अरुण डिके
उन्नीसवीं सदी में औद्योगिक क्रांति के साथ खेती में रसायनों का प्रयोग और नतीजे में अधिक लागत से अधिक उत्पादन का चलन शुरु हुआ था। इस कथित कृषि-विकास के परिणामों पर बीसवीं सदी की शुरुआत में कृषि- वैज्ञानिक अलबर्ट हावर्ड ने सवाल उठाए थे।
खरा वैज्ञानिक एक दार्शनिक की तरह आने वाली आपदाओं को पहले ही भांपकर अपना शोध प्रारंभ कर देता है। खेती में प्रकृति की लीलाओं को नकारते हुए जर्मनी के रसायनशास्त्री बेसिनगल्ट ने वर्ष 1834 में कृषि रसायनों की नींव डाली थी। पहले तो कुछ मुट्ठी भर किसानों ने रसायन खेत में डाले। उन्हें देखकर और किसान भी रसायन डालने लगे। 1840 में जर्मनी के ही रसायनशास्त्री जॉन अगस्टीत लायबेक ने जमीन के नीचे की गहरी परतों में पाया कि पौधों के लिए जरूरी पोषण वहाँ उपलब्ध नहीं है, इसलिए रसायन जरूरी है। लायबेक भूल गए कि जमीन के नीचे 18 इंच की परत में केंचुओं के द्वारा उत्पादित ह्युमस पौध-पोषण का प्रमुख अंग है।
आगे चलकर लायबेक असफल हो गए क्योंकि वे केवल रसायनशास्त्री थे। खेती का उन्हें कोई ज्ञान नहीं था। सन् 1890 में अपनी मृत्यु के पहले उन्हें अपनी भूल का अहसास हुआ और उन्होंने ‘एनसायक्ल्लोपीडिया ब्रिटानिका’ में लिखा कि “उस महान सर्जक (प्रकृति) की बुद्धिमत्ता के खिलाफ बहुत बड़ा पाप किया है जिसकी सजा अब मुझे मिल रही है।” मजे की बात यह है लायबेक का यह वाक्य रहस्यमय ढंग से वहाँ से गायब हो गया और ‘एनपीके’ रसायन पूरी दुनिया में फैल गए। जॉन अगस्टीत लायबेक की एक छोटी सी भूल को दुनिया आज भी भुगत रही है।
वर्ष 1905 में ब्रिटिश सरकार ने भारत के किसानों को रासायनिक खेती सिखाने कृषि वैज्ञानिक अलबर्ट हॉवर्ड को भेजा था। बिहार के पूसा गांव में ब्रिटिश शासन के अंतर्गत ‘इंपीरियल कृषि अनुसंधान केन्द्र’ में अलबर्ट हॉवर्ड नियुक्त हुए। उनकी आदत थी कि वे सुबह उठकर आसपास के गांवों में किसानों की प्रचलित खेती देखते थे। इस दौरान उन्हें दो बातें नजर आईं। एक तो, हर किसान बहुफसली खेती करता है और दूसरा, केवल पकी हुई गोबर की खाद खेतों में डालता है। वे चकरा गए और उन्होंने तय किया कि उन्हें रासायनिक खेती सिखाने के पहले उनकी पारंपरिक खेती का अध्ययन किया जाए। अलबर्ट हॉवर्ड और उनकी पत्नी गैबरिल ने भारत की पारंपरिक खेती देखने पूरब-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण छान मारा। उन्होंने पाया कि किसान भले ही अनपढ़ हो, लेकिन उन्हें खेत की मिट्टी का, खरपतवारों का, मौसम के उतार-चढ़ावों का पूरा ज्ञान है। बगैर रासायनों के मात्र मानव श्रम से वे खेत के खरपतवार निकालकर जानवरों को खिलाते हैं और बहवृक्षीय खेती होने से भारी वर्षा या भीषण गर्मी में मिट्टी की उर्वरता कम नहीं होने देते।
अलबर्ट हॉवर्ड ने पाया कि सफल खेती का मूल तत्व मिट्टी है, उसे जितना उर्वर रखा जाए उतनी उपज अच्छी होती है। खेतों में खरपतवार प्रकृति का दिया अमूल्य वरदान है। अलबर्ट हॉवर्ड ने भारत के किसानों की बहुफसली खेती का गौर से निरीक्षण किया और पाया कि ज्वार, बाजरा, मक्का, कपास, मूंगफली, मूंग, उड़द, तिल यदि एक साथ बोए जाएं तो चारावर्णीय फसलों की जड़ों में मायकोरायझा सूक्ष्म जीवाणु पनपता है जो मिट्टी की उर्वरता अक्षुण्ण बनाए रखता है।
गुजरात के किसान जो अरंडी की फसल बोते हैं उसकी जड़ों में भी मायकोरायझा प्रमुखता से उपलब्ध है। मायकोरायझा सूक्ष्म जीवाणु के कारण ही खरपतवार और मृत प्राणियों के अवशेषों से ह्युमस पदार्थ बनते हैं, उसी के कारण फसलों के लिए आवश्यक कर्ब और नत्र का अनुपात 10:1 बना रहता है।
हॉवर्ड का निरीक्षण था कि उन्नत बीजों से फसल का उत्पादन यदि 10 प्रतिशत बढ़ता है तो जैविक मिट्टी से 100 प्रतिशत उत्पादन बढ़ेगा। अलबर्ट हॉवर्ड के जैविक खेती के शोध का मूल तत्व था कि खेतों की समस्याएँ खेतों में ही हल होंगी, प्रयोगशाला में नहीं। भारत के किसानों की खेती देखकर अलबर्ट हॉवर्ड इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने अनुसंधान केन्द्र में किए गए पौधरोग, कीटरोग, मृदारसायन प्रयोगशालाओं को, यहाँ तक कि सांख्यिकी शास्त्र (स्टेटिस्टिक) को भी गलत ठहराया। भारत के किसानों को वे अपना गुरू मानते थे।
अलबर्ट हॉवर्ड को पूरा भरोसा हो गया था कि जैविक खेती ही किसानों को मुक्ति दिलाएगी, लेकिन उनके शोध को वैज्ञानिक परीक्षण से ही मान्यता मिल सकती थी। स्वतंत्र अनुसंधान के लिए उन्हें जमीन चाहिए थी। किसी ने उन्हें सुझाव दिया कि इन्दौर कपास का बहुत बड़ा क्षेत्र है, वे वहाँ जाएं। श्रीमंत तुकोजीराव होलकर ने कपास के उन्नत बीज के लिए इन्दौर में वर्ष 1902 में ‘इन्स्टीट्यूट ऑफ प्लांट इंडस्ट्री’ प्रारंभ की थी। अलबर्ट हॉवर्ड के काम से प्रभावित महाराजा ने उन्हें वर्ष 1923 में ‘इन्स्टीट्यूट ऑफ प्लांट इंडस्ट्री’ का निर्देशक नियुक्त किया।
उन दिनों कपास और अन्य फसलों की कटाई के बाद उनके अवशेषों की पिसाई के लिए केन्द्र में बैलगाड़ियों का उपयोग होता था। इन्दौर का वर्तमान कृषि महाविद्यालय ही वह केन्द्र है जहाँ अलबर्ट हॉवर्ड ने फसलों के अवशेष गोबर, गोमूत्र और मिट्टी से जैविक खाद तैयार करने का अनुसंधान प्रारंभ किया। उसके मिश्रण को बार-बार पलटने के लिए वहाँ हौद बनाए। 6 माह में पाया गया कि इन खरपतवारों और फसल अवशेषों में गोबर और गोमूत्र मिलाने से ही जैविक खाद तैयार होती है। अलबर्ट हॉवर्ड के इस शोध में डॉ. यशवंत वाड का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा।
वर्ष 1931 में अपना अनुसंधान पूरा कर अलबर्ट हॉवर्ड सेवा निवृत्त होकर इंग्लैंड वापस चले गए, लेकिन अन्य देशों में घूमकर उन्होंने इन्दौर में बनी जैविक खाद का प्रचार किया। अपने शोध को उन्होंने नाम दिया “इन्दौर मेथड ऑफ कंपोस्ट मेकिंग।” होलकर महाराजा की कृतज्ञता को उन्होंने इस तरह नवाजा और इन्दौर का नाम रोशन किया। हॉवर्ड भारत के खेतों को एक जायदाद मानते थे और उस पर उन्होंने 1940 में किताब लिखी “एन एग्रीकल्चरल टेस्टामेंट।” उसका मराठी और हिन्दी में भी अनुवाद उपलब्ध है।
स्रोत- पर्यावरण डाइजेस्ट
(आधुनिक कृषि विज्ञान की पढ़ाई और फिर उसी तरह के कृषि व्यवसाय वाली कम्पनियों में काम करने के बाद श्री अरुण डिके प्राकृतिक खेती के अलौकिक लोक में सचमुच तन, मन और धन से रम गए हैं।)