भारत अपनी घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए हर साल खाद्य तेलों के आयात पर लगभग 1.4 लाख करोड़ रुपये खर्च कर रहा है. हमारा पैसा इंडोनेशिया, मलेशिया, रूस, यूक्रेन और अर्जेंटीना जैसे मुल्कों में जा रहा है, जबकि अपने देश के ही किसानों को क्यों सरसों का एमएसपी भी नसीब नहीं हो रहा.
खाद्य तेलों का बड़ा आयातक होने के बावजूद भारत में किसानों को सरसों का सही दाम नहीं मिल पा रहा है. सही दाम से मेरा मतलब न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) से है. ओपन मार्केट में देश के कई राज्यों में किसान सरसों को एमएसपी से कम दाम पर बेचने के लिए मजबूर हैं. ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर किसान तिलहन की खेती क्यों और कैसे बढ़ाएंगे. एक तरफ हम इंडोनेशिया, मलेशिया, रूस, यूक्रेन और अर्जेंटीना जैसे मुल्कों से सालाना 1 लाख 40 हजार करोड़ रुपये का खाद्य तेल मंगा रहे हैं तो दूसरी ओर अपने देश के किसान एमएसपी के लिए तरस रहे हैं. किसान महापंचायत के अध्यक्ष रामपाल जाट का कहना है कि ऐसा सिर्फ और सिर्फ केंद्र और राज्यों की पॉलिसी की वजह से हो रहा है. केंद्र सरकार ने इंपोर्ट ड्यूटी घटा दी है और राज्य तय लिमिट में खरीद नहीं कर रहे हैं.
जब भी किसी फसल का एरिया बढ़ाने की बात होती है तब किसानों की ओर वह दाम पर आकर अटक जाती है. अगर अपने देश के किसानों को तिलहन फसलों का दाम नहीं मिलेगा तो फिर वो खेती क्यों बढ़ाएंगे और कैसे भारत खाद्य तेलों के मामले में आत्मनिर्भर होगा. किसान बहुत मुश्किल से तिलहन खेती के लिए राजी हो रहा है उसके बावजूद उसे एमएसपी तक के लिए तरसना पड़ रहा है. विशेषज्ञों का कहना है कि इंपोर्ट ड्यूटी नाम मात्र की रहने की वजह से ज्यादातर खाद्य तेल के कारोबारी दूसरे देशों से खाद्य तेल मंगा रहे हैं. ऐसे में अपने देश के किसान सरसों की खेती करके पछता रहे हैं. जबकि खाद्य तेलों में सरसों का योगदान करीब 28 फीसदी है. यह सोयाबीन के बाद दूसरी सबसे महत्वपूर्ण तिलहनी फसल है.
कितना मिल रहा है दाम
राष्ट्रीय कृषि बाजार (e-NAM) के अनुसार राजस्थान की ज्यादातर मंडियों में अधिकतम दाम भी एमएसपी से कम है. देश का 48 फीसदी सरसों राजस्थान में ही पैदा होता है. इस वक्त राज्य की अधिकांश मंडियों में सरसों का दाम 3000 से लेकर 5200 रुपये प्रति क्विंटल तक का भाव मिल रहा है. जबकि रबी मार्केटिंग सीजन 2024-25 के लिए केंद्र सरकार ने 5650 रुपये प्रति क्विंटल की एमएसपी तय की हुई है. यह समर्थन मूल्य है न अधिकतम. इसलिए इससे कम भाव मिलने पर किसानों को नुकसान होगा.
राज्य | मंडी | न्यूनतम | अधिकतम |
राजस्थान | सरदार शहर | 3,023 | 4,826 |
राजस्थान | कोटा | 3,655 | 5,011 |
राजस्थान | बूंदी | 4,000 | 5,001 |
राजस्थान | दौसा | 4,500 | 4,855 |
हरियाणा | डबवाली | 4,050 | 4,885 |
हरियाणा | ऐलनाबाद | 4,100 | 5,039 |
हरियाणा | होडल | 4,600 | 4,890 |
हरियाणा | हिसार | 4,500 | 5,000 |
मध्य प्रदेश | विदिशा | 3,761 | 4,751 |
मध्य प्रदेश | जबलपुर | 4,310 | 5,055 |
Source: e-NAM/02/04/24 |
खरीद का क्या है नियम
सरसों की खरीद मूल्य समर्थन योजना (Price Support Scheme-PSS) के तहत होती है. इसके तहत कुल उत्पादन का 25 परसेंट खरीदने का नियम है. इस साल तो अभी खरीद शुरू ही हुई है. ऐसे में पिछले साल का आईना दिखाना पड़ेगा. रबी फसल सीजन 2022-23 में 125 लाख मीट्रिक टन से अधिक सरसों पैदा हुई थी. केंद्र के नियमों के मुताबिक एमएसपी पर कम से कम 31 लाख मीट्रिक टन सरसों की खरीद होनी चाहिए थी. लेकिन हुई थी सिर्फ 10 लाख 20 हजार मीट्रिक टन की. इस लिहाज से सबसे कम खरीद सबसे बड़े उत्पादक राजस्थान में हुई थी. इसके लिए पूरी तरह से तब की गहलोत सरकार जिम्मेदार थी.
क्यों नहीं मिल रहा सही दाम
किसानों को सही दाम दिलाने के लिए सरसों सत्याग्रह कर चुके किसान नेता रामपाल जाट का कहना है कि पहले ही कुल सरसों उत्पादन में से 75 फीसदी पैदावार एमएसपी के दायरे से बाहर कर दी गई है. ऐसे में बाजार पर सरकारी दाम का कोई दबाव नहीं बनता. इसके बाद राज्य सरकारों की ओर से दिक्कत खड़ी की जाती है, क्योंकि वो अपने उत्पादन का 25 फीसदी भी किसानों से खरीदने के लिए तैयार नहीं हैं. इसलिए दाम कम होने की दो बड़ी वजह हैं. इसमें से एक है खाद्य तेलों के आयात शुल्क में कमी और दूसरी है राज्यों द्वारा एमएसपी पर खरीद न करना.