ब्रिटिश काल में किसानों की दर्द भरी दुर्दशा

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ब्रिटिश शासन काल में किसानों की दशा को सत्तर की दशक में कई फिल्मों के माध्यम से दिखाया गया. ब्रिटिश काल में अन्न दाता, अन्न के दानें-दानें के लिए मोहताज रहा. ब्रिटिश काल किसानों का पतन का काल कहा जाए तो शायद गलत नहीं. इस काल में जमींदारी व्यवस्था व कर व्यवस्था ने किसानों की कमर मानों तोड़ कर रख दी हो. पहले घरेलू व्यवसाय को चोट पहुंचाई गई, फिर उनकी भूमि हड़पी गई और उसी भूमि पर उनसे मनमानी खेती कराई गई, जिसके लिए उनसे कर वसूला गया. चाहे बाढ़ आए या सूखा पड़े, चाहे फसल खराब हो या अकाल पड़े किसानों को हर स्थिति में जमींदार को कर देना पड़ता था.

जमींदारों पर निर्भर किसानों का भरण-पोषण

बुरे समय में किसानों का भरण-पोषण जमींदारों की दया पर ही निर्भर था. यह एक ऐसा समय था जिसमें जमींदार भी ब्रिटिश शासक के इशारों पर नाचते थे क्योंकि वह खुद भी सरकार के मोहरे मात्र थे. यदि वे किसानों पर दया करते तो उनकी जमींदारी नीलाम हो जाती. जिसे खरीदने के लिए शहरी साहूकार एवं एजेंट हमेशा तत्पर रहते थे. जमींदार के कहर के बाद धीरे- धीरे बिचौलियों के शोषण तले किसान दबते चले गए. यही वह समय था जब देश में कृषि की हालत बिगड़ी क्योंकि कर का भुगतान करते-करते किसानों के पास खेती करने के लिए पूंजी नहीं बचती थी और बिचौलियों को खेती के विकास में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उन्हें सिर्फ भूमि कर से मतलब रहता था. यहां यह कहना ज्यादा उचित होगा कि ब्रिटिश शासक भी यही चाहते थे. उन्हें उनकी योजना कारगर होती दिखती थी जिसके तहत वे किसानों की पारंपरिक फसलों को छोड़कर वाणिज्यिक फसलें उगाने के लिए मजबूर कर सकें.

बिचौलियों का शुरू हुआ शोषण

नील, अफीम, बड़े रेशे वाली कपास, मदभरी रेशम यह सभी फसलें ब्रिटिश के विस्तार और विकास के लिए सहयोगी थी. किसानों को इन फसलों में मुनाफा दिखाया गया. क्योंकि पारंपरिक फसलों पर उन्हें कर देने के साथ-साथ जीवन को गुजारने की स्थिति में नहीं छोड़ती थी. अतः किसानों को वही फसलें उगाने के लिए प्रोत्साहित किया गया. पूर्व में चाय, कॉफी के बाग़, पंजाब में गेहूं पर दबाव, पटसन तिलहन के उत्पादन पर जोर देने को ब्रिटिशों के लाभ से अलग नहीं रखा जा सकता. यह लाभ प्राप्त करने वाला संपूर्ण वर्ग जिसमें ब्रिटिश सरकार के साथ-साथ जमींदार और बिचौलिए भी शामिल थे, पूरी जिम्मेदारी किसानों पर डाल दिया करते थे. यानी इन नकदी फसलों के लिए बाजार में मांग बढ़ती तो मुनाफा शोषक वर्ग को मिलता, लेकिन जब बाजार मंद होता तो नुकसान का भार शोषित हो रहे वर्ग यानी किसानों को उठाना पड़ता. यह किसान अपनी इन फसलों की बिक्री के लिए पूरी तरह से अंतर्राष्ट्रीय बाजार पर निर्भर बना दिए गए थे. उनके पास इन फसलों के लिए कोई देसी बाजार नहीं था. परिणाम स्वरूप देश में अकाल भूखमरी की स्थिति बनी रही. जिन किसानों ने अपनी जमीनों पर पारंपरिक फसलें उगाने बंद कर दिए. जोकि उनकी खाद्यान्न भी थी वह किसान भोजन के लिए पूरी तरह मुद्रा मुनाफे पर निर्भर हो गया. यह मुनाफा अंतर्राष्ट्रीय बाजार पर निर्भर करता था.

गांव संग पिछड़ा देश

यह एक पूरा चक्र था जिसमें सारा बोझ किसानों के कंधों पर पड़ रहा था. उनके पास अब खाने के लिए अपना अनाज नहीं था. अनाज उन्हें अब बाजार से उस मुनाफे से खरीदना पड़ता था जो कि नगदी फसलों से प्राप्त होता था. यह नगदी फसलें उगाने के लिए बीज खाद की व्यवस्था करने के लिए पैसे की जरूरत पड़ती थी जो किसान साहूकारों महाजनों से लेते थे और इस तरह वे किसान कर्ज के बोझ में डूबते जाते थे. इस चक्र में उलझ कर कृषि पिछड़ी कृषक,  पिछड़े और कृषि पर आधारित गांव पिछड़े और गांव पर निर्भर करता हुआ देश पिछड़ा.

बदल दिया दृष्टिकोण

ब्रिटिशों द्वारा लगाए गए तरक्की के झूठे पर्दे ने यदि भारत को कुछ दिया तो वह एक ऐसे वर्ग का जन्म जिसकी दिलचस्पी और दृष्टिकोण भारतीय ना होकर विदेशी था. ब्रिटिश काल में ब्रिटिशों द्वारा दी गई शिक्षा प्राप्त इस वर्ग ने ब्रिटिश वस्तुओं को ही सरंक्षण प्रदान किया और आज भी कर रहा है. यह वर्ग अपने ही देश के उन लोगों से दूर होता चला गया जिसे साज़िशन, गरीब और मजबूर और दरिद्र बनाया गया था. दूसरे शब्दों में कहें तो संपूर्ण कृषक एवं ग्रामीण वर्ग.

यहां दुख की बात यह है कि 300 सालों में जो नुकसान इस देश का हुआ उसकी भरपाई आज तक नहीं हो पाई है. आज भी बिचौलियों की मौजूदगी और पारंपरिक खेती के लिए मंडियों के अभाव में इस देश का किसान नुकसान भुगत रहा है.