जलवायु परिवर्तन के दौर में ‘प्राकृतिक बॉन्ड’पर चर्चा जरूरी

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जलवायु परिवर्तन के मौजूदा संकट के दौर में प्रकृति के साथ हमारा जो बॉन्ड है, उसके प्रति हम कब प्रतिबद्ध होंगे? अपने देश की जनसंख्या के हिसाब से प्राकृतिक संसाधनों की भारी कमी है। हमारे देश में दुनिया की 18 फीसदी आबादी रहती है, लेकिन हमारे पास वैश्विक भूमि  का 2.4 फीसदी, वन का दो फीसदी, स्वच्छ जल का मात्र चार फीसदी ही उपलब्ध है। भविष्य में जैसे-जैसे जनसंख्या का दबाव बढ़ता जाएगा, ये संसाधन और कम होते जाएंगे। अभी जिस दर से हम प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल कर रहे हैं, वर्ष 2030 तक हमें 25 गुना ज्यादा प्राकृतिक संसाधनों की जरूरत होगी।

पारिस्थितिकी के खतरे बढ़ते ही जा रहे हैं, इससे अस्थिरता का माहौल पैदा होगा। इंस्टीट्यूट फॉर इकोनॉमिक्स ऐंड पीस के अनुसार, अगर खाद्य सुरक्षा पर 25 फीसदी खतरा होगा, तो देश में टकराव/ संघर्ष की आशंका 36 फीसदी तक बढ़ जाएगी और इतने ही पानी की कमी होगी, तो संघर्ष की घटनाएं 18 फीसदी बढ़ जाएंगी। जैव विविधता की दृष्टि से हमारे देश में चार हॉटस्पॉट हैं, लेकिन ऐसी आशंका जताई जा रही है कि इन स्थानों का भी 90 प्रतिशत क्षेत्र कम हो चुका है।

संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, प्राकृतिक आपदा के कारण भारत को हर साल औसतन सात अरब अमेरिकी डॉलर का आर्थिक नुकसान होता है। यही कारण है कि पिछले पांच वर्षों में, संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) को पूरा करने में भारत की रैंकिंग में गिरावट आई है। वर्ष 2022 में भारत 121वें स्थान पर था। इन सब घटनाओं को देखते हुए आज प्राकृतिक बॉन्ड के प्रति प्रतिबद्धता की आवश्यकता है।

यह प्राकृतिक बॉन्ड है क्या? हमने अब तक प्रकृति से जो लिया है या ले रहे हैं, उसे उसी अनुपात में प्रकृति को हम लौटा सकें, यह प्रतिबद्धता ही प्राकृतिक बॉन्ड है। अगर हम नहीं लौटा पाते हैं, तो हम इस प्रकृति के कर्जदार हैं। प्रकृति कोई वित्तीय संस्था नहीं है, जो पूरी जांच-पड़ताल के साथ हमें कर्ज देती है। इस पूरे ब्रह्मांड का संचालन सह अस्तित्व के सिद्धांत के तहत होता है। प्रकृति हमारे जीवन का आधार है, पर उसका ऋण चुकाना भूलकर हम सुख-साधनों की तरफ भाग रहे हैं। हम अपनी आने वाली पीढ़ी को आखिर कैसी पृथ्वी सौंप कर जाएंगे? कोरोना महामारी के संकट ने हमें सिखा दिया है कि वास्तविक धन क्या है। प्रकृति की उपेक्षा करके मनुष्य आगे नहीं बढ़ सकता।  

जलवायु परिवर्तन और उसके कारण होने वाले विस्थापन का मुकाबला करने तथा पीड़ित लोगों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए अब तक देश में कोई ठोस नीति या कार्य योजना नहीं है। यही कारण है कि एक अनुमान के मुताबिक, अकेले भारत में जलवायु आपदाओं के कारण 2050 तक 4.5 करोड़ लोगों को अपने घरों से पलायन करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन के दौर में चरम मौसमी घटनाओं के परिणामस्वरूप पलायन करने वाले लोगों की संख्या वर्तमान संख्या से तीन गुना हो जाएगी।

वैश्विक जलवायु जोखिम सूचकांक, 2021, अनुसंधान समूह जर्मनवॉच की वार्षिक रैंकिंग, भारत को जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित शीर्ष 10 देशों में रखती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि जिस तरह वैश्विक तापमान में वृद्धि हो रही है, उसके चलते 2035 तक खाद्य कीमतों में सालाना 3.2 फीसदी की वृद्धि होने का अंदेशा है। यही नहीं, इससे फसलों की उपज पर भी प्रतिकूल असर पड़ सकता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि जलवायु में आ रहे बदलावों के कारण आम आदमी के खाने की थाली कहीं ज्यादा महंगी हो सकती है।

इन दिनों देश में लोकसभा चुनाव की तैयारी जोर-शोर से चल रही है। लेकिन बढ़ते वैश्विक तापमान और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से जनजीवन पर क्या असर पड़ेगा, और उससे निपटने के लिए राजनीतिक दलों के पास क्या कार्ययोजना है, यह इस चुनावी बहस का मुद्दा नहीं है। अगर सही में देखा जाए तो यह चुनाव भी पर्यावरणीय दृष्टिकोण से बहुत ज्यादा नुकसानदायक है। इसलिए हम अपने देश की लोकतांत्रिक संरचना को हरित लोकतंत्र के अंतर्गत शामिल नहीं कर सकते हैं। मौजूदा जलवायु परिवर्तन के दौर में यह आवश्यक है कि देश को एक हरित लोकतांत्रिक व्यवस्था बनाने की पहल की जाए, और प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन रोका जाए। पर्यावरण के विनाश की कीमत पर किया जाने वाला विकास अंततः हमें विनाश के रास्ते पर ही ले जाएगा। इसलिए समय रहते सचेत होने और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध होने की जरूरत है।