाद लहसुन की पत्तियों का करीब 70 प्रतिशत भाग सूखकर जमीन में गिर जाये तब खुरपी अथवा कुदाल की सहायता से प्याज की खुदाई करनी चाहिए,किसान भाई ध्यान रखें खुदाई के समय मिटटी में पर्याप्त नमी होनी चाहिए,

उपज : किसान भाई लहसुन की खेती से 80 से 100 कुंतल प्रति हेक्टेयर की दर से उपज प्राप्त कर सकते हैं,