Home खेती किसानी महाराष्ट्र : सभी फसलों के किसान हैं परेशान

महाराष्ट्र : सभी फसलों के किसान हैं परेशान

0

राज्य में अच्छी पैदावार के बावजूद फसलों का कारोबार लागत के मुकाबले बेहद कम कीमत पर होने से राज्य के किसानों में बढ़ रहा रोष महाराष्ट्र में उत्पादित ज्यादातर कृषि जिंसों का कारोबार बहुत कम कीमतों पर हो रहा है और ये कीमतें किसानों के लिए लाभकारी नहीं है। इसी वजह से दूसरे राज्यों की तरह इस राज्य के ज्यादातर किसान ज्यादा जिंसों की बुआई कर रहे हैं जिनके लिए केंद्र और राज्य सरकारों ने पहले वादा किया था। लेकिन अब उन्हें ऐसा महसूस होता है कि उनकी कोशिशें व्यर्थ हैं और अगले साल वे इस उत्साह से अपनी कोशिश जारी नहीं रख पाएंगे। महाराष्ट्र में मुख्यतौर पर धान, ज्वार, बाजरा, गेहूं, तुअर, मूंग, उड़द, चना और अन्य दालों की फसलें उगाई जाती हैं।

यह राज्य तिलहन का सबसे ज्यादा उत्पादन करता है। मूंगफली, सूरजमुखी, सोयाबीन प्रमुख तिलहन फसलें हैं। नकदी फसलों में कपास, गन्ना, हल्दी और सब्जियां-प्याज शामिल हैं। राज्य के ज्यादातर किसान आंदोलन कर रहे हैं क्योंकि इन ज्यादातर जिंसों का कारोबार कम कीमतों पर हो रहा है। तिलहन और चने की कीमतों में कुछ सुधार दिख रहा है क्योंकि केंद्र सरकार ने आयात शुल्क बढ़ाते हुए चने के आयात के लिए दरवाजे बंद कर दिए जो एक प्रमुख रबी फसल है। वहीं तेल का आयात भी घटेगा और तिलहन बीज की घरेलू कीमतों में भी सुधार हो रहा है। लेकिन कई लघु और सीमांत किसानों को राहत नहीं मिली है। मिसाल के तौर पर महाराष्ट्र के चीनी उत्पादन में बढ़ोतरी का अनुमान है जो भारतीय चीनी मिल संगठन (इस्मा) के मुताबिक 42 लाख टन से बढ़कर इस साल 1.01 करोड़ टन हो सकता है।

राज्य के चीनी आयुक्त के द्वारा मुहैया कराए गए आंकड़े के मुताबिक मिलों पर गन्ना किसानों का बकाया 28 फरवरी तक बढ़कर 23.7 अरब रुपये तक हो गया जो पिछले साल समान अवधि के दौरान महज 2.61 करोड़ रुपये था।चीनी की कीमतों के कम होने से राज्य के गन्ना किसानों की स्थिति ज्यादा गंभीर ही होगी। इस सीजन में महाराष्ट्र कुल चीनी के एक-तिहाई हिस्से का उत्पादन करेगा। पिछले साल सूखा पड़ा था इसी वजह से उत्पादन बेहद कम था। किसानों के लिए दोनों ही साल खराब थे। पिछले साल चीनी की ज्यादा कीमतों की वजह से कोई बकाया नहीं था और मिल भुगतान करने के लिए तैयार थे। 

प्याज की कीमतों में सबसे ज्यादा उतार-चढ़ाव देखा जाता है और इसने कभी-कभी किसानों को काफी बेहतर प्रतिफल दिया जब इसकी कीमतें आसमान छू रही थीं। लेकिन वास्तविक लाभ किसानों को अभी नहीं मिला है क्योंकि जब भी उत्पादन बढ़ता है कीमतें कम हो जाती हैं। राज्य में नासिक के नजदीक लासलगांव मंडी प्याज का सबसे बड़ा बाजार है और एनएचआरडीएफ के मुताबिक वहां सोमवार को प्याज की बिक्री 7.6 रुपये प्रति किलोग्राम के भाव से हो रही थी। यह आदर्श कीमत है और खराब गुणवत्ता वाले प्याज की बिक्री 3 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से हुई जबकि कुछ महीने पहले ही इसकी कीमतें 35 रुपये प्रति किलोग्राम थी। प्याज एवं लहसुन अनुसंधान निदेशालय, महाराष्ट्र के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है इसीलिए उन्होंने किसानों को यह सलाह दी है कि वे प्याज का भंडार तैयार करें ताकि जब मई के बाद आपूर्ति सीजन खत्म होना शुरू हो तब उसकी बिक्री की जाए। महाराष्ट्र प्याज का सबसे ज्यादा उत्पादन करने वाला राज्य है जिसकी 25 फीसदी हिस्सेदारी है और इस साल राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड ने राज्य में 53 लाख टन प्याज के उत्पादन का अनुमान लगाया था।

पिछले साल तक प्याज की कीमतें बेहद कम 5 रुपये से नीचे थीं जिसकी वजह से भी किसानों में रोष है। कपास महाराष्ट्र की दूसरी प्रमुख फसल है और यह कपास के दूसरे सबसे बड़े उत्पादक राज्य के तौर पर उभरा है। हालांकि कपड़ा आयुक्त ने यह अनुमान लगाया है कि राज्य का कपास उत्पादन 85 लाख गांठों (एक गांठ में 170 किलोग्राम कपास) से ज्यादा रह सकता है। लेकिन भारतीय कपास संगठन के मुताबिक यह आंकड़ा 81 लाख गांठ तक हो सकता है।कपड़ा आयुक्त के आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल महाराष्ट्र ने 88 लाख कपास की गांठों का उत्पादन किया था। लेकिन कीटों की वजह से हुए नुकसान की वजह से किसानों के प्रतिनिधि व्यापक रैली कर रहे हैं और इनका कहना है, ‘बीटी कॉटन की बुआई भी इससे बची नहीं है हालांकि बीटी बीजों की लागत ज्यादा है।’ 

बस तसल्ली की बात यही है कि कपास की कीमतें राज्य की अन्य प्रमुख फसलों की तुलना में ज्यादा है। लेकिन हमेशा की तरह कम प्राप्तियों की वजह से किसानों को बाजार में काफी घाटे का सामना करना पड़ रहा है और खरीद एजेंसियां इस समस्या का हल करने के लिए पर्याप्त तरीके से सक्षम नहीं रही हैं।  महाराष्ट्र दालों का एक प्रमुख उत्पादक रहा है। ज्यादा उत्पादन के बावजूद पिछले दो सालों में दालों की कीमतों में गिरावट देखी जा रही है क्योंकि बाजार की कीमतों पर आयात का लगातार दबाव दिख रहा है। पिछले साल सितंबर में सरकार ने तुअर, उड़द आदि की दालों की मात्रा सीमित कर स्थिति को नियंत्रित करने की कोशिश की थी। अब पिछले दो महीने में चने के आयात शुल्क में दो बार बढ़ोतरी की गई है जिससे आयात अब लाभकारी नहीं है। हालांकि महाराष्ट्र की मंडी में चने की कीमतें अब भी न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे हैं। 

Exit mobile version